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अपराध बोध (डॉ. पद्मावती)

बात उन दिनों की है, संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात मेरी नई नई नौकरी लगी थी। राजपत्रित पद था अच्छी आय थी, सहायक प्राचार्य के रूप में हाल में ही राज्य सरकार द्वारा दूर-दराज गाँव में खोले गये महाविद्यालय में नियुक्ति हुई थी। चूँकि नौकरी स्थायी थी तो बड़े उत्साह से में ज्वाइन इन हो गयी थी। जगह बेहद ख़ूबसूरत थी, चारों ओर लहलहाते हरित्तमा की चादर ओढ़े खेत, शीतल शांत बहती हुई नहर, हरे-हरे खेतों में चुगते हुए सफ़ेद दूधिया सारसों की लंबी क़तार, दूर अलाव से उठती हुई धुएँ की पतली लकीर, और एक अनकही रहस्यमयी निस्तब्धता से घिरा हुआ पाँच सौ की भी आबादी से कम छोटा सा गाँव था या यूँ कहो क़स्बा था।

मैं अपने भाग्य पर बहुत ही इतरा रही थी। मकान मालकिन से मेरी घनिष्ठता हो गयी थी। मैं उन्हें आंटी कहती थी। अँग्रेज़ी भाषा की यही विशेषता मुझे भाती है हर रिश्ता आंटी कहलाता है। रिश्ते सभी आंटी शब्द में सिमट कर रह जाते है। रिश्तों के नाम ढूँढ़ने की जिरह से मुक्ति मिल जाती है। तो आंटी से मेरी आत्मीयता बढ़ने लगी थी। घटना उस वक़्त की है। शिवरात्रि का पर्व था, हम पूजा की तैयारी करने लगे। मंदिर गाँव के छोर पर एक श्मशान में स्थित था। पहले गाँवों में शिव मंदिर श्मशानों में ही हुआ करते थे। आज बस्तियाँ श्मशानों तक खिंच गई है, और श्मशान शहर के बीचोबीच अपनी शोभा बढ़ा रहे हैं। हम अभिषेक के लिए गंगाजल, गाय का दूध, विभूति, फल फूल माला इत्यादि सामग्री सहेजकर, पूजा के लिए मन में श्रद्धा का भाव जगाकर चल पड़े। छोटी सी कच्ची पगडंडी से होकर रास्ता सीधा मंदिर की ओर निकलता था। हम जैसे ही कच्ची सड़क पर आये, सर पर घड़ा उठाए। मुख को पल्लू से ढाँपे, पड़ोस की नौकरानी के दर्शन हुए। अचानक आंटी का हाथ मेरे हाथ पर कस गया और वे मुझे तेज़ी से खींचते हुए वापस घर की ओर बढ़ने लगी। मैं यंत्रवत उनके पीछे-पीछे चली जा रही थी। घर लौटकर वे अंदर गयीं। पानी लायीं; ख़ुद पिया और मुझे पीने को कहा। मैं आश्चर्य चकित होकर पानी पी रही थी। पीने के बाद पूछा, “आंटी! ये क्या? हम वापस क्यों आ गये? और ये बिन प्यास पानी क्यों पिया जा रहा है?"

वे बोलीं, "क्या तुम नहीं जानती? वह नौकरानी जिसने हमारा रास्ता काटा, वह विधवा है और शुभ कार्य के लिए जाते समय विधवा का सामने आना अशुभ माना जाता है। अवश्य कुछ बुरा होगा।"

मैं सुन्न रह गयी। हतप्रभ हो गई। हाय! लगा किसी तेज़ धार ने मेरी आत्मा के टुकड़े-टुकड़े कर दिए हों। मैं अपनी ही नज़र में गिर गई। मेरी सारी शिक्षा, मेरा ज्ञान मेरी विद्वता मुँह चिढ़ाने लगी। इतना बड़ा पाप, इतना घोर अपराध मुझसे कैसे हो गया। उस बेचारी पर क्या बीती होगी? क्या सोचा होगा? क्या दोष था उसका? उसका पति शराबी था, पी-पी कर मर गया, जवान उम्र में उसे विधवा बना गया, दर दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ गया। मुश्किल से बाईस की रही होगी, जवान विधवा, आगे पहाड़ जैसी ज़िंदगी। घरों में काम कर पेट भर रही थी, उस पर यह निर्दयी व्यवहार! गाँव वालों की समझ तो सीमित और दकियानूसी थी ही लेकिन शहरी पढ़ी-लिखी तथाकथित आधुनिकता का लिबास ओढ़े हम जैसी महिलाओं से भी क्या उसे इसी व्यवहार की अपेक्षा थी? नहीं नहीं! उसका अज्ञान उसका अंधकार। उसका अनपढ़ होना, उसके लिए वरदान थे। उसकी बुद्धि ऐसे विचारों को सोचने की धृष्टता कभी नहीं कर सकती थी। सोचकर मुझे सुकून मिला। बोझ हल्का हुआ। अगले दिन वह हँसती हुई मेरे सामने आयी। मीठी सरल मुस्कान! बड़ी ही सहजता से उसने मुझे माफ़ कर दिया। उसका यह अनपेक्षित व्यवहार मेरे बोझ को और गहराता चला गया। अच्छा होता वह आती, रोती, सवाल पूछती, एक दो गालियाँ सुना देती। अपने मन की भड़ास निकाल लेती और मुझे हल्का कर देती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस व्यवहार की वह अभ्यस्त हो चुकी थी। अपनी स्निग्ध मुस्कान से मुझे उसने कुछ ही पलों में माफ़ कर दिया था और मैं आज अठारह वर्षों के बाद भी उस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पायी हूँ।

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