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भूदान

“क्या मृत्योपरांत किए गए अनुष्ठान आत्मा को तृप्ति दे सकते है?” हाँ . . . नहीं? . . . आगे पढ़िए . . .
 
 
तेज़ बारिश और तूफ़ानी हवा। आज वातावरण क़हर ढा रहा था। बादल तो सुबह से छाए हुए थे लेकिन पिछले चार घंटे से लगातार गड़गड़ा रहे थे। घर मेहमानों से अटा पड़ा था और यह तूफ़ानी माहौल . . . काफ़ी परेशानी हो रही थी। 

“अनुष्ठान का अंतिम सोपान . . . दान! सुनिए जजमान . . . दान का महात्म्य,” पंडित जी ऊँचे स्वर में बोले। 

“एक जोड़ी चप्पल, छतरी, वस्त्र, रजत पात्र, सुवर्ण, इत्यादि वस्तुओं का दान मृत आत्मा की अगली यात्रा सुगम बनाते हैं। इनके अतिरिक्त वैतरणी पार कराने में गोदान की तो अपनी ही महिमा है। शास्त्रों में इसका स्पष्ट विधान मिलता है। इन दान कर्मों की अनिवार्यता भी दिखलाई गई है लेकिन आज के समय में यह सब आपकी श्रद्धा पर निर्भर है। इन द्वादश दिनों में जजमान ने जिस तत्परता से अनुष्ठान किया है, उनकी माँ की आत्मा अवश्य तृप्त हुई होगी . . . आप सब परिवार को उनका अखंड आशीर्वाद अवश्य प्राप्त होगा,” पंडित जी ने नाक पर झूलता अपना चश्मा उतारा और संक्षिप्त उद्बोधन समाप्त किया। 

अचानक आकाश में तेज़ बिजली कड़की। बादल गरजे . . . आज मौसम भी इस शोक में सम्मिलित हो रहा था। क्यों न होता . . . ? 

माँ को गुज़रे बारह दिन हो गए थे। आज तेरहवीं थी। कर्म संस्कार अंतिम चरण पर पहुँच गया था। शेखर अत्यंत श्रद्धा से सब क्रियाएँ संपन्न कर रहा था। हाथ और दिल खोल कर ख़र्च किए जा रहे थे। हाँ . . . परंपरा तो थी। अतिथियों की जमकर मेहमान-नवाज़ी की जा रही थी और वे मेज़बान की प्रशंसा करते न अघा रहे थे।

“पंडित जी आपसे एक और अनुरोध है। ज़रा आप इन सब के साथ-साथ ‘भूदान’ भी करा दीजिएगा,” अंदर से आवाज़ आई। पंडित जी ने सर उठाकर देखा। सामने गीली साड़ी का पल्लू ढाँपे शेखर की धर्मपत्नी कामिनीदेवी खड़ी थी। 

सहसा तेज़ हवा चली। बवंडर सा उठा। कोने में जलता दीपक भक्क से बुझ गया। घर के अंदर सब कुछ उथल-पुथल होने लगा। सामने नीचे फ़र्श पर मेहमानों के लिए बिछी दरियाँ, कम्बल, चद्दरें सब आँखों में धूल छोड़ती उड़ने लगी . . . और तो और खिड़कियाँ दरवाज़ों के पाए हवा के दबाव से बुरी तरह टकराने लगे। काँच के शीशे सूखे पत्तों की तरह फड़फड़ाने लगे। अंदर माँ के कमरे की हालत भी गड़बड़ा गई थी। हाँ . . . माँ का ही कमरा था वह। वह वहीं रहती थीं, जब तक थीं। कमरे की उत्तरी दिवाल पर जो केलेण्डर टँगा था वह तीन वर्ष पुरानी तारीख़ दिखा रहा था। तीन वर्ष . . . हाँ लम्बा समय था। किसी ने उसे उतारा ही नहीं था। वहीं टँगा मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था। मुक्ति! हाँ . . . उसे भी मुक्ति चाहिए थी शायद। मैला हो गया था पर फटा नहीं था अब तक . . . लेकिन अब . . . आज़ाद हो जाना चाहता था। और आज हवा पर सवार वह मंज़िल पा लेने की आशा में अपने ध्रुव से जुड़ा गोल-गोल चक्कर काटने लगा। उसकी रगड़ से अर्ध-चंद्राकार निशान बन रहे थे दीवार पर . . . कीच-कीच की अजीबोग़रीब आवाज़ के साथ। मिटने से पहले वह अपनी निशानी छोड़ देना चाहता था। और अंततः वह क्षण आ ही गया . . . अचानक बीच से लम्बाई में फटा और उसके दो टुकड़े अपने आधार से मुक्त खिड़की की सलाखों से लिपटते-चिपटते बाहर की ओर उड़ चले। पंख लग गए उन्हें। तेज़ उड़े . . . बहुत तेज़। बारिश और ऊपर से ठंडी हवा . . . आग और घृत का योग बना हुआ था। कामिनी भाग कर गई और आगे बढ़ कर उसने झट से सब खिड़कियाँ बंद कर दी। वेग कुछ कम हुआ . . . थोड़ी बहुत शान्ति आई। वरना तो ऐसा लग रहा था आज ये हवा अपने साथ सब कुछ उड़ा ले जाएगी। तेल लाकर उसने बुझा हुआ दीपक फिर से जला दिया। हल्की सी रोशनी फैल आई। 

कामिनी . . . शेखर की अर्धांगिनी . . . शास्त्रोक्त प्रकारेण उसके हर पाप-पुण्य की सह-भागीदार। 

“हाँ पंडित जी . . . पता नहीं यह विधान है कि नहीं लेकिन माँ की बहुत इच्छा थी। मैं उनकी हर इच्छा पूरी करना चाहता हूँ . . . माँ ने कितना दिया . . . यह घर भी उन्हीं की ही तो सौग़ात है। ‘अपने घर’ में प्राण त्यागने की उनकी अंतिम इच्छा पूरी न हो सकी। इसीलिए मैं चाहता हूँ कि इस अवसर पर भूदान की औपचारिकता भी निभा दी जाए,” शेखर ने आगे आकर अपनी पत्नी का समर्थन किया। 

अचानक बाहर तेज़ प्रकाश हुआ . . . आँखों को चुंधिया देने वाला . . . आसमान में तीर जैसी पतली सी किरण चमकी। रोशनी तेज़ी से नीचे की ओर आई और पलक झपकते ही धरती के गर्भ में समा गई। फिर ऐसी गर्जना हुई मानो कानों के पर्दे काँप उठे। रूह तक थरथरा गई। पास में ही कहीं बिजली गिरी थी। भू नभ एक साथ हिल गए। सन्नाटा छा गया। अब तो इस झटके से हवा भी सहम गई। बहना भूल चुपचाप थम कर विलुप्त हो गई। गहरी निस्तब्धता! बिजली गिरी कि बारिश तेज़ हो आई। 

पंडित जी को अपने कानों पर विश्वास न आया। ऐसा पुत्र रत्न वे अपने पंडिताई जीवन में पहली बार देख रहे थे। आजकल तो ऐसे कर्मों पर कोई श्रद्धा भी न दिखाता था। ऐसा तो अमूमन कोई सोचता भी न था और करने वाले तो न के बराबर। दिया ढूँढ़ कर देखो तो भी न मिले। इतना समर्पण, इतनी निष्ठा? वे कुछ क्षण टकटकी बाँधे उन दोनों को देखते रहे। 

“धन्य हो वत्स! तुम जैसे पुत्र की माँ सचमुच कितनी भाग्यवान है . . . हर माँ को तुम्हारे जैसा पुत्र रत्न प्राप्त हो। बहुत ही सुंदर निर्णय। अवश्य करवाएँगे। यह तो अभूतपूर्व दान होगा। सत्य मानिए अब तो माताजी को स्वर्ग लोक में ‘अखंड वास’ का सुख भोग भी प्राप्त होगा!” पंडित जी की आँखों में चमक आ गई।

मीरा सब सुन रही थी वहीं बैठी। आँखें भीग आईं उसकी। पहले ही दिन से उसे शेखर के रंग-ढंग में काफ़ी परिवर्तन नज़र आ रहा था। वह अपनी नज़र उस पर से हटा न पा रही थी। संस्कार की क्रियाओं में उसका जोश उत्साह देख कर आश्चर्य हो रहा था। पंडित जी के मुँह से बात निकलने की देर, हर चीज़ समय पर हाज़िर। कितनी पवित्रता, कितनी श्रद्धा उस चेहरे पर . . . मन क्षुब्ध हो उठा। तन बदन में आग लग गई। पर चुप रही। मुँह सिल लिया। आने से पहले ही वह अपना इरादा पक्का कर आई थी कि यहाँ कोई फ़साद नहीं करेगी। तेरह दिन अपना मुँह बंद रखेगी और औपचारिकता निभते ही चल देगी। मन तो बिलकुल न था लेकिन आना पड़ा। अपने लिए नहीं, माँ के लिए।

 उसने एक बार माँ के कमरे में नज़र दौड़ाई। तीन वर्ष हुए उसे यहाँ आए। माँ के इस घर से जाने के बाद उसने यहाँ पाँव न रखा था। चारों ओर गहरी दृष्टि से उसने देखा। कुछ अधिक तो नहीं पर हाँ थोड़ा–बहुत बदलाव अवश्य आया था। माँ की पलंग सरकाकर वहाँ लंबी सी मेज़ डाल दी गई थी। शायद इन तेरह दिनों के कार्यक्रमों में जगह बनाने के उद्देश्य से। कमरे की सजावट बड़ी लुभावनी लग रही थी। बड़ा ही मनमोहक ताम-झाम था वहाँ। बड़ी सी मेज़ . . . उस पर बीचों-बीच माँ की फ़्रेम जड़ित तस्वीर, तस्वीर पर चंदन की माला, बिखरी हुई गुलाब की पंखुड़ियाँ जो अब पूरे कमरे में फैल चुकी थीं . . .। मेज़ के चारों और फूलों का बंदनवार . . . तस्वीर के पास ही एक स्टूल पर रखा दीपक . . . धूप बत्तियाँ . . . भीनी-भीनी सुगंध . . . क़रीने से रखे रजत कलश . . . उनमें भरा गंगा जल . . . नूतन वस्त्रों के ढेर . . . दान की सामग्री। अद्भुत! उसे लगा . . . क्या कमी है यहाँ? सब कुछ तो है। जाने–अनजाने किए समस्त पापों के प्रक्षालन हेतु सब व्यवस्था तो यहीं मौजूद है। मन बुद्धि के अनायास दोष-मुक्त हो जाने की पूरी सम्भावना नज़र आ रही थी . . . और जब पाप ही भस्म हो जाए तो फिर पाप-बोध का अस्तित्व ही कहाँ? है क्या? 

मीरा की स्मृतियों में बीता वक़्त एक बार फिर सजीव हो उठा। बीती हुई एक एक बात तीर सी भेदती आँखों के सामने आ गई। कैसे भूल सकती थी? 

तीन साल हुए . . . हाँ . . . लगभग तीन साल पहले की ही तो बात है . . . उस दिन माँ का फोन आया था। फोन पर माँ रो रही थी। 

“मीरा . . . मीरा मैं गुरु जी के आश्रम में जा रही हूँ। अब वही रहूँगी स्थायी रूप से।” 

“क्या . . . ऽ . . . ऽ . . . ऽ पर क्यों? . . . क्या हुआ माँ?” अनिष्ट की आशंका। माँ का निर्णय उसे डरा गया। वह माँ को अच्छी तरह से जानती थी। माँ कम बोलती थी . . . हमेशा चुप ही रहती थी पर अगर कुछ कहती थी तो कर के दिखाती थी। 

“भैया-भाभी ने फिर क्या कह दिया तुम्हें माँ? मेरे पास यहाँ आ जाओ . . . मैं अभी हूँ न। आप दो बच्चों की माँ हो। आपकी बेटी अभी ज़िन्दा है।” मीरा ने माँ को मनाने की कोशिश की थी लेकिन जानती थी माँ न मानेगी . . . और हुआ भी वही था . . . माँ . . . न मानी थी। 

 “न . . . बेटा . . . रोज़-रोज़ अब यह ताने मैं सुन नहीं सकती। तुम्हारे भैय्या-भाभी को मेरा यहाँ रहना बिल्कुल नहीं सुहा रहा। रोज़-रोज़ का अपमान . . . झगड़ा न . . . न . . . वह चाहता है कि पूरी पेंशन उसे दे दूँ। यह कैसे करूँ . . . तू बता? तुम्हारे पिताजी के बाद मेरा यही सहारा है न? सब उसे देकर उसके आगे हर छोटी ज़रूरत पर हाथ फैलाऊँ क्या? मेरा पैसा, मेरी इच्छा . . . है कि नहीं? मैं कुछ भी करूँ . . . वो कौन होता है कहने वाला? कितना दान पुण्य करते थे तुम्हारे बाबूजी? हम दोनों का एक ही तो सपना था . . . गुरु जी के आश्रम में सौ गज़ ही सही, ‘भूदान’ करने का। उनके जाने के बाद मेरा दायित्व बनता है कि नहीं? एक दिन ग़लती से शेखर के सामने भूदान के बारे में क्या कहा, तो चौबीस घंटों के अंदर यह घर अपने नाम करवा लिया। कितना मजबूर किया था उस दिन,” माँ रोते हुए बड़बड़ाए जा रही थी। 

“माँ . . . जाने भी दो न। करो न करो . . . घर तो उसे जाएगा ही।”

“क्यों? तुम्हारे बाबूजी की गाढ़ी कमाई से बना घर है यह। इतनी अनपढ़ भी मैं नहीं। जाता मेरे बाद। मैं ने क्या मना किया था? पर जब तक हूँ, तब तक तो मेरा रहता? तुम्हारा हिस्सा भी खा गया फिर भी मन न भरा। अब मेरी पेंशन पर आस लगाए बैठा है। क्या कम कमाता है? दान करना तो पाप है यहाँ। और मैं दे भी कितना रही हूँ? वृद्धाश्रम को ही तो देती हूँ ताकि किसी अनाथ का सहारा ही हो जाए . . . उनकी भी गुज़र-बसर हो जाए . . . पेंशन से ही दे रही हूँ न . . . उसके पैसे तो नहीं ख़र्च रही? आख़िर मेरी भी अपनी ज़िन्दगी है। हर वक़्त हर विषय में पाबंदी . . . न . . .  न। बात कुछ और ही है मीरा मैं जानती हूँ। वह बस मुझे यहाँ से निकालना चाहता है।” 

“माँ रुको . . . रुको . . . क्या उसने तुम्हें कहीं चले जाने को कहा है?” मीरा की रुलाई फूट पड़ी थी। 

“क्या अब वो दिन देखना भी बाक़ी है? नहीं। मैं अपनी इच्छा से ही जा रही हूँ। रहे वो अपनी मर्ज़ी में। मुझे नहीं रखना चाहता . . . ठीक है . . . ऐसा ही करें . . . वहीं जा कर रहूँगी। अपनी पेंशन से मैं आराम से खा सकती हूँ . . . चार को खिला भी सकती हूँ। कब तक उसके हिसाब से जीऊँगी? दान पुण्य अब न करूँगी तो कब? और न होगा मुझसे . . .। जैसा क़िस्मत में होगा देखा जाएगा . . . रूखी-सूखी कुछ भी खा लूँगी लेकिन अब यह अपमान न सहा जाएगा अब तो वहीं रहूँगी, वहीं मरूँगी। जितने भी दिन जीऊँगी, इज़्ज़त से जीऊँगी।” माँ रो भी रही थी और बहुत ग़ुस्से में भी थी। मानने को बिलकुल न तैयार। 

उसी शाम माँ वृद्धाश्रम चली गई थी। बेटी दामाद के साथ रहना उन्होंने कभी पसंद न किया था। उनके अपने उसूल थे। अपनी मान्यता थी। अपने हिसाब से जीना चाहती थी। वहीं चली गई थी। मान जो मिलता था आश्रम में माँ को। बहुत इज़्ज़त थी वहाँ। माँ बाबूजी की असीम श्रद्धा थी गुरु जी पर जिनका वह आश्रम था। और माँ दान भी तो बहुत देती थी। जैसी भी थी . . . जिस हाल में थी . . . ख़ुश थी। जब तक जीवित थी, अपनी स्वायत्तता में रही थी माँ। आराम से जी थी बाक़ी की ज़िन्दगी उसने। अंतिम समय में शान्ति से प्राण छोड़े थे माँ ने। मीरा पास थी माँ के अंतिम समय में। मुँह में गंगा जल भी उसी ने दिया था। 

अंतिम चरण . . . पिण्ड दान की प्रक्रिया चल रही थी। 
“परिवार के सभी सदस्य आकर अन्न पिण्ड को नमस्कार करें। यह अन्न पिण्ड माताजी की क्षुधा को शांत कर उन्हें असीम तृप्ति देगा। बारह दिनों तक जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी पर ही विराजमान होकर सभी कर्म स्वीकारता है। अब तक माताजी यहीं पर आप लोगों के आस-पास ही थीं। आप भले न देख पाए हों पर वे आपको भली-भाँति देख रही थीं। लेकिन अब वे देव योनि ग्रहण कर स्वर्ग लोक गमन करेगी और वहीं से अत्यंत प्रसन्न होकर आप सभी की सब मनोकामनाएँ पूर्ण करेगी।” 

पंडित जी की आवाज़ से मीरा की तंद्रा टूटी। मुँह आँसुओं से भीगा हुआ था। आँखों को कुछ स्पष्ट दिखाई न दे रहा था। उसने आँखें मलकर देखा। अन्न पिण्ड पर लगे काले तिल उसे अचानक बड़े डरावने लगने लगे। सब कुछ प्रश्नसूचक और अविश्वसनीय . . .

बदन में ठंडी सी लहर रेंग आई। पिण्ड नमस्कार करने को कहा गया था। वह इस घर की बेटी थी। हर कर्म की, हर संस्कार की सह-कर्ता व सह-अधिकारी। इसीलिए नमस्कार करना आवश्यक था। सोचकर वह उठी तो, पर न जाने क्यों वहीं धरी की धरी रह गई। पाँवों ने जवाब दे दिया। आगे अँधेरा सा छाने लगा। माँ आँखों के सामने आ गई। यह सब इतनी जल्दी कैसे हो गया? क्या माँ सचमुच चली गई? आश्चर्य! अब इतने दिनों बाद भी उसका मन मानने को तैयार न हो रहा था। सब उसके सामने ही तो हुआ था। वही तो थी वहाँ। तो आज फिर यह भ्रम क्यों? शनैः शनैः अंतिम चरण तक पहुँचना अत्यंत दुखदायी लग रहा था। इस संस्कार के बाद, पंडित जी के अनुसार माँ का भूलोक से सब नाता टूट जाएगा। अब वह कभी उन्हें न देख सकेगी। कभी नहीं। नहीं . . . नहीं . . .। काश . . . वह माँ के साथ कुछ समय गुज़ार पाती . . . काश . . . माँ उसके साथ रहने को राज़ी हो जाती . . . काश! फूट पड़ी वह। माँ . . . माँ . . . माँ . . .! अब तक रोके रखा था। अब और रोक न सकी अपने आपको। मन यह पिण्ड दान स्वीकार न कर पाया, आँखें देख न पाईं यह दृश्य!

बाहर आकाश में भी अजब सी हलचल मची हुई थी। प्रकृति भी असहज हो उठी थी। अकारण!। बारिश की बौछारें यहाँ से वहाँ उड़ रही थी। शाम भी काली रात बन गई थी। हवा और पानी का डरावना शोर बड़ा ही विचित्र माहौल बना रहा था। कभी न देखी न सुनी, उस दिन ऐसी बरसात हो रही थी। नदी नाले भर गए। आँगन में पूरा पानी उतर आया था। 

अंदर रसोई में विशाल अन्न कुण्ड बनाया गया। ब्राह्मणों के भोग के लिए विशेष। व्यंजन पकाए जा रहे थे। शेखर दिल खोल कर वस्त्र, पात्र वग़ैरह दान कर रहा था। दान दक्षिणा से पंडितों की झोलियाँ भरी जा रहीं थीं। पंडित तृप्त हुए जा रहे थे . . .। भर-भर आशीर्वाद दे रहे थे . . .।

अचानक फिर बिजली कड़की . . . बादल गरजे। 

“जजमान, अनुष्ठान अब अपने अंतिम चरण पर पहुँच चुका है। भोजन से पूर्व आपकी और माताजी की इच्छानुसार ‘भूदान यज्ञ’ आरंभ होता है। आप दोनों दम्पत्ति माताजी की तस्वीर और फूल मालाएँ लेकर बाहर बरामदे में चलिए। आगे का कार्यक्रम वहाँ सम्पन्न होगा,” पंडित जी गंगा जल का पात्र हाथ में लिए अपनी धोती सँभालते हुए उठ खड़े हुए। मुश्किल हुई उठने में। देर से ज़मीन पर बैठे थे। बुज़ुर्ग भी थे और बेचारे काफ़ी थक गए थे। आँखें मलते एक बड़ी सी जम्हाई ली . . . आगे टेढ़े झुककर पीठ सीधी की और सीधा बरामदे में प्रस्थान। आज आख़िरी दिन का अनुष्ठान लंबा चला था। थकान सबके चेहरों पर साफ़ नज़र आ रही थी। शेखर धीमे से माँ कमरे में गया और मेज़ पर से माँ की तस्वीर सावधानी से उठा ली। कामिनी देवी फूल मालाओं को लेकर बाहर आँगन में पति के पीछे-पीछे हो चली। 

बाहर बरामदे में भूदान हेतु विशेष हवन कुण्ड बनाया गया। अग्नि प्रज्वलित की गई। और पंडित गण हवन के चारों ओर घेरे में बैठ गए।

“देखिए जजमान . . . आपको माताजी की तस्वीर के साथ हवन कुण्ड की तीन बार परिक्रमा करनी है तभी पंच भूतों में पृथ्वी का दान अर्थात्‌ ‘भूदान’ का फल माताजी को प्राप्त होगा। हम मंत्रोचारण करेंगे और आप परिक्रमा करते गंगा जल से धरती का संप्रोक्षण करेंगे। यह अनुष्ठान आप पुत्र होने के नाते अकेले ही करेंगे। ध्यान रहे फ़र्श भीगा है इसीलिए सावधानी से चलिए,” पंडित जी ने शेखर को आगे की प्रक्रिया समझाई।

एकादश पंडितों के मंगलाचरण से ‘भूदान यज्ञ’ आरंभ हुआ। मंत्र घोष से घर की दीवारें गूँज उठी। शेखर माँ की तस्वीर हाथ में लिए गंगा जल नीचे छिड़कता धीरे-धीरे सँभलते पाँव रख रहा था। कपड़े गीले होने के कारण बदन से चिपक गए थे और चलने में परेशानी दे रहे थे। बड़ी मुश्किल से उसने दो परिक्रमाएँ पूर्ण कीं। अंतिम सोपान यानी आख़िरी परिक्रमा। ‘भूदान यज्ञ’ की आहुति के समर्पण की परिक्रमा . . .। इसके समाप्त होते ही पूर्णाहुति और उस के बाद ‘फल प्राप्ति’। पंडितों ने ऊँचे स्वर में स्वस्तिवाचन आरंभ कर दिया। ‘हवा’ तेज़ थी और बरामदे में शोर भी अधिक था। हवन कुण्ड में ‘अग्नि’ की लपटें धू-धू कर ऊपर उठ रहीं थीं। अग्नि स्फुलिंग जुगनुओं की तरह उड़-उड़ कर चारों ओर बिखर रहे थे। आज अग्नि में भी अनोखा तेज दिख रहा था। हवा, अग्नि और बारिश तो जैसे एक दूसरे से होड़ कर रहे हों। और आसमान . . . वह तो काला डरावना अवतार ले चुका था। आँगन में पेड़ ऐसे झूल रहे थे जैसे अभी अपनी ज़मीन से उखड़ जाएँगे। चाहरदीवारी पर गेट के पाए खुल चुके थे और सब ओर भरा पानी तीव्र गति से सड़क की ओर बह रहा था। सड़क भी पानी से भर गई थी। निरंतर बारिश के कारण हर पल बहाव तेज़ हो रहा था और सड़क का पानी ढलान की ओर बहे जा रहा था। 

तभी ‘आकाश’ में ज़ोर की बिजली चमकी। तेज़ रोशनी से शेखर की आँखें बंद हो गई। अभी परिक्रमा पूरी होने ही वाली थी कि अचानक आँख बंद होने से उसका ध्यान अटका और संतुलन बिगड़ गया। बिना देखे उसने पानी पर पाँव रखा और बस फिर क्या था . . . सर्र से पाँव फिसला और वह चिकने फ़र्श पर लुढ़कता हुआ दूर जा गिरा। सिर फ़र्श से टकराया और माँ की तस्वीर हाथ से छूटकर पलटियाँ खाती हुई दूर जा औंधी गिर गई। तस्वीर ने अपने कोनों पर इतनी ज़ोर से पलटी मारी थी कि फ़्रेम चारों ओर से उखड़ गया। अंदर का शीशा चूर-चूर हो गया और टुकड़े बरामदे में मोतियों की तरह बिखर गए। फ़्रेम के खुल जाने से तस्वीर का काग़ज़ फटकर अलग हो गया। कुछ क्षण वह काग़ज़ वही औंधा पड़ा रहा लेकिन अगले ही पल तेज़ बहती हवा से फड़फड़ाता हुआ उड़ा और जा आँगन के पानी में गिरा। शेखर की चीख निकल गई। उसे कोहनी और सर पर गंभीर चोट लगी थी। वह उठ कर उसे पकड़ भी न सका। इससे पहले कोई कुछ करता माँ की तस्वीर का वह काग़ज़ पानी में डोलता गेट पार कर गया और देखते-देखते सब की आँखों के सामने सड़क के तेज़ बहाव में बह कर अदृश्य हो गया। 

‘भूदान’ की पूर्णाहुति हो गई। 

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टिप्पणियाँ

Dr.Sushila Navik 2022/09/10 11:00 AM

बहुत ही मार्मिक व उत्कृष्ट लेख मैम वास्तविकता से परिपूर्ण

डॉ सुरभि दत्त 2022/09/08 09:38 AM

लेखिका पद्मावती जी की इस कहानी में श्राद्ध कर्म के दौरान प्रकृति के रौद्र रूप के चित्रण के माध्यम से संदेश दिया है कि स्वांत सुखाय के लिए माँ पिता की आत्मा को दुखी करने वाला दिवंगत को संतुष्ट करने के लिये जो भी कर्मकांड करता है वे निष्फल जाते हैं । माँ पिता और अन्य वृद्ध जन की श्रद्धा पूर्वक सेवा ही सच्चा श्राद्ध है। पद्मावती जी को समाज को झकझोरने वाले विषय पर कलम उठाने के लिये बहुत बहुत बधाई

डाॅ जमुना कृष्णराज 2022/08/30 02:42 PM

बुजुर्ग जब तक जीवित हों उनका ससम्मान देखभाल करना संतानों का फर्ज़ है। इसके विपरीत चलती संतानों का अपने बुजुर्गों के मरणोपरांत किए दान प्रकृति के पंचभूत तत्वों को भी सम्मत नहीं । इसका बखूबी चित्रण किया है लेखिका ने। पद्मावती जी को इस सत्य को स्थापित करने के लिए मेरी हार्दिक बधाई!

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