काली
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. पद्मावती15 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
“बहू! गहने पहन लेना। यहाँ शहरों वाला हुलिया नहीं चलेगा। ठाकुर परिवार की बहू हो। आज मंदिर में हमारा भंडारा है। वहाँ सब की नज़र तुम पर ही होगी। पहली बहू तो मेरे बेटे को निगल गई। अब तुमसे ही आशा बँधी है।”
“जी। क्या दीदी को खाना दे दूँ? हमें आते तीन बज जाएँगे।”
“न। काली दे देगी। अभी मर न जाएगी,” माँजी अपनी गोट वाली बनारसी साड़ी पहनते बोली।
उर्मि खिन्न सी तैयार होने चली गई।
कुछ ही क्षणों में माँजी की चिंघाड़ती आवाज़ कानों में पड़ी, “बहू गंगा जल ले आ।”
उर्मि चौंक गई। बाहर आँगन में काली गीले कपड़ों की बड़ी सी बाल्टी लिए थर-थर काँप रही थी और माँजी शेरनी की तरह उस पर दहाड़ रही थी . . . “मनहूस कहीं की, कितनी बार कहा है शुभ काम को जाते समय काली बिल्ली की तरह रास्ता मत काटा कर। मुँह ढाँप। छिः . . . छिः अशुद्ध . . . अपशकुन कहीं की। बहू . . . ला . . . गंगा जल छिड़क दे।”
उर्मि को जैसे साँप सूँघ गया। खड़ी की खड़ी रह गई। माँजी फिर चिल्लाई, “अरे बहू जल छिड़क।”
वह अचानक होश में आई और जल्दी-जल्दी जल छिड़कने लगी . . .
“पर माँजी यह तो सुबह शाम यहीं रहती है आपके सामने और रात को तो आपके पैर . . . ”
“अब लेक्चर मत झाड़ो बहू,” माँजी उर्मि की बात पूरी होने से पहले ही चाँदी का थाल लिए निकल गई।
काली चेहरे से नहीं, क़िस्मत से काली थी। सोलह साल की बाल विधवा . . . माँजी की विशेष परिचारिका।
उर्मि का मन कड़वा हो आया। मन में उठे रोष के ज्वार को दबा कर पूजा की थाल लिए वह चलने को हुई . . . गंगा जल से गीला फ़र्श . . . पैर फिसला . . . धड़ाम से गिरी . . .। पूजा की थाली दूर छिटक गई।
“अरे बहू रानी . . . आप तो गिर गईं!” आवाज़ सुनकर काली भागती हुई आई और उसने उर्मि को पकड़ लिया।
“हाँ बेटा! मैं गिर गई। सचमुच! बहुत गिर गई हूँ,” उर्मि कराह उठी।
“पता नहीं क्या बोलतीं रहतीं है आप,” काली ने बाल्टी उठाई और कपड़े सुखाने चल दी।
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टिप्पणियाँ
डॉ सुरभि दत्त 2022/02/11 08:17 AM
डॉ पद्मावती जी को बधाई, आप ने असहाय काली के माध्यम से मन पर ढकी काली परत को उजागर किया है और उर्मि पात्र के माध्यम से बताया है कि सास के अंधविश्वास के दलदल का विरोध न कर मूक दर्शक बन गई
सुरभि दत्त 2022/02/11 08:07 AM
लेखिका डॉ पद्मावती जी ने समाज के एक ऐसे चहरे को दिखाया है जहाँ नारी ही नारी का दमन करती है नारी सशक्तिकरण के युग में यह भी एक दुखद सच्चाई है मुखोटा ओढ़े असहाय का शोषण करता है दूषित मानसिकता जहाँ
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नागराजन सी 2022/02/12 03:39 PM
कहानी की संरचना केवल 'लघु कथा ' लेकिन इसके पीछे की अवधारणा बहुत बड़ी और गहरी है। कबीर दास जैसे कितने महान लोग प्रकट होकर अंधविश्वास नामक जहरीले पौधों को उखाड़कर फेंकने पर भी वह फिर फिर अंकुरित होते रहते हैं। समाज में काली जैसी कई महिलाएं आज भी अपमानित की जा रही हैं और ऊर्मि जैसी बुद्धिमान महिलाएं भी विवश के कारण कुछ नहीं कर पातीं । अंधविश्वास को मिटाने के प्रयास में, प्रतीकों के साथ वर्णित आपकी लघु कथा का सार बहुत खूब, उपयोगी और शानदार है महोदया।