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धर्मो रक्षति रक्षितः 

 वह क़िस्मत का मारा था। मार पर मार . . . न हाथ में कोई काम न कोई आय। जैसे-तैसे जीवन यापन हो रहा था। अब तो मित्रों ने उधार देना भी बंद कर दिया था। 

और अब बचे भी कितने थे . . . मित्र। हालत पतली होते ही पतली गली ढूँढ़ कर निकल गए थे। 

उसने सोचा बड़े बाज़ार के पंडित जी के पास जाऊँ। बड़े ज्योतिषी हैं वे। इन बातों पर विश्वास तो नहीं था, पर समस्या जितनी गंभीर होती है विवेक उसी अनुपात में डूब जाता है। 

लोग तो कहते है कि कई धंधे हैं उनके। नामी और बेनामी भी। पर लोगों का क्या है, लोग तो कहते ही रहते हैं। 

उनका एक मंज़िला मकान हर साल अपनी मंज़िलें बढ़ा रहा है। अब तो संख्या तीन तक पहुँच चुकी है। दूर-दूर से ‘भाग्य-पीड़ित’ आते हैं और समाधान पाते हैं। घर के सामने खड़ी गाड़ियों की क़तारें उनके धंधों की निर्दोषता को प्रमाणित करती है। 

उसने भी रजिस्टर में जन्म तिथि लिखवाई। दक्षिणा भरी और क़तार में बैठ गया। 

सुबह से शाम हो गई पंडित जी के दर्शनों की प्रतीक्षा में। 

अंदर जन्म पत्री की शल्य क्रिया हुई। समीकरण बिठाए गए। 

“घर में पूजा-पाठ, धूप-दीप, दान-दक्षिणा होती है?” उन्होंने तनिक झुक कर पूछा। 

“हाँ, काफ़ी धार्मिक वंश है। पुरखों की अमानत राम लला दरबार की काँसे और पीतल की मूर्तियाँ हैं। तीन पीढ़ियों से पूजी जा रहीं हैं। अंतिम समय माँ मेरे हवाले कर चल बसी। छोटी ही हैं पर हैं लगभग सौ साल पुरानी या उससे भी अधिक,” पंडित जी की अंतर्यामिता पर उसका विश्वास गहराता चला गया। 

“अनाचार! यही अपचार तुम्हारी क़िस्मत पर भारी पड़ रहा है। उन्हें पूजा गृह से तत्क्षण निकाल देना होगा।” 

“पर पंडित जी . . . फिर मेरा धर्म . . . उसका क्या?” 

“धर्म का मूर्तियों से क्या सम्बन्ध? यही धर्म है। किसी मंदिर में दे दो . . . नहीं . . . मंदिर में क्यों? हमें ही दान कर दो। हम हैं फिर किस लिए? तुम्हारा दुर्भाग्य हम हर लेंगे।” 

पंडित जी की दरियादिली से वह गद्‌गद्‌ हो गया। 

अगले दिन उसने मूर्तियों को घर से निकाल कर धर्म की रक्षा कर ली। 

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