प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ: एक अंतर्यात्रा
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. पद्मावती15 Oct 2024 (अंक: 263, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
समीक्षित पुस्तक: प्रमोद भार्गव की चुनिंदा कहानियाँ
लेखक: प्रमोद भार्गव
प्रकाशन वर्ष: 2024
प्रकाशक: प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, गाजियाबाद, भारत।
मूल्य: ₹535.00
पृष्ठ संख्या: 294
ISBN: 978-8197051159
हिंदी साहित्य जगत में प्रमोद भार्गव एक ऐसा नाम है जिनकी साहित्यिक रचनात्मकता उनके गहन अध्ययन और व्यवस्थित पारम्परिक शास्त्र चिंतन का परिणाम है। ये एक प्रतिष्ठित पत्रकार हैं। सनातन ज्ञान परंपरा के संवाहक हमारे पौराणिक ग्रंथ पर आधारित इनका सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘दशावतार’ काफ़ी चर्चा में रहा था। मानवीय जीवन की व्यथा को बोधगम्य भाषा में व्यक्त करना इनकी साहित्य साधना की उपलब्धि मानी जा सकती है। इनका कथा-साहित्य समाज, संस्कृति, परम्परा के अन्योन्याश्रित सम्बन्धों को वृहत् फलक पर चित्रित करता है। प्रस्तुत संग्रह में बीस कहानियाँ है जिसका फलक लगभग एक-सा ही लगता है—नारी अंतर्मन की गुत्थियों को बहिर्गत करता हुआ मनोवैज्ञानिक धरातल। ये कहानियाँ पाठक की अंतश्चेतना से तादाम्य उपस्थित करने में इस लिए भी सक्षम है क्योंकि इन कहानियों का कथ्य और संघटनाएँ हमारे आस-पास के परिवेश से ही बुने गए है और भाषा-सहज सरल व संप्रेषणीय है।
सच है कि व्यक्ति समाज का अंग है और समाज से पृथक उसकी कोई सत्ता नहीं होती। व्यावहारिक और भावनात्मक दोनों धरातलों पर वह परिवेश से जुड़ा हुआ है। दैनंदिन जीवन में होने वाली हर छोटी से छोटी संघटना तटस्थ रूप से उसके मनःपटल पर अंकित अवश्य हो जाती है और अगर वह हृदय चित्रकार है तो उसका रचनात्मक कौशल इन भावोद्रेकों को समय मिलते ही यदा-कदा अपने चित्रों में बहिर्गत करने लगता है और अगर वह कहानीकार है उसकी वैचारिकता उन संघटनाओं के भँवर से अपनी कहानी के लिए कथ्य बुनती है और फिर कल्पना की आड़ी तिरछी रेखाएँ उस कथ्य को गति प्रदान करती हैं। तो माना जा सकता है कि कहानी में यथार्थ और कल्पना का चोली दामन का सम्बन्ध होता है लेकिन प्रमोद भार्गव की कहानियाँ एक और अनोखे आयाम को भी साथ लेकर चलती हैं और वह है विज्ञान की तथ्यपरक विश्लेषणात्मक दृष्टि जो समकालीन कहानिकारों में कमोवेश बहुत कम देखने को मिलती है। साहित्यकार अपने समय का साक्षी होता है। वह अपने समय के साथ चलता है और समय . . . समय परिवर्तनशील होता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। फिर लेखक समय के परिवर्तनों को अनदेखा भला कैसे कर सकता है? जो लेखक समय से पिछड़ जाए, उसका साहित्य ठहरे हुए पानी में जमी काई के समान सड़ जाता है, विलुप्त हो जाता है। तो मानना पड़ेगा कि काल-बोध से सम्पन्न युगानुरूप साहित्य सृजन लेखनी को जीवंत ही नहीं कालजयी भी बनाए रखता है, तभी रचना का प्रभाव चिरकालिक और शाश्वत बन जाता है इसमें दो राय नहीं।
संग्रह के आरंभ में ही लेखक ने इस कथा संग्रह को उन स्त्रियों को समर्पित कर दिया है जिन्होंने वर्जनाओं को तोड़ने का साहस दिखाया है अर्थात् पुस्तक को हाथ में लेते ही पाठक समझ जाता है कि ये कहानियाँ नारी संघर्ष नहीं बल्कि समयानुरूप उसकी प्रगतिशील सोच की पैरवी करती चलेंगी और पहली ही कहानी में उसके आसार दिखाई देने लगते हैं जब ‘कोख में अजन्मा शिशु’ कोख में ही आक्रांत होकर अपने जन्म पर प्रश्न चिह्न उठा देता है क्योंकि वह ऐसे समाज में जन्म ही नहीं लेना चाहता जहाँ पैंसठ वर्ष की वृद्धा के साथ बलात्कार हो रहा है। विचारोत्तेजक कहानी से संग्रह की शुरूआत होती है और गहनता आती है उनकी अगली कहानी ‘पहचाने हुए अजनबी’ से जो ऐसे ही अनछुए मुद्दे को छूती लिखी गई है जहाँ पति विवाह के कुछ समय पश्चात कोढ़ रोगी हो जाता है अपनी पत्नी रचना से वह इस बात को छिपाकर शारीरिक दूरी बना लेता है। वह डरता है कि अगर उसने अपनी पत्नी से शारीरिक सम्बन्ध बना लिए तो आने वाली सन्तान भी रोगग्रस्त ही पैदा होगी। शारीरिक दूरी दाम्पत्य जीवन की मधुरता को लील देती है। परिस्थितियाँ तनाव पैदा करने लगती हैं और दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी बन जाते हैं व बात तलाक़ तक पहुँच जाती है। परिवार में रिश्ते आपसी विश्वास के सहारे ही टिकते हैं। रिश्तों में पारदर्शिता का होना अत्यंत आवश्यक भी होता है। उसका अभाव दरारें ला देता है। लेकिन फिर कहानी में अप्रत्याशित मोड़ आता है और रिश्ता टूटते–टूटते सँभल भी जाता है। दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित भावना से ईश्वर प्रदत्त उस दुर्भाग्य को स्वीकार कर लेते हैं और जीवन भर निःसंतान रहना सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं लेकिन एक रात ‘प्रवीण का चंचल मन और अनियंत्रित इंद्रियाँ’ अपना रंग दिखा देती हैं और प्रवीण रचना की इच्छा के विरुद्ध उसका हिंसक यौन उत्पीड़न कर डालता है। अब तक रचना जो अपने दाम्पत्य जीवन को स्वर्ग बनाने के लिए अपनी इच्छाओं को दबा कर मन मार कर जी रही होती है, वहीं प्रवीण के अनियंत्रित दुराचरण से वह तिलमिला जाती है और बना बनाया स्वर्ग एक बार फिर नरक में बदल जाता है और वह उस ‘संभोग को व्यक्तिगत स्वायत्ता का उल्लंघन’ कहती हुई उससे अलग हो जाती है। समय गुज़रता है और अजनबी एक बार फिर संयोग से एक दूसरे के सामने आते हैं और कहानी अंत की ओर अग्रसर होती हुई रचना को अपनी ग़लती का अहसास कराती है और वह ‘वैवाहिक बलात्कार’ के विरोधाभासी क़ानून की दुहाई देने वाले छद्म नारीवाद की धज्जियाँ उड़ाती हुई प्रवीण के पास लौट आती है। कहानी की ‘रचना’ अपने ‘स्व’ के साथ कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं दिखती लेकिन वहीं वह अपनी खींची रेखाओं को कभी नहीं लाँघती बशर्तें वह रेखाएँ उसके द्वारा और उसकी सम्मति से खींची गई हों। लेखक ने नारी को भले ही अपनी कहानियों में वर्जनाओं को तोड़ते दिखाया है लेकिन परिवार को तोड़ते कभी नहीं दिखाया। वह हमेशा हर कहानी में ऐसी स्थितियों का सृजन कर डालता है जहाँ मानसिक द्वंद्व, शंका-कुशंकाओं के बीच भी परिवार और सम्बन्ध बने रहते है, टूटते नहीं, बिगड़ते नहीं। लगता है लेखक हर स्थिति में रिश्तों को बचाए रखने में ही जीवन की सफलता मानता है जो श्लाघनीय है। कथ्य की प्रकृति, बुनावट, भाषा, शैली में सामंजस्य प्रशंसनीय है।
ऐसी ही अगली कहानी है ‘पूर्णबंदी’, ग्लैमर की दुनिया की सरताज, पारंपरिक मूल्यों और रूढ़ियों को धता बताकर विरोधाभासी मूल्यों को जीने का माद्दा रखने वाली छप्पन वर्षीय प्रौढ़ नायिका प्रज्ञा सुशांत के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहकर एक बार धोखा खाती अवश्य है लेकिन जीवन के रोमांच को खोना नहीं चाहती। महामारी की विभीषिका लॉकडॉउन में विधुर पड़ोसी मिश्रा जी से उसकी निकटताएँ बढ़ती हैं और दोनों अपने जीवन के ख़ालीपन को भरने के लिए एक हो जाने का फ़ैसला ले लेते हैं। लेखक के शब्दों में, “प्रेम पर किसी आयु विशेष का अधिकार नहीं, यह जीवन की अंतिम साँस तक जारी रहने वाली दिव्य भावना है”। इन्हीं शब्दों का प्रभाव ‘फ़ेसबुक’ कहानी की नायिका विधवा भावना की जीवन शैली में भी नज़र आता है जब वह अपनी बहू दिव्या से तकनीकी सीख कर फ़ेस बुक पर अपना खाता खोल अपने बचपन के खोए प्रेम को एक बार फिर पा लेती है।
संग्रह की एक और कहानी को पाठक को उद्विग्न कर जाती है वह है, “ल से लड़की’ जिसमें लेखक ने निर्भया हत्या काण्ड के परिदृश्य को शब्द दिए है। दिल्ली की बस में लड़की के साथ अमानवीय कुकृत्य और उसकी नृशंस हत्या। अभियुक्त नाबालिग़ होने के कारण सुधार घर पहुँच जाता है और वहाँ प्रायश्चित्त कर रहा होता है। लेखक यहाँ शील हरण जैसी पाशविक मनोवृत्ति में उन्मादी परिवेश को दोषी ठहराता है। उदाहरण के तौर पर शहरीकरण की अंधी होड़ में जंगलों का विनाश, उसमें बसे आदिवासियों का विस्थापन और काम की तलाश में उनका दिल्ली प्रवास। महानगर की चका-चौंध में होशो-हवास खो कर नशीली दवाओं का सेवन, बुरी संगत का प्रभाव और अंतरजाल पर पोर्न जैसी अश्लील दृश्यों का खुले आम प्रदर्शन और उसके कारण विस्थापितों का नैतिक पतन। लेकिन यहाँ यह कहना उचित होगा कि ये सभी विनाशकारी स्थितियाँ उत्प्रेरक अवश्य हो सकती है लेकिन बलात्कार जैसे पाशविक कुकृत्य में ये ऊपरी कारण किसी भी आरोपी को किसी तरह भी दोषमुक्त सिद्ध नहीं कर सकते। अस्तु!
कहा जा सकता है सामाजिक सरोकार और युग संपृक्क्तता पर लिखी इनकी कहानियाँ एक नवीन प्रतिमान ही नहीं गढ़तीं, बल्कि रचनात्मक सृजन यात्रा को नवीन आयामों में विश्लेषित करती हैं। ऐसी ही दो कहानियों को लिया जा सकता है, ‘परखनली का आदमी’ और ‘ये जो अदृश्य है’ जिसमें लेखक ने विज्ञान की व्याख्याओं द्वारा कई अनसुलझी समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया है। वैज्ञानिक तथ्यों का शास्त्र सम्मत तर्क देना लेखक की एकांतिक विशेषता मानी जा सकती है जहाँ पाठक को उनकी वैज्ञानिक प्रज्ञा और शास्त्रीय ग्रंथों पर उनकी गहन पैठ का परिचय प्राप्त होता है। लगता है हम कहानी नहीं कोई वैज्ञानिक शोध ग्रंथ पढ़ रहे हैं और जिसके सूत्र हमारी आध्यात्मिकता से जुड़े हुए हैं। पाठक अभिभूत होता जाता है। सांस्कृतिक उन्मेष और वैज्ञानिक प्रज्ञा की संतुलित भाव-व्यंजना ने कथ्य को नया क्षितिज दिया है।
कहा जा सकता है कि संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ नारी विषयक समस्याओं पर केंद्रित हैं। ये कहानियाँ मातृ सत्तात्मक समाज की कहानी कहती हैं। उजागर करती हैं सशक्तिकरण के उन बिंदुओं को जिनके सूत्र हमारे आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रंथों में बिखरे हुए हैं और तदनंतर पितृ-प्रधान समाज में जिन्हें सायास यह कहकर दबा दिया गया था कि, “बचपन में पिता, यौवन में पति और बुढ़ापे में पुत्र ही नारी की रक्षा करते हैं” और नारी . . . जीवन भर आश्रित है, आश्रित ही रहनी चाहिए। इसी में उसकी सुरक्षा है। पिछली शती कि अंतिम सदियों में नारी विषयक लेखन काफ़ी चर्चे में रहा जो नारी की स्वतंत्रता को उच्छृंखलता के कगार पर भी लेकर आ गया। कई अश्लील मुद्दों को साहित्य में समाहित कर लिया गया। कई ऐसी आत्मकथाएँ लिखी जाने लगीं। अनकहा कुछ न रहा। नैतिकता की नई परिभाषाएँ गढ़ी गईं। मानदंड बदले, मानक बदले। ऐसे लेखन को बोल्ड लेखन कहकर परिभाषित किया गया। लेकिन प्रमोद भार्गव की नायिकाएँ कहीं भी अपनी खींची परिधि को नहीं लाँघती। परंपरा और आधुनिकता का इनका समीकरण काफ़ी संतुलित और समीचीन लगता है। इन कथाओं में पारम्परिक चिंतन और आधुनिक प्रगतिशील दृष्टि का अद्भुत समाकलन मिलता है। कहानियों के कलात्मक उत्कर्ष के साथ-साथ उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और प्रयोगधर्मिता सराहनीय है।
कथ्य में भाषा का मानक रूप हो या प्रादेशिक बोलियाँ, आश्चर्यजनक रूप से उसको उसी रंग में सजीवता और प्रांजलता से पाठकों को परोसा गया है, जो उनकी भाषागत घनत्व व गवेषणात्मक शोधपरक दृष्टि के साथ-साथ लोक भाषाओं में इनकी पकड़ को दर्शाती है। आत्म द्वंद्व से उद्भूत सामाजिक सरोकार व प्रतिबद्धताओं का वह वास्ता शब्द संपन्न्ता और अर्थ गांभीर्य इतिहास में दर्ज हो चुकी भारतीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, कला का पुनर्सृजन भी लेखक का अभीष्ट रहा है।
अंततः कहा जा सकता है यह संग्रह साहित्य के प्रेमी के लिए संग्रहणीय है।
समीक्षक: डॉ. पद्मावती,
संपर्क: जी 2, कविका फ़्लैट्स, कामकोटि नगर, सेकण्ड क्रॉस स्ट्रीट,
नारायना पुरम, पल्लीकर्नाई, चेन्नई, तमिलनाडु 600100।
Phone: 9080232606
Email: Padma। pandyaram@gmail। com
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