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नवजीवन मेल 

विडम्बना है कि हम अपने जीवन में कुछ दुराग्रह पाल लेते हैं और उनसे उबर नहीं पाते पर कभी-कभी कुछ प्रकरण आँख खोल देते हैं और हम अपनी ही नज़र में शर्मिंदा हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ था शेखर के साथ जब वह . . . आगे पढ़िए . . .

‘उफ्फ, प्लैटफ़ॉर्म पर भीड़ और गर्मी। पता नहीं क्या सोच कर मैंने ट्रेन से जाने का निर्णय लिया था? कुछ रुपये बचाने के चक्कर में अच्छा फँस गया। मूर्खता की भी हद होती है’। 

शेखर को अपने पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था। सूरज सिर पर तांडव कर रहा था। ग्यारह बज रहे थे। खीज में बड़बड़ाता वह गाड़ी आने के क्षण गिन रहा था। प्लेटफोर्म भरा हुआ था और एसी के डिब्बे भी कुछ आगे ही रुकते हैं इसीलिए वह दूर अलग हटकर खड़ा था। पर अब मुश्किल लग रहा था। धूप बढ़ गई थी। आधे घंटे से वह उसी जगह पर था। पाँव दुख रहे थे। जब आरंभ ही देरी से हो रहा था तो अंत ईश्वर जाने। उसका दिल बैठा जा रहा था। 

दरअसल इस गाड़ी में टिकट भी बड़े हाथ-पाँव मार कर मिला था। वो भी तत्काल कोटा में। सीधी लाइन न थी। अगर हवाई मार्ग से गए तो मुम्बई उतरकर फिर वहाँ से ट्रेन लेनी ही पड़ती थी और आगे रोड से जाना था पड़ता था ‘जलगांव’ . . . गुजरात और मध्य प्रदेश का सीमा-प्रांत। 

और आजकल वायुयान से सफ़र काफ़ी महँगा हो गया था। टिकट चार गुणे हो चुके थे। 

वैसे कोरोना ने भी कहाँ कम क़हर ढ़ाया था? अच्छे-अच्छों की कमर तोड़ दी थी। उसकी हालत भी पतली हो चुकी थी। इसीलिए गुणा हिसाब कर टू टायर वातानुकूलित एसी का टिकट कटवा लिया और आया था पकड़ने ‘नवजीवन एक्सप्रेस’। 

पर आज इस तरह गर्मी में गाड़ी का इंतज़ार करने में बड़ी बेचैनी हो रही थी। ऐसा नहीं था कि कभी रेलगाड़ी से सफ़र ही न किया हो। कई बार किया था। पर अब वह आदत छूट गई थी और अब समय भी कहाँ था? मशीनी युग तेज़ गति का युग जो ठहरा। न फ़ुरसत न ऊर्जा? 

उसने वहाँ खड़े होने के बदले सामने जाकर कॉफ़ी पीने का निर्णय लिया। छोटा सा वातानुकूलित रेस्त्रां। राहत महसूस हुई। कॉफ़ी मँगाई और कोने की सीट पर बैठ गया। गरम कॉफ़ी हलक़ में जाते ही दिमाग़ भी काम करने लगा वरना अब तक तो गर्मी और भूख से कुछ सूझ ही न रहा था। सुबह जल्दी निकल गया था। स्टेशन दूर भी था और ट्रैफ़िक भी ज़्यादा। सो कुछ खाया न जा सका था। सोचा हल्का-सा कुछ खा लिया जाए। सैंड्विच? हाँ यह ठीक रहेगा। ऑर्डर किया। नरम थे और फ़्रेश भी। बाहर कुछ घोषणा हो रही थी। उसके कान वहीं लगे थे। कहीं ट्रेन न छूट जाए। 

गाड़ी आने में वक़्त था। यहाँ वातावरण कुछ सहज लग रहा था वरना बाहर तो बहुत शोर था। उसका मन भी हल्का हो आया। गरम कॉफ़ी से आराम मिल रहा था कि अचानक किसी की तेज़ आवाज़ से व्यवधान पड़ा। बग़ल की टेबल पर बैठा कोई व्यक्ति फोन पर किसी से गला फाड़ कर चिल्लाने लगा था। मछली का व्यापारी था शायद। बड़ी बेहूदा भाषा में किसी की धुनाई कर रहा था। शरीर पर खुल्लम-खुल्ला कुर्ता पजामा, हाथ में मोटा सा कंगन, गले में सोने की चेन और पाँव में चप्पल। मस्तमौला। उसका हुलिया देख शेखर की तनी हड्डियाँ अनायास ढीली हो गईं . . . पाँव पसार कर वह बची कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेने लगा। 

अचानक घोषणा हुई। उसने बिल चुकाया और प्लैटफ़ॉर्म की ओर निकल पड़ा। पता था कहाँ उसका डिब्बा रुकने वाला है। 

तेज़ गड़गड़ाहट के साथ तीर की तरह हवा को चीरती हुई गाड़ी प्लैटफ़ॉर्म पर आ खड़ी हो गई। 

उसने सूटकेस के पहिए खोले और भीड़ से बचाते बचते अपने डिब्बे की ओर तेज़ी से चलने लगा जो बहुत ही दूर निकल गया था। भगदड़ मची हुई थी। प्रतीक्षा में खड़ा हर प्राणी सहसा गति में आ गया था। प्लैटफ़ॉर्म ऐसे डोलने लगा था जैसे झंझावात आ गया हो। हर कोई जल्दी में था। कोई इधर से टकराता तो कोई उधर की ओर धकेल देता। कोई कोहनी चुभा देता तो कहीं से किसी का कंधा फेफड़ों में ठोकर मार जाता . . . प्लैटफ़ॉर्म पर यहाँ–वहाँ अस्त–व्य्स्त पाइप-लाइनें बिछी थीं और सूटकेस को उन्हें लँघवाने में उसे बड़ी तकलीफ़ हो रही थी। हार कर उसने सलाखों को बंद कर दिया और उसे स्वयं ही पकड़े गिरता सँभलता चलने लगा। 

डिब्बा देख राहत मिली। वातानुकूलित डिब्बा। अंदर ठंडक थी। शरीर पसीने से लथपथ और साँस फूल रही थी; बोझ जो ढोया था। ठंडी हवा लगते ऐसी प्रतीति हुई जैसे प्राण सहस्रार से बाहर निकल गए हों। तन-मन शांत हो गया। सीट ढूँढ़ी। सूटकेस अंदर ढकेला और आराम से पाँव पसार जूते खोल लिए। बड़ा आराम मिला। उँगलियाँ लाल हो आई थीं। नए जूते लिए थे। पहली बार पहना था इसीलिए काट रहे थे। तलवे भी सुन्न हो गए थे। भागने के कारण एड़ियाँ दुख रही थीं। उसने सूटकेस में से रब्बर की चप्पल निकाल ली। थक गया था। पीछे सर टिका पाँव पसार आँख मूँद ली। 

मन सोचने लगा कि रेलगाड़ी की बात ही कुछ और है। यह व्यवहार प्लेन में क़तई सम्भव नहीं। क़ीमत चुकाने पर आराम और सुविधा तो मिलती है प्लेन में पर कितना अंतर होता है वहाँ और यहाँ। वहाँ सब सूटेड-बूटेड कृत्रिम औपचारिकता ओढ़े उकड़े-से सिकुड़े-से बैठे रहते हैं। और यहाँ . . . बिंदास मनमौजी। न डर न झिझक। वैसे देखा जाए तो ट्रेन से सफ़र भी कम रोचक नहीं होता। रेलयात्रा हमेशा कुछ न कुछ यादें अवश्य छोड़ जाती है। 

डिब्बा अभी ख़ाली था। कुछ ही चढ़े थे और कुछ चढ़ रहे थे। 

धीरे-धीरे लोग भरने लगे। सब अपनी-अपनी जगह पर जम रहे थे। 

शेखर के सामने की सीट पर एक मैरिज पार्टी आ गई। वह हड़बड़ा कर उठा और आल्ती-पाल्ती मार कर बैठ गया। पूरा डिब्बा इत्र की ख़ुश्बू से महक उठा था। दस बारह लोगों का कुनबा और ढेर सारा सामान। आगे की लगभग दस बारह सीटें उन्हीं की थी। इस कुनबे में सब आयुओं के प्राणी थे यानी दुधमुँहा बच्चे से लेकर अस्सी के बुज़ुर्ग तक। शायद किसी विवाह से लौट रहे थे। सब के सब तड़क-भड़क कपड़ों में थे। 

उन्हें अपना सामान जमाने में और गिनने में काफ़ी उलझन हो रही थी। जहाँ जगह दिखी सामान भरा जा रहा था। 

शेखर की सीट के नीचे उसका एक ही सूटकेस था और काफ़ी जगह बची हुई थी जो नियमानुसार आधी उसकी और आधी ऊपर वाले बर्थ की होनी चाहिए थी। लेकिन रेल यात्रा की आचार संहिता ही ऐसी होती है कि हर यात्री अपनी सीट और सामान रखने की जगह पर स्वामित्व जताना चाहता है, भले ही कुछ घंटों के लिए ही सही। सो उसने भी अपना सूटकेस और जूते फैला कर रख लिए थे। पर इन लोगों ने आकर अपना सामान जमाने के चक्कर में बेरहमी से उसके सामान को कोने में खिसका दिया और बड़ी आत्मीय मुस्कान बिखेरते हुए भारी-भरकम सूटकेस नीचे भर दिए। कपड़े की थैलियाँ हुकों पर लटका दीं। 

भोजन की पोटलियाँ तो पहले ही सीटों पर ही रखी जा चुकीं थी; जिनके अंदर से आ रही मसालों की सुगंध जठराग्नि भड़का रही थी। हर छोटी से छोटी जगह का भी उपयोग किया जा रहा था। व्यवहार तो ऐसे कर रहे थे जैसे पूरी ट्रेन उनकी अपनी जागीर है। 

पूरा भचाल सा आ गया था। कुछ देर अफ़रा-तफ़री रही लेकिन जल्दी ही सब सँभल गए। सब सामान भली भाँति जमा दिया गया। रखने के बाद बार-बार गिन कर आश्वस्त हुआ गया। फिर चेन बाँधने का उपक्रम शुरू हुआ। फिर ताले लगाए गए।

सब पसर कर बैठ चुके थे। इस बीच कब गाड़ी चली पता ही न चला। कुछ शांत हो गया था वातावरण। शेखर सीधा तन कर बैठा तमाशा देख रहा था। और क्या विकल्प था उसके पास? 

चेन देखकर उसे याद आया कि उसके पास चेन नहीं थी। पिछली बार ग़लती से चेन सूटकेस में ही रखी रह गई थी और एयरपोर्ट पर सुरक्षा जाँच के दौरान हड़प ली गई थी। बाद में फिर ध्यान नहीं दिया था इस बात पर क्योंकि रेल से तो वह कम ही जाता था। सो आज उसका सूटकेस बिना चेन के ही नीचे लावारिस सा पिचक कर कोने में चला गया था। 

ट्रेन प्लैटफ़ॉर्म छोड़ चुकी थी। दोपहर के बारह बज रहे थे। गाड़ी घंटा देरी से थी। बाहर भागते हुए नज़ारों से शेखर ने अनुमान लगाया गाड़ी की गति में तीव्रता भी आ गई थी। वातानुकूलित डिब्बा था इसीलिए हल्के-हल्के हिचकोले लग रहे थे। लंबी यात्रा की ट्रेन थी सो ज़ाहिर है कि पैंट्री कार थी और पानी, समोसे, चाय, खाना आना शुरू हो गया था। 
सब यात्री अपनी-अपनी जगह पर अब आराम से पसर गए थे। पहले जितनी चहल-पहल नहीं थी। 

उसने आते समय ‘ऑटो’ पत्रिका ख़रीद ली थी; सो खोल ली और पीठ सीधी कर लेट गया। टू टायर था और लंबी यात्रा। सो बैठने से लेटना बेहतर लगा। उसने पर्दे खींच लिये और अभी चार पन्ने पलटे थे कि हल्की-हल्की झपकी आने लगी। कब नींद लगी पता ही न चला। 

आँख खुली किसी की आवाज़ से। 

“साब चाय,” पैंट्री वाला चाय लेकर खड़ा था। 

खिड़की के शीशे से बाहर देखा हल्का अँधेरा हो रहा था। शाम ढल रही थी। यानी काफ़ी देर सो गया था। 

“ओह यहाँ रख दो। कुछ मिलेगा खाने के लिए . . . बिस्कुट?” भूख जाग उठी थी। दोपहर को भी खाना न खाया था। 

“हाँ साब लाता हूँ,” कुछ ही पलों में वह बिस्कुट के पैकेट लेकर हाज़िर हो गया। साथ ही साथ समोसे भी थे उसके पास। किसी और ने मँगवाए होंगे . . . शायद . . . इसीलिए। 

“साब समोसा दूँ?” 

“हाँ यार भूख लग रही है। दे दो।” 

सामने की बर्थ पर उसी कुनबे के सबसे वरिष्ठ बुज़ुर्ग बैठे थे और किसी के साथ बतिया रहे थे। दोनों अपनी बातों में मग्न थे। उनके साथ सात-आठ बरस का एक बच्चा भी था जो फोन पर वीडियो गेम खेल रहा था। 

शेखर ने चाय का घूँट भरा और चारों ओर नज़र दौड़ाई। डिब्बा काफ़ी ठंडा हो चुका था। सब अपनी दुनिया में मग्न थे। अंदर कहीं से बच्चों के शोर की हल्की-हल्की आवाज़ें आ रहीं थीं। सब बेपरवाह परदे खींच रोशनी धीमी कर आराम फ़रमा रहे थे। यदा कदा पैंट्री वाला आता रहा। कुछ न कुछ लाता रहा। 

“साब रात का खाना चाहिए?” 

शेखर ने घड़ी देखी। आठ बज गए थे। ध्यान आया चलते समय रमा ने खाना बाँध दिया था रात का भी। वह हमेशा घर का खाना ही पसंद करता था। 

“नहीं भाई। लस्सी मिलेगी? खाना तो है।” 

“पूछना पड़ेगा साब। नहीं भी है तो अगले स्टेशन में ले लेंगे।” 

 वह बाक़ी यात्रियों से खाने का ऑर्डर लेने चला गया। 

“आपको लस्सी चाहिए?” सामने वाले बुज़ुर्ग ने कहा। हमारे पास कई पैकेट है। आते समय ख़रीदे थे। हम ज़्यादा लोग है न इसीलिए ज़्यादा ही होंगे। चिन्ता की कोई बात नहीं। अगर इसके पास न भी हो तो कोई नहीं, हमारे पास है,” बुज़ुर्ग ने अपने बेटे को आवाज़ लगाई जो वहीं दो सीट आगे था। 

“अरे नहीं, मैंने तो यूँ ही पूछ लिया था,” शेखर ने हिचकिचाते हुए कहा। 

“कोई बात नहीं। आप कहाँ तक जाएँगे?” वे लेट गए थे और उनके पास बैठा आदमी और बच्चा चले गए थे। 

“जलगांव।” 

“हम तो अकोला में उतर जाएँगे। सुबह-सुबह आता है। देरी से चली पर अब लगता है गाड़ी समय से है।” 

“हाँ . . . शायद . . . लग तो रहा है।” 

बाहर घुप्प अँधेरा। कहीं दूर कभी रोशनी दिखती और लुप्त हो जाती। गाड़ी हर स्टेशन पर रुक रही थी, हाँ पर कुछ ही पलों के लिए। गति में भी तीव्रता थी। 

शेखर ने फिर किताब खोल ली। आवाज़ हुई पर्दा हटाकर देखा तो रेल सुरक्षा बल के जवान थे जो हर घंटे बाद एक चक्कर मार रहे थे। बाहर घनघोर अँधेरा। दूर कहीं क़तार में रोशनी दिखी। शायद हाईवे था। यानी कोई शहर आने वाला था। 

“साब कागजनगर आ रहा है। यहाँ खाना दे देंगे। आपको कुछ चाहिए तो बोल दीजिए। लस्सी दे दूँगा साब,” पैंट्री वाला था। 

“ओह! थैंक्स भाई। पैसा अभी दूँ?” 

“नहीं साब कोई बात नहीं . . . कल सुबह भी तो है न? आप तो जलगाँव उतरेंगे न? कल सुबह देख लेंगे।” 

वह लस्सी का पैकेट लेकर आया और उसके सिरहाने रखकर चला गया। 

शेखर ने भोजन किया। नीचे अपने सूटकेस की तसल्ली की और फिर आराम से लेट गया। बत्ती जल रही थी। वे लोग सभी भोजन कर रहे थे। उसने पर्दा खींच लिया और आँखें मूँद ली। 

सुबह जल्दी उठना था। सब के उठने से पहले वह हाथ-मुँह धोकर फ़्रेश हो जाना चाहता था वरना भीड़ हो जाती थी। सो आँख लग गई। 

चार बजे अलार्म बजा फोन पर तो आँख खुली। देखा सब सोए पड़े थे। सामने के बुज़ुर्ग जग रहे थे। 

शेखर ने सूटकेस अंदर से खींच कर फ़्रेश होने का सामान निकाला। पेंट की जेब से बटुआ निकाल कर सूटकेस में डाल दिया। फिर टावल लेकर बाथरूम की ओर बढ़ गया। वहाँ देखा सुरक्षा बल के जवान बैठे थे दरवाज़े के पास। 

कुछ ही मिनटों में तरो-ताज़ा होकर वापस सीट पर आ गया। अभी चाय शुरू नहीं हुई थी। पीने की तलब उठी। 

ट्रेन रुकी थी। छोटा-सा स्टेशन था। सुनसान। इक्का-दुक्का कोई भिखारी कम्बल ढके कोने में दिखाई दे रहा था। 

“कौन सा स्टेशन है?” उन्होंने पूछा। 

“बडनेरा,” गाड़ी ने सीटी दी और रेंगने लगी। 

“आप जल्दी तैयार हो गए,” वे उठकर बैठ गए। 

“हाँ पर आपका स्टेशन तो साढ़े पाँच बजे आएगा न? आप और एक घंटा सो सकते हैं,” शेखर ने घड़ी देखी। बटुआ अंदर था सूटकेस में। सोचा . . . पैंट्री वाले को पैसा बाद में देना है। जल्दी क्या है? बाद में निकाल लूँगा। 

“हाँ पर अब नींद नहीं आ रही थी इसी लिए उठ गया। चाय तो नहीं मिलेगी?”

“नहीं अभी शुरू नहीं हुई।” 

वे फिर लेट गए। शेखर भी चुपचाप सोने का प्रयत्न करने लगा। मालूम था चाय आते ही वह उसे उठा देगा। आँख लग गई। वह सो गया। 

 

♦    ♦    ♦

 

“साब चाय,” ट्रेन आउटर पर रुकी थी। 

“कौन सा स्टेशन है?” उसने चाय का कप उठाया। देखा सामने वाली सब सीटें ख़ाली थी। मैरिज पार्टी उतर चुकी थी। 

“भूसावल आने को है साब। उससे अगला स्टेशन आपका जलगाँव . . . साब नाश्ता लाऊँ क्या?” उसने पूछा। 

“नहीं भाई . . . कितना बिल हुआ? कल से खिला पिला रहे हो।” 

“साब कोई नहीं . . . ले लेंगे। आप नाश्ता कर लो।” 

शेखर ने बटुए के लिए नीचे सूटकेस टटोला। नहीं मिला उसने झुक कर देखा। मैदान साफ़ था। कहीं उसका सूटकेस न था। वह हड़बड़ा गया। पसीने छूटने लगे। “अरे मेरा सूटकेस कहाँ गया?” 

“क्या साब, क्या हुआ? सूटकेस नहीं है? चेन नहीं डाले थे क्या?” 

“नहीं . . . नहींं है मेरे पास चेन पर सुबह भी तो यहीं था, इतने में कैसे? तुम लोग तो यहीं घूम रहे हो न? देखा किसी को? 

“साब रुको कहीं और होगा।” 

“यहाँ से कहीं कैसे जा सकता है? किसी ने मार लिया ही होगा,” शेखर परेशान हो गया। “अरे पर्स भी था उसमें। क्रेडिट कार्ड और लगभग तीन ढाई हज़ार रुपए।” 

“रुको साब . . . परेशान मत हो मैं किसी को बोलता हूँ . . . पुलिस है यहाँ। मिल जाएगा।” 

सुरक्षा बल के जवानों तक बात पहुँची। वे फ़ौरन आ गए। 
“क्या बात है साब?” 

“मेरा सूटकेस कोई लेकर उतर गया,” शेखर के चेहरे पर हवाइयाँ दौड़ रही थी। “सुबह भी यहीं था। चार बजे। मैंने यहीं रखा था।” 

उन्होंने उसे ऊपर से नीचे ग़ौर से देखा। 

“मेरा पर्स जूते सभी उसी में है। सुबह ही मैंने अंदर डाल दिए थे . . . कुछ देर आँख लगी अभी उठा तो देखा। शायद इन पार्टी ने ग़लती से मेरा सूटकेस भी उतार लिया हो। पर अब कैसे? क्या करें?” 

“आपने पर्स और जूते भी अंदर रखे? सुरक्षा जवान ने आशंका जताई। “और फिर वो सूटकेस किसका है जो बाथरूम के पास पड़ा हुआ है?” 

इतने में एक जवान एक सूटकेस लेकर आया जो हूबहू शेखर के सूटकेस जैसा ही था और कल से यहीं उसके सूटकेस के बग़ल में ही रखा हुआ था। 

“सर यह मेरा नहीं है। वे ग़लती से मेरा ले गए और अपना छोड़ गए। पर ये बाथरूम के पास यह कैसे आया मैं नहीं जानता।” 

“नहीं गाड़ी ज़्यादा देर नहीं रुकती न तो शायद सामान गिनने में गिनती अधिक लगी तो एक सूटकेस छोड़ गए होंगे दरवाज़े के पास,” किसी ने कहा। तब तक कुछ और लोग भी वहाँ इकट्ठे हो गए थे।

“अब क्या करें? क्या मुझे मेरा सामान मिलेगा?” शेखर के हाथ-पाँव काँप रहे थे। सब लुट गया था। हाथ में एक पैसा भी न था। कितनी नादानी की थी उसने सुबह पर्स भी उसमेंं रख दिया था। काश पर्स जेब में ही रख लेता। और चेन न होना तो सबसे बड़ी परेशानी बन गई थी। कुछ सूझ न रहा था। 

भूसावल स्टेशन आ गया था। गाड़ी रुक गई थी। 

“साब आप ऐसा कीजिए यहाँ उतर जाए और पुलिस में शिकायत दे दीजिए। अब तो वे ही आपकी सहायता कर सकते है,” सुरक्षा जवान ने ज़ोर देकर कहा। 

“पर मुझे तो अगले स्टेशन उतरना है? जलगाँव यहाँ से कितनी दूर होगा?” 

शेखर काफ़ी परेशान हो गया था। नई जगह, नया अनुभव . . .

“देखिए सोचिए मत। आप पहले इधर उतर जाइए। जहाँ सामान चोरी हुआ वहीं रपट देनी होती है। गाड़ी अधिक देर न रुकेगी। क्या करना है वह बाद में सोचा जाएगा। आप उतर जाइए।” 

शेखर उतर गया। दो सुरक्षा जवान उसके साथ चल रहे थे। उनके पास वह सूटकेस था जो ‘वे’ छोड़ कर चले गए थे। 

“सामने रेल पुलिस चौकी है। चलिए वहीं रपट दे देंगे।” 

प्लैटफ़ॉर्म ख़ाली हो चुका था। ट्रेन चलने लगी थी। छोटा स्टेशन था। भीड़ न थी। अचानक शेखर की नज़र उस आदमी पर पड़ी जो कल शाम सामने वाले बुज़ुर्ग के पास बैठा बतिया रहा था। वे थोड़ा आगे चल रहे थे अपने पोते का हाथ थामे . . . शेखर की आँखें चमक उठी। वे उनके पीछे भागने लगा। 

उसने आवाज़ देकर उन्हें रोका।

“सर प्लीज़ रुकिए,” शेखर तेज़ी से दौड़ लगाने लगा। आशा की एक किरन वही थे अब। 

आवाज़ सुनकर उन्होंने मुड़ कर देखा। शेखर हाँफते हुए उनके पास पहुँचा। 

“सुनिए कल शाम आप हमारे डिब्बे में आए थे न। ईश्वर की दया है आप यहीं उतरे। आप कल मेरी सीट के सामने वाली सीट पर बैठे थे और उनसे बात कर रहे थे, याद आया? उस मैरिज पार्टी के बुज़ुर्ग से। दरअसल बुरा न माने, आप की सहायता चाहिए। क्या आप उनका नंबर दे सकते हैं? वे ग़लती से मेरा सूटकेस लेकर उतर गए है?” शेखर ने टूटते शब्दों में उन्हें समझाने की कोशिश की। 

“सूटकेस लेकर उतर गए हैं?” उन्हें शेखर की बात कुछ समझ नहीं आई। उस की स्थिति देखकर वे सशंकित नज़रों से उसे देखने लगे। तब तक शेखर के पीछे जवान भी दौड़ते आ गए। यह सब देख वह आदमी घबरा गया। 

“कल इनको मैंने देखा था। ये उन्हें जानते है। उनका नंबर इनसे मिल सकता है। नंबर मिल जाए तो पूछ सकते है। मैं सच कह रहा हूँ,” शेखर ने उखड़े शब्दों में सुरक्षा जवानों को सफ़ाई देने की कोशिश की। 

“कौन है आप? मैं आपको नहीं जानता। कौन है आप और क्यों माँग रहे है उनका नंबर?” मैं नहीं जानता . . . मुझे जाने दीजिए क्यों रास्ता रोक रहे हैं?” वे चीखते हुए बोले। 

शेखर बुरी तरह हाँफ रहा था। मुँह से बोल भी न निकल रहे थे। आवाज़ लड़खड़ा रही थी। 

“देखिए इधर आइए हम समझाते हैं,” सुरक्षा जवान ने उनसे बड़ी कोमलता से कहा। 

“इनका सब सामान गुम हो गया है। ये बड़ी परेशानी में है। शायद आप उन लोगों के परिचित हैं जो ग़लती से अपना सूटकेस समझ कर इनका ले गए है और अपना गाड़ी में ही छोड़ गए हैं। इसीलिए ये उनका नंबर माँग रहे है। अगर आप के पास है तो दीजिएगा नहीं तो कोई बात नहींं चिंता मत कीजिए। ये सच कह रहे हैं।”

“सर प्लीज़ मदद कीजिए। मैं सच कह रहा हूँ। सोचिए मेरा सब कुछ उसी सूटकेस में है। प्लीज़ सर,” शेखर मनुहार करता लगभग रोने की मुद्रा में आ गया था। 

“ठीक है। मैं अपने फोन में ढूँढ़ता हूँ . . . ज़रा रुकिए,” उन्हें उस पर तरस आ गया था। नंबर मिला। उन्होंने लगाया और स्वयं पहले बात की। स्थिति समझाई और शेखर से बात करवाई। 

“साब वैरी सॉरी। आप सच कह रह रहे हैं। दरअसल सुबह जल्दी में दादा जी ने आपका भी सूटकेस खींच लिया था। उतरकर देखा तो गिनती ज़्यादा हुई और तब तक गाड़ी चलने लगी थी। हमने एक सूटकेस हड़बड़ी में अंदर डाल दिया। पर देखिए हम अपने गाँव आ चुके हैं। आप इस वक़्त कहाँ है?” 

शेखर की जान में जान आई। 

“मुझे भूसावल में उतार दिया है। मैं यहीं ही हूँ। आप यहाँ कब तक आ सकते हैं?” शेखर कुछ सँभल गया था। 

“यहाँ से भूसावल लगभग 200 कि.मी. पर है। दो-ढाई घंटे तो लग सकते हैं। आप वहीं रहिएगा। माफ़ करें हमें पर हम जल्दी ही आ जाएँगे,” उन्होंने कहा। 

“आप ज़रा एक बार इनसे भी यहाँ बात कीजिए,” शेखर ने फोन जवान को दिया। 

“देखिए आप भूसावल रेलवे चौकी आ जाएँ। यहाँ आकर बात होगी। ठीक है। जितनी जल्दी हो सके उतना अच्छा,” जवान ने फोन काट दिया। 

“बहुत-बहुत आभार आपका। आप ने तो मेरी जान बचा ली,” शेखर ने उस आदमी का हाथ जोड़ शुक्रिया अदा किया। मन ही मन वह ईश्वर का नाम जप रहा था। आज तो सचमुच यह किसी चमत्कार से कम न था। 

“शुक्रिया कैसा साब? ख़ैर होता है कभी-कभी। बहुत इज़्ज़तदार परिवार है वह। जो हुआ ग़लती से हुआ होगा। आप निश्चिंत रहिए। वे आ जाएँगे। और अब मुझे इजाज़त दीजिए,” वे पोते को लेकर चले गए। 

“साब, आप चौकी में चलकर रपट लिखवा लें। चलिए, कुछ औपचारिकताएँ है। आपको पूरी करनी हैं।” 

“क्यों? वे आ रहे हैं तो सामान मिल गया समझो। तो फिर पुलिस केस की क्या ज़रूरत है? इस बात को मैं समझा नहीं। आपने मदद की आपका धन्यवाद। अब आगे मैं सँभाल लूँगा।” 

शेखर को उनकी नीयत पर शक हो रहा था। सशंकित तो वह पहले से था। सब कुछ लुटा चुका था। अब ये लोग औपचारिकता के बहाने न जाने और क्या लूटना चाहते थे? सामान तो फिर भी मिलने की आस थी पर अब इन लोगों के चंगुल से बचना मुश्किल लग रहा था। 

“नहीं साब अब तो यह पुलिस केस बन गया है। जब तक वे न आएँ तब तक कुछ कहा नहीं जा सकता। आप चलिए वहाँ पर, वे आपको सब समझा देंगे।” 

वह सब समझ रहा था। फिर भी नादान-सा उनके पीछे चल पड़ा। 

रेलवे पुलिस चौकी प्लैटफ़ॉर्म पर ही थी। अंदर एक अफ़सर था और बाहर हवलदार बैठा ऊँघ रहा था। 

जवान ने संक्षिप्त में उसकी कहानी सुनाई। उन्होंने उसे बैठने को कहा और आपस में कुछ बात करने लगे थे। 

“देखिए साब, यह केस अब पुलिस केस है। आपको लिखवाना होगा कि आपके सूटकेस में क्या सामान था ताकि आने के बाद जाँच कर ली जाए। और चिंता मत कीजिए। हम अकोला से यहाँ तक सभी चौकियों में सूचना भिजवा रहे हैं। उनकी गाड़ी का नंबर भी पूछ लिया है। तो जब तक वे आएँ आप कुछ काग़ज़ पर सब विवरण भर दीजिएगा। चिंता मत करें आराम से चाय पीजिए।” 

उसने चाय के लिए कह दिया और कुछ ही क्षण में चायवाला गरम चाय लेकर हाज़िर हो गया। शेखर को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसा ही लग रहा था कि बकरे को काटने से पहले खिलाया-पिलाया जा रहा है। 

सुबह से काफ़ी तनाव में था इसी कारण गरम चाय से कुछ राहत मिली। 

उसने यंत्रचालित सब औपचारिकताएँ पूरी कीं। अब केवल प्रतीक्षा थी। वह उठा और बाहर आकर एक पंखे के नीचे प्लैटफ़ॉर्म पर बैठ गया। प्लैटफ़ॉर्म लगभग ख़ाली था। 

आधा घंटा मुश्किल से बीता। कम्पनी के ड्राइवर को उसने फोन कर सब बता दिया था और जलगांव की जगह यहाँ आने की हिदायत दे दी थी। मशीन अभियंता था शेखर और दस साल से इस व्यवसाय में उसने अच्छी जगह बनाई थी। स्थिति भी ठीक-ठाक ही चल रही थी। यहाँ काम के सिलसिले पहली दफ़ा आया था और यह अनुभव हाथ लगा था। 

एक घंटा और बीता। वह वहीं उस बेंच पर बाहर बैठा प्रतीक्षा करता रहा। समय थम-सा गया था। निकल ही न रहा था। बग़ल में ओवर ब्रिज के लिए सीढ़ियाँ थी जिसके पास एक-आध कुली बैठकर सुस्ता रहे थे। भीड़ तो बिल्कुल न थी। स्टेशन पर गाड़ियों का शोर न के बराबर था। लेकिन दूर पटरियों की गुत्थमगुत्थी के पार एक मालगाड़ी रुकी हुई थी और शंटिग की आवाज़ नीरवता भंग कर रही थी। पहिए चरमराते, मालगाड़ी चलती फिर पैनी नुकीली आवाज़ देते पहिए रुक जाते। उसके सामने पटरियों का जाल फैला हुआ था। उलझी हुई एक दूसते को काटती पटरियाँ, पर सबकी दिशा सीधी, लंबी, दूर क्षितिज में खोती हुईं। कभी-कभार दूर कहीं धुएँ की क्षीण रेख दिखती पर अगले ही क्षण अनंत में विलीन होती जाती थी। 

उसने ऊपर सर उठा कर देखा। आसमां में एक छोटी सी दूधिया बदली दिशाहीन तैर रही थी . . . निसहाय सी . . . असहाय सी, संभावित हवा से डरी-डरी . . .  
 
इस बीच दो चाय और भेजी गई। बीच-बीच में अफ़सर भी आकर उससे बात करता रहा। 

“साब नाश्ता। आपने कुछ खाया न होगा। कुछ खा लीजिए साब। अभी समय लगेगा उन्हें आने में,” सामने हवलदार नाश्ता लेकर खड़ा था। 

“आपने किया?” शेखर ने मानवता वश पूछ लिया। 

“नहीं साब, अफ़सर जी ने पहले आपको देकर आने को कहा। आप भूखे होंगे, आप खा लीजिए। मैं चाय लेकर आता हूँ।” 

शेखर ने अचरज से उसे देखा। उसकी अविश्वासी नेत्रों में भूख जाग उठी सो विचारों को झटका और नाश्ता करने बैठ गया। 

“साब वे पहुँच गए है। बस आते होंगे,” हवलदार ने आकर सूचना दी। 

वह झटके से उठा और उसी ओर देखने लगा जहाँ से वे लोग उसका सूटकेस घसीटते अंदर आ रहे थे। लगा जैसे भारी बोझ उतर गया हो। होंठों पर मुस्कान तैर आई। आज तो चमत्कार ही हो गया था। 

“सॉरी सर बहुत बहुत सॉरी। हमारे कारण यह सब हुआ। आपका बहुत समय बर्बाद हुआ।,” उन्होंने आते ही क्षमा माँगी। 

शेखर कुछ भी न कह पाया। बस मूर्तिवत अपने सामान को ही देख रहा था। 

“आप सूटकेस हमें यहाँ दे दीजिए।।,” इससे पहले शेखर आगे बढ़ कर सूटकेस लेता, पुलिस अफ़सर ने पहले ही उसे ले लिया। सूटकेस खोल कर जाँच की। तसल्ली की कि जो जो विवरण शेखर ने लिखे थे, वो सामान सही सलामत है या नहीं। उसने उनसे काग़ज़ पर दस्तखत करवाए और सूटकेस शेखर को सौंप दिया। उन लोगों ने अपना सूटकेस लिया। एक बार फिर माफ़ी माँगी और आभार जता कर चले गए। 

शेखर को विश्वास न हो रहा था कि उसकी खोयी हुई चीज़ ऐसे भी मिल सकती है। और वो भी बिना मूल्य चुकाए। यह उससे भी बड़ी बात थी। 

वह प्रश्नसूचक नज़रों से अभी भी अफ़सर को देख रहा था। प्रतीक्षा थी कि अब वह कुछ बोलेगा। जिस स्वार्थ से यह उपकार किया था, उसे बाहर प्रकट करेगा। दिल धड़क रहा था कि उनकी माँग कितनी होगी? ढाई तीन हज़ार तो थे पर्स में और अब तो यह खुला रहस्य था। वे भी जानते थे। और क्रेडिट कार्ड भी तो थे . . .

“सब ठीक है न साब। आप को देर हो गई। चलिए अब आप जा सकते है। हम तो यही चाहेंगे कि आप यहाँ फिर दुबारा न आएँ पर जब भी आवश्यकता हो तो हम आपकी सेवा में हमेशा हाज़िर है। बेझिझक आइए। ख़ैर आपकी गाड़ी आ गई क्या?” अफ़सर अपनी कुर्सी से उठा। गर्मजोशी से हाथ मिलाया और नज़रें पलट कर बाहर की ओर देखने लगा। वह कुछ झेंप सा गया था शायद उसके मन की भाषा समझ रहा था। 

शेखर असमंजस में था। हिचकिचाते हुए बोला, “पता नहीं आपका कैसे शुक्रिया अदा करूँ।” 

“नहीं साब शुक्रिया कैसा . . . हमने तो अपनी ड्यूटी की है। पर आप भी आगे से रेल में सामान को चेन बाँध लीजिएगा। थोड़ी बहुत सावधानी तो आपका भी फ़र्ज़ बनता है न। ठीक है साब . . . नमस्ते,” अफ़सर ने उसकी आँखों में झाँक कर कहा। 

न जाने क्यों आज पहली बार उसकी आँखेंं अनायास झुक गईं। 

हाथ जोड़े और बाहर आ गया। गाड़ी तैयार खड़ी थी। सहसा तेज़ हवा चली। कच्ची सड़क थी। मिट्टी से सनी। हवा से धूल उड़ कर उसकी आँख में गिरी। उसने दोनों हाथों से आँखें बंद कर लीं और आँखों को मसलने लगा। 

“साब क्या हुआ? रुकिए पानी देता हूँ। धो लीजिए,” टैक्सी ड्राइवर झट से पानी की बोतल ले आया। 

शेखर ने पानी से मुँह धोया और कुछ छींटे आँखों पर मारे। 

“क्या हुआ साब, अब ठीक है? आँख साफ़ हो गई?” 

“हाँ!” 

“ठीक दिखाई दे रहा है न साब?” उसने तसल्ली की। 

“हाँ भई, सब साफ़ . . . सब ठीक है। थी धूल, पर अब साफ़ हो गई है।” 

“तो चलें साब?” 

“हाँ अब चलो।” 

बारह बज चुके थे। टैक्सी जलगांव की ओर दौड़ने लगी। 

 (सत्य घटना पर आधारित) 

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