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ज़माना बदलेगा: जीवन का अक्स दिखाती कहानियाँ 

समीक्षित पुस्तक: ज़माना बदलेगा 
मूल लेखिका: शिव शंकरी 
अनुवादक और संपादक: डॉ. जमुना कृष्णराज 
प्रकाशन वर्ष: 2021 
प्रकाशक: सृजनलोक प्रकाशन , नई दिल्ली .
मूल्य: ₹150/-

कमोबेश हर साहित्य प्रेमी यह मानता है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’। साहित्यिक गोष्ठियों में यह वाक्य कई बार सुनने में भी आता है और पढ़ा भी है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि लेखक अपनी वैचारिकी, अपने व्यक्तिगत अनुभवों को शब्दों में पिरोता सृजन में प्रवृत्त होता है, कहानी या कविता बुनता है। तो माना जाना चाहिए कि वो उसका अपना निजी दृष्टिकोण या नज़रिया होता है। और इस नज़रिए के बनने में भी पीछे कई घटक काम करते हैं। कुछ तो बाहरी आकर्षण होते हैं जैसे भौगोलिक परिस्थितियाँ इत्यादि और कुछ आंतरिक जैसे उसके अपने संस्कार। इसीलिए लेखक को पाठक से तादाम्य बिठाने में कुछ न कुछ कठिनाई आ ही जाती है। साधारणतः कहानी के परिप्रेक्ष्य में एक स्थायी मान्य परिभाषा यह भी है कि कथा की संवेदना को पाठक की चेतना उद्वेलित करनी चाहिए ताकि चिंतन का बीज पड़ सके। यह तो हुई कहानी की सैद्धांतिक परिभाषा। लेकिन अगर कहानी पढ़ कर पाठक स्तब्ध रह जाए . . . उसका मस्तिष्क ही सुन्न हो जाए तो? यह तो कथ्य का नकारात्मक प्रभाव माना जाना चाहिए, सकारात्मक नहीं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है यहाँ कि ऐसा तब होता है जब कथ्य से पाठक भावात्मक रूप से सघन जुड़ाव अनुभूत करने लगता है। पाठक को कहानी के चरित्र अपने आस-पास ही नज़र आने लगते हैं। यह स्तब्धता इसलिए आती है जब उसे लगता है कि ये पात्र और व्यवहार उसके लिए अजनबी नहीं है। यानी कालातीत सार्वजनीन संवेदना को अगर कोई लेखक अपनी लेखनी में प्रतिबिम्बित कर सके तो निश्चय ही उसका लेखन समाज का दर्पण कहलाने की योग्यता पा जाता है। ऐसा तादाम्य विरले की देखने को मिलता है और तो और मन पर स्थायी प्रभाव डालने की कहानियाँ बहुत कम ही पढ़ने में आती हैं। इस विस्तृत पूर्व पीठिका का उद्देश्य यही है कि जिस कहानी संग्रह की बात आगे की जाएगी उसमें लेखिका ने पाठक के साथ ऐसा ही तादाम्य जोड़ा है। सोचने का विषय यह है कि संग्रह की हर कहानी में क्या ऐसा जुड़ाव सम्भव हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए आपके सामने प्रस्तुत है हाल ही में “सरस्वती सम्मान” से नवाज़ीं गईं तमिल की लब्ध प्रतिष्ठित लेखिका “शिवशंकरी” की बारह कहानियों का हिन्दी में अनूदित कहानी संग्रह “ज़माना बदलेगा”। अनुवादक हैं डॉ. जमुना कृष्णराज। जब यह संग्रह भाग्यवश हाथ में आया तो पहली ही कहानी ने आलोचना की भावभूमि तैयार कर दी। 

संग्रह में बारह कहानियाँ हैं। मध्यम या कहिए निम्न वर्गीय पात्र। अति साधारण घटनाएँ। सीधी-सादी शैली, सरल सहज भाषा प्रवाह। इन कहानियों को पढ़कर पाठक की चेतना न अचंभित हो जाती है और न रोमांचित। पाठक आश्चर्य से उछल तो बिल्कुल नहीं जाता। लेकिन हाँ, कहानी की संवेदना उसे मर्माहत अवश्य कर देती है। चुभन हृदय में घाव कर जाता है। सीत्कार सी निकल जाती है। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हर कहानी की इतिश्री त्रासदी ही है। नहीं। कदापि नहीं। हाँ, अधिकतर कहानियाँ भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली विकृत मानसिकता को अवश्य दिखाती हैं। और शिल्प इतना सुगठित है कि हर चरित्र पाठक की आँखों के सामने जीवंत हो उठता है। शिवशंकरी की कहानियों की एक उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि हर कहानी अपने अवसान पर एक नए सृजन की क्षमता को लिए हुए है। इनके कई उपन्यासों को फ़िल्माया गया है, दूरदर्शन पर धारावाहिक बनाए गए हैं। 

संग्रह में जितनी भी कहानियाँ है, यक़ीनन बीसवीं शती उत्तरार्ध के आरंभ में लिखी गईं हैं। लगभग सभी कहानियों के कथ्य पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित है जहाँ संबंधों के बिगड़ते समीकरण को बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से रेशे दर रेशे उघाड़ा गया है। देखा जाए तो अधिकतर कहानियों में जहाँ नायक की भूमिका में स्त्री पात्र हैं, वहीं खलनायक की भूमिका में भी स्त्री ही है। कहीं उनकी निरीहता प्रतिकूल परिस्थितियों का ग्रास बन जाती है तो कहीं उनकी आर्थिक स्वतंत्रता आधुनिकता का स्वाँग रचती तिरिया चरित्र दिखाती है। और पुरुष पात्र या तो घड़ी के पेंडुलम की तरह कभी पत्नी की ओर तो कभी माँ की ओर डोलते रहते हैं या फिर तटस्थ जीवन जीते हुए अपनी चारित्रिक विसंगतियों का दोष परिस्थितियों के सर मढ़ कर दोषमुक्त भाव से संतुष्ट रहते हैं। 
 
संग्रह की पहली कहानी “आया” का कथ्य बड़ा ही मार्मिक हृदयस्पर्शी है। आत्मीय संबंधों में जब औपचारिकता का प्रवेश हो जाए है तो वह स्थिति काफ़ी त्रासद हो जाती है। ढहते रिश्तों की मिट्टी से उड़ती धूल आँखों के लिए कितनी पीड़ादायक हो सकती है यह तो वही माँ-बाप जानें जिनके आँखों के तारों ने उन्हें बुढ़ापे में बिसरा दिया है। मुम्बई महानगर की ऊँची इमारतों के छोटे घरों की सजी-सजाई बैठक कक्ष में गँवार बुज़ुर्ग वाडिवाम्बाल की उपस्थिति बहू बेटे को दाग़ लगने लगती है। वाडिवाम्बाल उन के लिए अझेल समस्या बन जाती है क्योंकि फ़र्श पर बैठ कर खाना खाना, ज़ोर से डकार लेना और आगंतुक के प्रति आदर भाव रखना जैसी “ग्रामीण आदतें” महानगरीय सभ्यता में मान्य नहीं। बेटे मोहन की सीमित आय अगर किसी प्राणी का बोझ नहीं ढो सकती है तो वे है यही बेकार माँ जिसने जीवन पर्यंत अपनी सारी कमाई इसी संतान पर न्योछावर कर तो दी लेकिन यह कभी न सोचा कि बुढ़ापे में रिक्त हाथ किसी पर निर्भर होना कितना अपमानजनक हो सकता है। उसे बड़े नाटकीय ढंग से समझा-बुझा कर गाँव वापस भेज दिया जाता है। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब यही बेकार गँवार वाडिवाम्बाल अप्रत्याशित रूप से समाधान भी बन जाती है जब अपने नवजात बच्चे की देखभाल के लिए उसकी काम-काजी शहरी बहू को किसी विश्वास पात्र “आया” की आवश्यकता महसूस होने लगती है। 

इस कहानी ने हिंदी की वरिष्ठ कथाकार मालती जोशी की कहानी ‘ये तेरा घर, ये मेरा घर’ का स्मरण करा दिया जहाँ ‘बुज़ुर्ग बाबूजी’ का निरापेक्षी शांत स्वभाव होने के बावजूद बेटे के परिवार के लिए ‘अझेल’ बन जाना पाठक की अंतश्चेतना को भेद कर रख देता है। और यह ‘अझेल’ की स्थिति इसलिए आती है क्योंकि अभी वे ज़िन्दा हाँड-मांस के जीव हैं और घर में उनकी ‘उपस्थिति’ महसूस की जा सकती है। महानगरीय घरों में बुज़ुर्ग बाप के लिए अलग कमरे की व्यवस्था . . . यानी घर के नियत संतुलन में घोर ‘असुविधा’ आने की सम्भावना। और इस समस्या को भली-भाँति बूझ कर बाबूजी ‘अपने घर’ गाँव वापस चले जाते हैं। 

संग्रह की एक और कहानी ‘काँटों की सेज’ में नायक की ऐसी ही घनीभूत पीड़ा है जहाँ उस का अपनी पत्नी ‘कमलम’ को ख़ुश करने के लिए लिया निर्णय अपनी ‘बुढ़िया माँ’ से हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर देता है। 

धनासक्ति इतनी बढ़ गई है कि इंसान अपने पराए का भेद ही भूल चुका है। स्वार्थ में अंधी विकृत बुद्धि के आगे पाशविकता भी लज्जित हो जाती है जब बेटा अपनी माँ को जीते-जी नोंच खा डालता है संग्रह की तीसरी कहानी ‘गिद्ध’ में। लेखिका कहती है, “गिद्ध भी मृत का ही भक्षण करते है जीवित का नहीं”। बूढ़ी माँ का जीवन भर भयादोहन करने वाला उसका सुपुत्र मरने पर अंतिम संस्कार करने भी नहीं आता। 

संग्रह की इन तीन कहानियों को पढ़ कर ऐसा लगता है कि इन चरित्रों के माध्यम से लेखिका बुज़ुर्ग वर्ग को चेतावनी दे रही है कि ऐसी अप्रत्याशित परिस्थिति कभी भी किसी के भी जीवन में दस्तक दे सकती है। मनुष्य का आचरण परिस्थिति सापेक्ष होता है। और परिस्थितियाँ परिवर्तनशील होती हैं। आत्म निर्भर जीवन ही सम्मान पाता है। 

संग्रह में केवल बारह कहानियाँ है। एक आध को छोड़ कर देखें तो लेखिका ने दो वर्गों की नारियों की कथा व्यथा को इन कहानियों में बुना है। एक है अशिक्षा के अंधकार में रूढ़ियों और अंधविश्वासों की बलि चढ़ घुट-घुट कर विवश जीवन बिताता नारी वर्ग और दूसरा नयी चेतना के आलोक में शिक्षा प्राप्त कर अर्थोपार्जन करता नारी वर्ग। 

ध्यातव्य रहे कहानियों का समय पिछली शती के साठ या सत्तर के दशक का समय है। यह काल मूल्य संक्रमण का काल था। जहाँ अभी भी नारी शिक्षा स्वीकार्य नहीं थी। गृहकार्य में दक्षता, विवाह और तदुपरांत सन्तानोत्पत्ति। समाज में यही गुण नारी जीवन को सार्थकता देने वाले मानदंड माने जाते थे। संस्कारी परिवारों में सुरक्षा का राग अलापकर नारी का अकेले घर से बाहर निकलना तक वर्जित कर दिया गया था। दहेज़ प्रथा ने तो भारतीय समाज को, फिर चाहे वह दक्षिण हो या उत्तर, खोखला कर दिया था। हिंदी कथा साहित्य में भी इन परिस्थितियों की झलक देखने को मिल जाती है। 

अर्थाभाव में अनमेल विवाह सर्व सामान्य हुआ करता था। यही स्थिति पैदा हो जाती है संग्रह की कहानी “आशाएँ जो कभी जन्मी नहीं” की प्रौढ़ अशिक्षित नायिका के साथ जब इकत्तीस वर्ष की आयु तक उसका विवाह नहीं होता और वह अपने माँ-बाप के लिए बोझ बन जाती है। रिश्ता आता है एक अधेड़ उम्र के बूढ़े का जिसकी अपनी ख़ुद की संतानों का विवाह हो चुका होता है। विवश नायिका परिस्थितियों से समझौता कर लेती है और अपनी अजन्मी आशाओं को सीने में ही दफ़न कर ख़ुशी-ख़ुशी माँ पिताजी की आज्ञा शिरोधार्य कर उस बूढ़े से विवाह की सहमति दे देती है। 

संग्रह की प्रतिनिधि कहानी ‘ज़माना बदलेगा’ भी इन्हीं सामाजिक विषमताओं से जूझती कहानी है। कहानी आत्म कथात्मक शैली में लिखी गई है। कथ्य बुना गया है नदी तट पर बसी झोपड़-झुग्गियों में रहने वाली बाढ़ पीड़िता इंद्राणी और मुम्बई में निवास कर रहे शंकर पर जो जन्म से भले ही ग़रीबी में पला-बढ़ा है लेकिन शिक्षा योग्यता और प्रतिभा के बल से महानगर में एक उच्च पद पर पहुँच जाता है। लेखिका ने बड़े ही सुघड़ तरीक़े से यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि, निःसंदेह शिक्षा आत्मनिर्भर बनाती है, आत्मविश्वास भी जगाती है पर साथ ही साथ शिक्षा का प्रकाश जीवन दृष्टि भी बदल डालता है। जहाँ उच्च शिक्षित शंकर अपनी बेटी के उपचार के लिए अरब की खाड़ी में मिली नौकरी को भी ठुकरा देने का मादा रखता है और वहीं अनपढ़ गँवार इंद्राणी भंयकर बाढ़ के संकट में अपने नवजात बेटे को छोड़ तीन किलो धान बचाने की चिंता करती हुई झोंपड़ी के अंदर भाग जाती है और इस बीच पानी का बहाव इतना बढ़ता है कि बाहर चारपाई पर लेटे शिशु को बहा ले जाता है। उसमें इतना भी विवेक नहीं जगता कि अपने बेटे का पालन पोषण वह इस तीन किलो धान के बिना भी किसी न किसी तरह कर सकती है। मूर्खता की पराकाष्ठा बेटे को निगल जाती है। 

लेखिका ने ये कहानियाँ उस समय लिखी थीं जब समाज में एक तरफ़ पुरानी मान्यताओं के बंधन शिथिल न हुए थे जिसके चलते नारी की स्थिति में कोई युगांतरकारी परिवर्तन नहीं हुआ था। उसकी स्थिति अब भी दीन-हीन ही थी और दूसरी ओर समाज नवीनता के मोह में आधुनिकता की सीढ़ियाँ शनैः-शनैः चढ़ रहा था। इस काल में महिला लेखन तो हर भाषा में नाम मात्र का ही था। तमिल भाषा भी इसका अपवाद नहीं। उस समय ऐसी विचारोत्तेजक कहानियों का सृजन कर समाज को आईना दिखाना सचमुच साहस का काम था। 

नारी चरित्र का एक और पहलु पाठक के सामने आता है कहानी ‘नौकरी’ की सुगुणा में जो एक पढ़ी लिखी नौकरीपेशा आधुनिक नारी है। अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने वाली। परंपराओं से मुक्ति की अभिलाषी। नए आदर्शों की नई परिभाषाएँ गढ़ने वाली आत्मनिर्भर नारी। आधुनिकता की चकाचौंध उसे अंधा बना देती है। नवीनता के मोह को पारंपरिक दायित्व बंधन लगने लगते हैं। आश्चर्य तब होता है जब यह सब जानकर भी उसका पति उसी का ही समर्थन कर अपनी माँ को घर की नौकरानी बना देता है। विडम्बना . . . सुगुणा की “नौकरी” पर ममता बलि चढ़ जाती है। 

इसी बनते बिगड़ते सन्तुलन को बयाँ करती संग्रह की एक और कहानी है “आशा, आशा, आशा” जहाँ नायिका में इतना पुरज़ोर साहस है कि अपनी इच्छा के विरुद्ध किए गए विवाह-बंधन को मानने से अस्वीकार कर देती है। माँ बाप की आज्ञा का मान रखकर वह विवाह तो कर लेती है पर समर्पण नहीं करती। उस काल की नारी को इतना साहसी दिखाना सचमुच युगांतरकारी माना जा सकता है। 

लेखिका ने अपनी कहानियों द्वारा समाज को चेतावनी दी है कि जहाँ अशिक्षा परिवार और समाज के लिए अभिशाप है वहीं नारी अगर अपनी शिक्षा और स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर आधुनिक कहलाने की होड़ में संस्कारों की बलि चढ़ा देगी तो परिवार और जीवन का सत्यानाश होने में देर नहीं लगेगी। हर कहानी यही संदेश देती है कि हर परिस्थिति में विवेक आवश्यक है। चाहे नारी हो या पुरुष। संतुलन अगर डोल गया तो जीवन बर्बाद हो सकता है। 

लेखिका कहीं भी अपने चरित्रों को अनावश्यक ऊहापोह में उलझाती नहीं है। घटनाओं का सहज आरोह कथानक को गति देता है। चरित्र अपनी न्यूनताओं से विद्रोह नहीं करते है। उन्हीं में अपने जीवन की इतिश्री मानते चलते हैं। घटनाक्रम उनमें कोई चमत्कारिक परिवर्तन नहीं लाता। कहीं पर कुछ अप्रत्याशित होने की सम्भावना नहीं दिखाई देती। आम जीवन के इर्द-गिर्द घूमते कथानक आम बोलचाल की भाषा में संवाद प्रभाव को सघनता देते है। जैसे जीवन अपनी गति से आगे बढ़ता है वैसे ही हर कहानी भी अपनी गति से चलती है। कहीं कोई अप्रत्याशित मोड़ नहीं, कोई चमत्कार नहीं। और लेखिका की यही स्वाभाविकता पाठक को बरबस बाँधे रखती है। भाषा के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि लेखिका शब्द शिल्पी है। एक-एक शब्द तौल कर लिखती है। शब्दों की हथौड़ी और छैनी हाथ में लेकर सीधे हृदय को भेद देती है। कथ्य में गंभीरता हो तो शब्द उसका अनुसरण करते है। प्रायः बात को प्रभावी बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य लगता है। लेकिन कथ्य ही गंभीर हो तो अलंकार बोझ बन जाते हैं। और यही देखने को मिलता है इस संग्रह में। 

अतिशयोक्ति नहीं होगी कहना कि कहानी के पात्र मानवीय संवेदनाओं को पूरी सत्यता के साथ उजागर करते हैं चाहे फिर वह पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभाने वाली “गिलहरियों” (कहानी गिलहरियाँ) के प्रति अमानवीय व्यवहार करने की प्रवृति के प्रति क्षोभ हो या सनातन संस्कृति के उद्घोषक संत शंकराचार्य के प्रति प्रवासी रह चुके डॉ. ईश्वर का आदर-भाव हो। कहानियों को पढ़कर कहा जा सकता है कि अगर तमिल संस्कृति को जानने की ललक हो तो यह संग्रह उत्तम विकल्प होगा क्योंकि हर भाषा अपनी पूरी संस्कृति, बनाव सिंगार, आचार-विचार, साज-सज्जा, रहन सहन इत्यादि सभी का मिश्रित रूप होती है। दक्षिण भारत में जमुना जी लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार और अनुवादक है। यहाँ एक त्रुटि की ओर इंगित करना भी आवश्यक बन जाता है कि अनूदित कहानी संग्रह में वाक्य विन्यास कहीं-कहीं गड़बड़ा सा गया है जो पढ़ने में अटपटा लगता है। भाषा की प्रांजलता और बोध गम्यता भी इसी दोष के कारण बाधित हुई है। अगर मूल भाषा की शैली को बरक़रार रखने के लिए अनुवादक ने सायास यह ख़तरा उठाया है तो यह दोष भी स्वागत योग्य है। कथ्य की परिपक्वता को ध्यान में रखते हुए पाठक अगर इस न्यूनता को सह्रदयता से उपेक्षित कर दें तो साहित्य प्रेमियों के लिए यह संग्रह निःसंदेह संग्रहणीय है। 

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