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एक और नई कहानी 

“और आप ने उन्हें माफ़ कर दिया शांता दी? साँप की तरह जिसने अपनी औलाद को डस लिया . . . उसे? और आपका जीवन? कुछ मूल्य है उसका आपकी नज़रों में? इतना घिनौना काम करके वह कैसे माफ़ी के क़ाबिल हो गया आपके लिए शांता दी? क्या साबित करना चाहती हैं आप? कि लोग आपको देवी कहें, पूजा करें आपकी? मैं तो आपको हाड़–मांस का इंसान भी नहीं मानती? क्या कहे इस महानता को? कायर हैं आप . . . कायर . . .” 
—आगे पढ़िए

 

उखड़ी-उखड़ी सी . . . आनंदी बरामदे में टहल रही थी . . . अशांत, अस्थिर मन। खाना बन चुका था पर अभी भोजन की बेल न बजी थी। अलग भवन में था भोजनालय थोड़ी ही दूर पर। पाँव साथ न दे रहे थे तनाव के कारण सो कोरीडोर में ही सीमेंट की बेंच पर बैठ गईं वह। सामने पल्लू से हाथ पोंछती आती दिखाई दी कमला। खाना बनाने का दायित्व उसका था। पचास के लगभग लोगों का . . . वृद्धाश्रम में। 

“कैसी है?” इशारे से पूछा उसने। मुख पर थकान से अधिक चिंता नज़र आ रही थी। 

“पता नहीं, पर शाम तो हालत ख़राब थी,” उसने सिर आड़ा हिला दिया लेकिन नज़रें हटी नहीं उस दरवाज़े से। शांता दी का कमरा। कभी यह कमरा अगरबत्ती और ताज़े फूलों की सुगंध से महकता था और आज . . .? झीना-सा मैला पर्दा लटक रहा था दरवाज़े पर। दीवार से लगी इकलौती खिड़की से अंदर का दृश्य साफ़ नज़र आ रहा था—बदबूदार बिस्तर पर बेचैनी से करवटें लेती शांता दी की बूढ़ी हड्डियाँ . . . टिमटिमाते बल्ब की फीकी रोशनी में उखड़े प्लास्टर की धुँधली बेजान दीवारों से चिपक कर मन को आतंकित करता दर्द की परछाईं का भयानक चित्र, गहन अवसाद की कालिमा से ढका यह कमरा आज आने वाली मौत का स्वागत कर रहा था। अनथक कराहते हुए उस अस्थिपंजर को देखकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते थे। आवाज़ आनी बंद न होती . . . पूरा दिन और पूरी रात। रोते कराहते गला सूख जाता तो एक बूँद पानी की टपका देते पास की कुर्सी पर सिर टिकाए बैठे उनके भैया जो स्वयं इतने बुज़ुर्ग थे कि ठीक से उठ भी न पाते थे और शहर से आए हुए थे शांता दी की सेवा में, विकल्पहीनता की स्थिति में। वैसे आनंदी भी तो उनकी सेवा में ही लगी थी पिछले एक सप्ताह से। ग़ुस्लख़ाने में गिर गई थी शांता दी और कूल्हे और रीढ़ की हड्डियाँ चटक गई थीं। इंफ़ेक्शन इतना बढ़ा कि रक्त का बहाव रुक कर शरीर पर नीले-नीले चकते दे गया था। जवाब दे दिया था डॉक्टर ने भी। दवाइयाँ दी थीं पर असर न के बराबर। बिस्तर से उठना भी दुश्वार हो गया। अस्सी के पार हो चली थी शांता दी की उम्र। और अब आश्रम वालों ने भी अल्टीमेटम दे दिया था कि वे उन्हें और नहीं रख सकते। अभिभावक के स्थान में उनके भाई का नाम था इसीलिए लिवाने आए थे वे पर उनकी हालत देख एक दो दिन प्रतीक्षा करना उचित समझा। खाना छोड़ दिया था शांता दी ने और जब धीरे-धीरे खाना-पीना बंद हो गया तो शरीर के सभी अवयव भी धरने पर बैठ गए और . . . बस . . . क्षीण होती चली गई हालत। अब तो केवल प्रतीक्षा हो रही थी . . . उस अवांछित अतिथि की जिसका आना तो तय था पर कब . . . प्रश्नचिन्ह बना हुआ था यह तो। वो प्रतीक्षा कितनी दूभर थी . . . उनके लिए भी और शांता दी के लिए भी। 

आसमान बादलों से घिरा रहा आज। सूरज तो सुबह से लापता था। दोपहर भी धुँधली रही और शाम कब आई और ढल गई पता ही न चला। समय से पहले ही पसर गई थी रात गहन अंधकार की चादर ओढ़े। थी तो पूनम की रात पर बादलों की ओट में मुँह छिपाए चाँद ऐसे बैठा था मानो कोई शर्मनाक अपराध कर दिया हो। और तारे? जब चाँद ही मैदान छोड़ जाए तो तारों की क्या बिसात? वे भी दुबक गए थे कहीं किसी कोने में। हवा थी पर जैसे थी ही नहीं। उमस से भरा ठहरा वातावरण आने वाले तूफ़ान का इशारा कर रहा था। उसका मन तो कब से अनजाने ही चाह रहा था कि शांता दी मुक्त हो जाए उस मर्मांतक पीड़ा से . . .। 

आनंदी सामने फैले छोटे से पार्क की ओर हो ली। इस समय कोई न था वहाँ। सुनसान-सी, घुटी-सी शान्ति थी। पर जो भी हो, जगह यहाँ से बेहतर थी। यहाँ तो खड़े रहना भी दूभर लग रहा था। हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो गई पर पार्क में छोटी-छोटी छतरियों के आकार बने हुए थे सीमेंट के जहाँ बिना भीगे आराम से बैठा जा सकता था। एक छतरी के नीचे जाकर वह बैठ गई। चारों ओर नज़र दौड़ाई। घने वृक्ष सहमे से शांत खड़े थे। पत्तों पर टप-टप गिरती बूँदों का संगीत। महक गई थी हवा मिट्टी के भीगते ही। राहत मिली मन को। किनारे पर पारिजात का वृक्ष था। बूँदें फूलों पर गिरती और उन्हें नीचे धकेल देती ज़मीन पर। वह देखती रही। खेल मन को भा रहा था। धीरे-धीरे छँट रही थी बेचैनी। वहीं बीचों-बीच लंबे से खंबे में वर्तुलाकार कई बल्ब जल रहे थे। अच्छी ख़ासी रोशनी थी। आराम आया। दरअसल बहुत समय पश्चात शांत हुआ था मन। सोचा . . . कितना चिंता मुक्त कर देता है प्रकृति का आग़ोश? सुकून के वे क्षण . . . अप्रयत्न आँखें मुँदने लगीं। कुछ ही पलों में ताज़ा हो गया दिलो-दिमाग़। शायद वहाँ अँधेरे से कुछ-कुछ डर लगने लगा था। 

और तृप्त हुआ मन कब चुप बैठा है? खंगालने लगा दबी हुई स्मृतियों को और वे लहरियाँ सजीव हो उठी आँखों के सामने। सब जैसे साफ़ परदे पर दिखाई दे रहा हो। पहले दिन जब वह इस आश्रम में आई थी, तो दीदी ने सगी बहन से भी अधिक उसे सहारा दिया था। कितनी आत्मीयता, कितना स्नेह। वैसे तो अधिकतर चुप ही रहती थी शांता दी . . . अपने नाम के अनुरूप शांत। अपने में सिमटी हुई। पर उनकी एक पहचान थी . . . उनकी प्यारी सी मुस्कान, जो हमेशा स्थिर रहती थी उनके चेहरे पर। बड़ी मिलनसार और मददगार। जब भी मंदिर जाती तो वहाँ दिए प्रसाद को सहेज कर रखती थी उसके लिए। ख़ुद न खाती थी। उसके कितना कहने पर भी शांता दी उसे दिए बिना न मानती थी। 

पिछले साल जब वह बीमार पड़ी थी तो कितनी सेवा-सुश्रूषा की थी उसकी उन्होंने? रात-रात भर जागकर माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखना . . . कैसे भुला सकती थी वो? उसकी ही क्यों, चहेती तो पूरे वृद्धाश्रम की थी वे। उनका तो जनम ही हुआ था सेवा करने। 

गाढ़ा गेहुँआ रंग छरहरा बदन, माथे पर लाल बिंदी, माँग में सिंदूर, पाँव में पायल और घुँघरूदार बिछुए और तिस पर दूधिया सफ़ेद सूती साड़ी। उस साध्वी को देखकर आनंदी हमेशा सोचती कि अगर ये सधवा हैं तो यहाँ क्यों है? हिम्मत न हुई उसकी पूछने की कभी उनसे और उनका स्वभाव भी ऐसा कि किसी को अपनी कहानी सुनाने से रही। न किसी के जीवन में अनावश्यक झाँकने की आदत थी उन्हें। हमेशा कहती थीं कि यहाँ रह रही हर वृद्धा की अपनी एक कहानी है . . . निजी . . . व्यक्तिगत, अपनी ही भित्तियों में सिमटी कहानियाँ। कई अनसुलझे रहस्य। कहने को बहुत कुछ लेकिन मुँह सबके सिले हुए हैं। शिकायत करें तो किससे? किसी को ईश्वर ने ठगा तो किसी को अपने ख़ून ने। तो किससे कहें? बहुत बार उसने उन्हें उकसाने की कोशिश की थी कि बताए कुछ अपने जीवन के बारे में। पर शांता जी तो शांता जी ठहरी। हमेशा बात पलट देती थी। 

याद है उसे, उस शाम जब दीदी बरामदे में बैठी थी और वह लौटी थी मंदिर से। आते ही कुर्सी खींच ली थी उसने और उनके सामने बैठ गई थी सुस्ताने और . . . बस . . . शांता दी शुरू हो गई थी . . . अपनी कहानी सुनाने। 

क्या कहा जाए इसे? वह आज तक असमंजस में है . . .। आप-बीती, कहानी या विकृत अनुभवों की ख़ून सनी खरोंचों से निकली उस भुक्तभोगी की आर्त्त पुकार? जो भी हो . . . सुनकर बुरी तरह से घायल हो गई थी आनंदी लेकिन उनके माथे पर शिकन तक न आई थी, अनथक अपनी कथा सुनाते। 

सामने दीवार घूरती वे आत्मालाप करने लगी थीं। न जाने कौन दिशा की हवा चली थी उस दिन, सुलग आए थे मन में दबे बुझे अंगार और वे ज्वालामुखी, फट पड़ी थीं। बोलती रही . . . बोलती रही और बस बोलती रही थीं। इस भान से परे कि कौन सुन रहा है? सुन भी रहा है या नहीं? कितने बरसों से छिपाया था उन्होंने यह दावानल अपने अंदर जिनकी लपटों में रोज़ थोड़ा-थोड़ा, अंश-अंश, घुट-घुट कर वे जलती रहीं . . . पिघलती रहीं . . . पर किसी को न बताया। आँसुओं का खारा समुद्र तो कब का सूख चुका था फिर यह बड़वाग्नि आज कैसे प्रज्वलित हो गई थी? क्या हुआ था ये तो पता नहीं . . . पर उनकी आप-बीती की लपटों में आनंदी बेतहाशा झुलस गई थी . . . बुरी तरह। 

♦    ♦    ♦

वे बोल रही थीं, “उस रात बाहर अँधेरा था . . .घना अँधेरा . . . बहुत देर हो गई थी। मैं सो न पाई थी। बरामदे में चक्कर काट रही थी। बाहर स्ट्रीट लाइट गुल थी न इसलिए। कार की हेड लाइट आते ही मैं सतर्क हो गई थी। दरबान ने दरवाज़ा खोला। कार अंदर आई। रोशनी थी अंदर। देखा . . . वे उतरे, साथ में निर्मला भी उतरी। मैं हैरान। आज इस समय वे उसे यहाँ क्यों लाए? उसे नीचे ड्राइंग रूम में बिठा वे मेरे कमरे में आए। आकर पलंग पर बैठ गए। 

“‘शांता! सुनो,’ उन्होंने अपराधी की तरह नज़रें झुकाकर धीरे से कहा, ‘मैंने तुम्हें बताया था न कि मुझे क़र्ज़ा चुकाने के लिए निर्मला के भाई की मदद चाहिए थी। और उसी कारण आज मुझे . . . समझो प्लीज़ . . . उसके भाई की माँग थी। ये तुम जानती हो कि मैं कितना डूब चुका हूँ और मेरे पास कोई विकल्प न था। प्लीज़ . . . मैं तुम्हें कैसे बताता ये सब . . . केवल हाथ जोड़ प्रार्थना कर सकता हूँ कि तुम विशाल मन से उसका स्वागत करो। मैं वचन देता हूँ तुम्हें . . .’ 

“आगे मुझे कुछ सुनाई न दिया। जो न सुनना था वह सुन चुकी थी। अब आगे वे क्या बोल रहे थे पता नहीं। मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में आरियाँ चलने लगीं। लगा सैंकड़ों रेलगाड़ियाँ तेज़ आवाज़ करती मेरे ऊपर से गुज़र जा रही हैं। मस्तिष्क सुन्न . . . कान बज रहे थे। शरीर जल रहा था। कुछ समझ न आ रहा था। अचानक आकाश का ध्यान आया। आकाश . . . हाँ . . . आकाश को बताना था। वह होस्टल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। मैं चुप जड़वत बैठी हुई थी। फफक-फफक कर रोना चाहती थी . . . चीखना चिल्लाना चाहती थी पर मुँह से कुछ न निकला केवल सिसकारी के। पाँव धरती से चिपक गए थे। चाह कर भी उठ न सकी। वे उठे . . . पास आए . . . मुझे झकझोरा। मैं होश में आई, उठी। तेज़ी से उन्हें अपने से अलग कर दिया। झटककर कमरे से बाहर निकल अपने कमरे में चली गई। अटैची निकाली। भागना था इस नरक से . . . मुक्ति चाहिए थी इस देवता से . . . पति परमेसर से। कितना चाहा . . . टूट कर चाहा . . . क्या-क्या न किया था मैंने? सब कुछ उन्हें समर्पित कर दिया था न? कभी कोई फ़रमाइश नहीं की तो आज यह क्यों? वो तो भगवान का शुक्र था कि पिछले सप्ताह ननंद की लड़की का ब्याह हुआ था। मेरे गहने बैंक से निकाल कर घर में रखे थे। सब समेट लिए, . . . कपड़े भी। पेटी पकड़ तेज़ी से सीढ़ियाँ उतरी और नीचे आई। मुझे देख निर्मला उठ खड़ी हो गई। वे उसे कुछ समझा रहे थे . . . मुझे कुछ न सूझा . . . बस भाई के पास जाना था . . .। तीन भाइयों में मैं इकलौती बहन . . . दो भाइयों ने पहले ही पत्ता काट लिया था। तीसरा हमेशा मेरा हितचिंतक . . . मेरी मदद को रहता था। 

ड्राइवर घर जाने की तैयारी कर रहा था। उसे रोककर मैं गाड़ी में बैठ गई। उन्होंने नहीं पुकारा। वे शायद जानते थे कि मैं कहाँ जा रही हूँ।” 

“घर छोड़़ दिया? बेटे को फोन नहीं किया?” आनंदी की कँपकँपी छूट रही थी। शांता दी ने न जवाब दिया न उसकी ओर देखा। वे बोलती चली गई अपनी रौ में। 

“भैया के सिवा कुछ न सूझा। भाभी के बारे में भी न सोचा। सोचा था पहले यहाँ से निकल जाऊँ। तब हाथ के फोन न थे। बेटे को कैसे बताती और इतनी रात गए परेशान न होता? ड्राइवर भैया के घर छोड़ चला गया। अंदर गई। भैया भाभी सब सामान्य थे। मेरी पेटी देखी और चुपचाप देखते रहे। न गले लगाया न ही परेशान हुए। उन्हें मेरे आने की सूचना शायद पहले ही मिल चुकी थी। 

“‘भैया . . . मैं . . .’ आगे कुछ कह न पाई।”

“‘अभी आराम करो . . . सुबह बात करेंगे,’ भैया इतना ही बोले और भाभी मुँह दूसरी ओर किए अंदर चली गई। 

“‘क्या नहीं पूछेंगे क्या हुआ?’ मैंने लगभग चीखते भाभी को रोकना चाहा पर भैया ने इशारे से मना कर दिया तो सहम कर रुक गई। 

“‘नहीं। कल रामानंद मिले थे। सब बताया था उन्होंने। तुम्हें भी उनकी परेशानी समझनी चाहिए शांता। वे तुम्हें और आकाश को किसी प्रकार की कमी न आने देंगे। तुमने जल्दबाज़ी की। मैं सुबह उनसे बात करूँगा। अब सो जाओ।’ 

“इतना कहकर भैया भी उठकर अंदर सोने चले गए। 

“तीन लड़कियों के रिटायर्ड पिता। दो को ब्याह चुके थे तीसरी अविवाहित थी। छोटा-सा घर, दो कमरे थे घर में। एक में वे सोते थे दूसरे में उनकी बेटी। वो सो चुकी थी। मुझे अंदर सोने को भी न कहा। 

“मैं अवाक्‌ रह गई। तो इन्हें सब मालूम है और मुझे समझाया जा रहा है? पीड़ित को ही अपराधी बना दिया गया इनकी नज़रों में? मेरा सर घूम रहा था। चक्कर से आ रहे थे। लगा पछाड़ खाकर गिर जाऊँगी। 

“वहीं बाहर सोफ़े पर ही लेट गई। कान अंदर ही लगे थे। भैया के कमरे के परदे से छन कर आती आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। 

“भाभी कह रही, ‘सुनो कल जाकर दीदी को छोड़़ आओगे न?’ 

“‘हाँ और क्या करूँ?’ 

“‘और वे जाने से मना कर दे तो?’ 

“‘तुम मनाना उन्हें। यहाँ तो हम न रख सकेंगे,’ भैया की आवाज़ काफ़ी संतुलित थी भाभी से बात करते हुए। वे कभी उससे ऊँची आवाज़ में बात न करते थे। 

“‘सही कहा,‘ भाभी गरजी . . . जानती थी कि बाहर तक आवाज़ जा रही है और मैं सुन रही हूँ। 

“‘वो कमली जी हैं न, अपने शर्मा की बीबी, उन्होंने अपनी सास को गुरुजी के आश्रम भेज दिया है . . . सब मुफ़्त है वहाँ बेसहारा वृद्धाओं के लिए . . . अगर घर न जाना चाहे तो वहाँ प्रबंध कर दीजिए . . . हम तो न रख पाएँगे . . .। शहर से दूर स्वामी जी का आश्रम है . . .। चाहो तो जैसा कि रामानंद जी कह रहे थे रख रखाव भी दिया जा सकता है न . . . बस यहाँ न रहे इतना देख लेना आप . . . ।’ 

“‘भाभी मैं वहाँ चली जाऊँगी,’ मैं भागती तुरंत अंदर चली आई थी बिना सोचे समझे: ‘वहाँ बस उस घर न भेजना . . . हाँ . . . हाँ . . . चली जाऊँगी बस . . . वहाँ नहीं रहूँगी,’ वे दोनों निष्पलक देखते रहे मुझे . . . बस। 

“रात सब आराम से सोये सिवाय मेरे।” 

शांता दी के सर्द काले होंठों पर विषैली मुस्कान आ गई थी। लाल-लाल आँखों में ख़ून उभर आ गया था . . . बुरी तरह हाँफ रही थी वे। पिचके हुए गालों की हड्डी सूखे पत्ते की तरह खड़खड़ा रही थी। अपनी हथेली से माथे को वे कूटे जा रही थी ज़ोर-ज़ोर से। चेहरे की कालिमा गाढ़ी होती जा रही थी। खोपड़़ी से चिपके रूखे सफ़ेद बाल माथे पर बिखर आए। ख़ून जम कर डरावना हो गया था चेहरा। उसे लगा जैसे वे जीवित मनुष्य नहीं, कोई अकड़ी हुई लाश उसके सामने बैठी बोल रही हो। 

धक्क से रह गई थी वो। आज उस घायल शेरनी को देख उसे डर लगने लगा था। फिर कुछ पल में संयत होकर उन्होंने पल्लू से मुँह पोंछा, बाल पीछे किए और फिर बोलने लगी पर नज़रें सामने की दीवार पर गड़ाए रही। कुछ ढूँढ़ रही थीं वे नज़रें . . . शायद अपना बीता कल . . . या किसी और को? किसको? वे ही जाने। 

“सुबह होते ही मैं निकल गई थी आश्रम के लिए . . .। कितना समय हो गया यहाँ रहते पता नहीं . . . तभी से यहीं पड़ी हूँ। यहाँ आने से पहले गहने भावज को दे दिए थे। सोचा, बेटे को तो वे नहीं छोड़ेंगे . . . वो तो उनका अपना ख़ून है . . . हाँ शादी में मैं गहने दे दूँगी . . . उससे बात हुई थी . . . आकाश से। उसने ढ़ाँढ़स दिया था। दो साल प्रतीक्षा करने को कहा था उसने ताकि वो अपने पैरों पर खड़ा हो जाए तो मुझे यहाँ से निकाल अपने पास रख सके। पर मुश्किल से एक आध-महीना ही हुआ था . . . चल बसा आकाश . . . दुनिया छोड़कर . . . मुझे छोड़कर . . . एक्सीडेंट में . . . ।” 

“नहीं,” चीख निकल आई थी उसकी और उसे रोकने के प्रयत्न में कसकर अपनी बायीं हथेली से दबा लिया था उसने होंठों को। जबड़ा हथेली का आघात न सह पाया। दर्द से काँपने लगा। दाँत कटकटाने लगे कँपकँपी से। ठंडी लहर दौड़ गई रीढ़ की हड्डी में। दाएँ हाथ में पकड़ा हुआ पानी का गिलास छन्न से नीचे गिरा गोल-गोल चक्कर काटता हुआ कोने में लुढ़क गया था . . . स्टील का था . . . टूटा नहीं . . . आघात सह गया। काँप रही थी वह . . . सीने में साँप की तरह कुलबुलाता दर्द फाँदकर गले में आकर अटक गया था . . . भयंकर पीड़ा गले में, वह अपना गला कसकर मरोड़ रही थी दोनों हाथों से . . . दबाव बढ़ता जा रहा था। उसे लगा . . . अच्छा हो अगर उठकर भागना शुरू कर दे . . . गला फाड़कर चीखती चिल्लाती हुई भाग जाए कहीं पर अँधेरे में ताकि ग़ुबार बाहर निकल ले . . .। पर आश्चर्य! उठ भी न पाई। अविश्वास भय और आतंक उसकी आँखों से पानी बन कर बहने लगे थे अप्रयास। लेकिन शांता दी . . . वो तो निश्चेष्ट भाव और निर्लिप्त आँखों से देखती रही नीचे लुढ़के गिलास को और फ़र्श पर फैले पानी को . . .। 


वे बोलती चली गई बिना किसी रुकावट के, “बेटे के बिछोह ने पागल कर दिया . . . मैं पागल हो गई थी। कुछ महीनों तक होश न रहा था। भैया ने मेरे उपचार में सारे गहने बेच कर पैसा पानी की तरह बहाया। पता नहीं क्यों बचाया मुझे? यह अभिशप्त जीवन को जीने की ख़ातिर? श्राप झेलने के लिए?।” 

 रूखे पपड़़िया होंठों पर विषैली हँसी नाच गई। 

“ये तो मुझे कई साल बाद पता चला कि निर्मला के भाइयों ने ही मेरे आकाश की जान ले ली थी। भैया ने बताया था। वह भी संतानवती हो गई थी। आख़िर व्यापार चल निकला था और . . . कबाब में हड्डी . . . वह जायदाद में भागीदार न चाहती थी। तभी मेरे लाल को छीन लिया उसने . . . हाँ . . . और वे जानते थे इस बात को। उन्हें भी समझ आई . . . लेकिन अपने अंत समय में। उन लोगों के दुर्व्यवहार से उन्हें सब समझ आ गया था। लेकिन तब तक सब हाथ से छूट गया था। गंभीर बीमारी में यहाँ मेरे पास आए थे। निर्मला और बच्चों ने उन्हें घर से ही भगा दिया था . . . सब काग़ज़ात लिखवा कर . . . सब अपने नाम करवा कर . . .। 

“उसका एक भाई बहुत समझदार था . . . बड़ा कामवाला . . . क़ानूनी दाँव-पेच की बड़ी समझ थी उसे। पता नहीं . . . पर सब हो गया था। भैया ने ही बताया था . . . वे जब मेरे पास आए थे तो गंभीर बीमार . . . लीवर ख़राब हो गया था। पेट फूल कर पानी भर गया था। यहाँ मैं कैसे रख सकती थी? निर्मला और बच्चों ने छोड़ दिया था उन्हें या, . . . ऊब कर वे ही निकल आए थे अंतिम समय में मेरे पास।” 

“फिर?” आनंदी की हालत ख़राब हो रही थी। आँतें सिकुड़ गई थी और असहनीय दर्द, लगा, उलटी हो जाए और अंदर का अभी तक जमा हुआ यह सारा विष बाहर आ जाए तो जान बचे . . .

“मैं ले गई . . . सरकारी अस्पताल में . . . भाई को बुलाया . . . दाख़िल किया . . . रोज़ जाती थी वहीं . . . सुबह-सुबह . . . वहीं रहती थी पूरा-पूरा दिन। उन्हें देखती . . .” 

“बस करो दीदी . . . बस करो।” दोनों हथेलियों से बंद कर लिया था उसने अपने कानों को। “उफ्फ! आप ने उन्हें माफ़ कर दिया शांता दी? साँप की तरह जिसने अपनी औलाद को डस लिया . . . उसे? और आपका जीवन? कुछ मूल्य उसका आपकी नज़रों में? क्या साबित करना चाहती है आप कि लोग आपको देवी कहें? मैं तो हाड़-मांस की इंसान भी समझना नहीं चाहती आपको? कायर हो आप बस कायर . . .।” 

आनंदी चीख–चीख कर कहना चाहती थी पर मुँह से एक शब्द न निकला। फड़फड़ाते नथुने और काँपते होंठ बोलने का प्रयत्न करते रहे . . . लपटें निकल आई मुँह पर आई वितृष्णा से। 

“मैं रोज़ पता है क्यों अस्पताल जाती थी . . .?” शायद शांता दी ने उसके वो अनकहे शब्द सुन लिए थे। “मेरे लिए तो वे उसी दिन मर गए थे जब शादी के तीस साल बाद मुझे छोड़ उन्होंने निर्मला को अपनी जीवन संगिनी बना लिया था। मैं तो उनका शरीर मरते हुए देख रही थी . . . तिल-तिल घुटते, बूँद-बूँद घुलते, धीरे-धीरे मरते देख रही थी।” 

उनकी नज़र अब आनंदी पर ठिठक गई। इतनी देर बाद अब दीदी पहली बार उससे आँख से आँख़ मिलाकर बोलने लगी थी। 

“वे मेरे सामने पलंग पर लेटे रहते निरीह, निस्सहाय, आँसू बहाते रहते। पहले तो मैं समझी दर्द के कारण रो रहे हैं। फिर डॉक्टर ने बताया कि मोर्फ़िन का इंजेक्शन दिए जाने के कारण दर्द उन्हें महसूस नहीं होता। तो फिर आँसू? और मेरी ओर देखकर? समझ आ भी रहा था मुझे और नहीं भी। मुझे देखते ही उनकी हथेलियाँ जुड़ जातीं और माफ़ी की भीख माँगते फूट-फूट कर रोते रहते . . . बिना रुके . . . चौबीसों घंटे . . . पर मैं . . . जितना सम्भव था सेवा की उनकी . . . बिना किसी प्रश्न के। पता है आनंदी . . . कभी–कभी अपने ये संस्कार, आदर्श ही हमारे शत्रु बन जाते है जिन्हें हम चाह कर भी लाँघ नहीं पाते और ये आजीवन पीछा नहीं छोड़ते। सज़ा तो उन्हें भी अब मिल रही थी तो क्या द्वेष और क्या वैर? की सेवा उनकी बस।” 

वे रुकीं, होंठों को तर किया जीभ फेरकर, “पता है,” अचानक चमक आ गई थी उन आँखों में, “जब मैं घर आती रात को, तो उन दस दिनों में मैंने नींद की एक भी गोली न खाई . . . पता नहीं कैसे बड़ी अच्छी नींद आती थी। पता नहीं क्यों? उन्हें रोते देख न दुःख होता न ख़ुशी . . . न शिकायत . . . न प्यार। पर हाँ मन शांत अवश्य हो जाता था। लगता शायद अपने पाप उन्होंने उन दस दिनों में धो डाल दिए थे . . .। और दस दिन बाद वह शरीर चल बसा। निर्मला आई थी . . . उसका भाई भी और बेटे भी . . .। मेरे पास आकर निर्मला ने तेहरवीं पर बुलाया मुझे . . . मैं न गई . . . सब ख़त्म हो गया था . . . तो क्या बचा . . .? क्या करने जाती?” 

कहानी ख़त्म कर वे चुप अपलक उसकी ओर देख रहीं थीं बुत बनी, भावहीन, निस्तेज। अब तो आनंदी की पुतलियाँ भी ठहर चुकी थी। बंद होना कबके भूल चुके थे होंठ। सब दर्द कपूर की तरह उड़ गए थे। ढीली पड़ चुकी थी नसें। सब उत्तर मिल गए थे। कोई अनुत्तरित प्रश्न छोड़ा ही नहीं था शांता जी ने। स्वयं से उनका मौन प्रतिकार समझ आ रहा था। अब तो कुछ था उन दोनों के दरमियान तो वह थी क्षुब्ध शान्ति . . . हाँ . . . श्मशान की-सी भयंकर शान्ति। 

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खाने की बेल बजी पर दोनों में से कोई न उठा। दोनों के शरीर ऐंठ गए थे। न आनंदी ने कुछ कहा, न वे कुछ बोली उसके बाद। वह देखती रही उस सधवा के बिछुओं में बँधे घुँघरुओं को, माँग के सिंदूर की उन भभकती लपटों को, पलक झपके बिना। पता ही न चला उसे वे कब उठी और कब अपने कमरे की ओर चली गई थी। 

सो न पाई थी आनंदी उस रात। सोचती रही कोई कितना सह सकता है? कितना आसान था उस पुरुष के लिए रोकर अपने पाप धो लेना? और दीदी . . . दीदी का पूरी उम्र बिना अपराध के सज़ा काटना? अपना जीवन जिस व्यक्ति को समर्पित कर दिया था उसी के द्वारा छला जाना? अपनी संतान को खोने का दुख कितना मर्मांतक . . . उफ़! कौन थी शांता दी? इंसान या भगवान? भगवान भी टूट जाए इतना सहकर तो . . .

“आनंदी दी . . .” किसी ने आवाज़ दी तो विचार तंद्रा टूटी। पीछे मुड़कर देखा। वहाँ दूर बरामदे से इशारा कर रही थी कमला; हाथ झुलाती ख़बर दे रही थी शांता दी के जाने की। 

दिल एक दम से धक्क से रह गया। शांता दीदी को सब दर्दों से मुक्ति मिल गई? सोच कर सीने में मीठी टीस सी उठी। चलो, प्रतीक्षा समाप्त हुई। एक अनिर्वचनीय सुकून . . . जैसे बहुत बड़ी गाँठ खुल गई हो। पर गालों पर नमी महसूस हुई। हथेली से गाल छुए तो पता चला पानी बह रहा है आँख से। पता ही न चला कि कबसे बह रहे थे। आँसू थे न इसीलिए बिना अनुमति बहने लगे थे। वे कहाँ किसी दूसरे के दर्द को महसूस करते है? वे तो अपना दर्द ही बयान करते है . . . बह निकले। हलकापन महसूस हुआ, जमा हुआ दर्द पानी बन बाहर निकल गया जब। 

एक लंबी साँस ले वे उठी और पाँव घसीटते चल पड़ीं अंतिम दर्शन को, पर पहले अपने कमरे की ओर . . . सिंदूर और फूल लेने . . . श्रद्धांजलि जो देनी थी “उस सधवा को, उस देवी को।” 

गुरुजी आए। मुँह में गंगा जल की बूँदें टपकाईं, आश्रमवासियों ने विदाई दी और बिना विलम्ब किए रात को ही सब तैयारियाँ कर भेज दिया गया शांता जी को। किसका इंतज़ार था? और आश्रम में समय नहीं देखा जाता। आख़िर और भी कई वृद्ध साँसें थी जिनका ख़्याल रखना मजबूरी थी उन लोगों की। 

रात गहरा गई थी। हवा से हिलते पेड़ों की परछाइयाँ बड़ी भयानक लग रही थी। खिड़की से उसने बाहर झाँका। सामने शांता दी के कमरे में रोशनी थी। कमरे की सफ़ाई हो रही थी। सब धूल झाड़ कर फिर सँवारा जा रहा था। चादर लिहाफ़ तकिए सब नए रखे जा रहे थे। शायद कल फिर कोई एक निराश्रिता रहने के लिए आ रही थी। हाँ . . . एक और सताई हुई आत्मा। एक और नई कहानी . . .!

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