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अनचाही बेटी

दो वर्ष पूरा होने में अभी तिरपन दिन अथवा पौने दो महीने बाक़ी ही थे कि माता की गोद में एक शिशु आगमन हो चुका था। यह उम्र और अवस्था बच्चे के लिए तो बिलकुल भी नहीं होती कि उसकी स्मृतियों में सुरक्षित बचे, किन्तु बड़ों से सुन-सुनकर वह पल उसके मानस-तंत्रिकाओं में रचा-बसा है ज्यों उसके पास एक-एक क्षण का प्रत्येक दृश्य-बिंब साक्ष्य रूप में उपलब्ध है। लगभग एक सप्ताह, नवजात के आगमन पूर्व ही माता से दूरी बना दी गई थी ताकि सहजता से वह अन्य लोगों के संपर्क और सान्निध्य में रह सके। संध्या के चार बजे किसी तरह दरवाज़े के फाँके से माता का मुखड़ा दिखाई दिया था और इस अप्रत्याशित विलगाव के मध्य बेटी आतुरता में दौड़ पड़ी थी अनियंत्रित होकर रोते हुए माता के सामीप्य के लिए। पर, अकस्मात् ये क्या? चौखट के अंदर से ही सद्यप्रसूता माँ ने नाड़-पुरईन समेत नवजात शिशु को लिए अपने हाथों में, दौड़ कर आतुर बेटी के समक्ष रख कर अपना बचाव या कहा जाए तो एक लक्ष्मण-रेखा खींच दी थी। वह अबूझ बच्ची भयवश चीखने के साथ “बुई” कहती हुई चौखट के बाहर से ही उलटे पाँव लौट पड़ी थी। डरावनी किसी वस्तु के समान मान कर, अपनी अनुजा की पहली स्मृति रूप में है। बड़ी बेटी का पालन-पोषण लड़की वाले कपड़ों में हो रहा था तो दूसरी की लड़के वाले कपड़े में। माता ने समझा दिया था कि यही भाई है और वह समझ कर संतुष्ट भी थी तीन-साढ़े तीन वर्ष की अवस्था तक। रक्षाबंधन पर्व पर किसी सम-वयस्क या कुछ बड़ी होगी। बच्ची ने पूछा, “मैं तो अपने भाई को राखी बाँधूँगी पर तुम किसे राखी बाँधोगी?”

बड़ी सहजता से प्रत्युत्तर में कहा, “मैं भी अपने भाई को बाँधूँगी।” 

“तुम्हारा भाई तो है ही नहीं।” 

“है ना मुझसे छोटा।” 

“अरे बुद्धू वह तुम्हारा भाई नहीं। वह तो बहन है बहन! समझी . . .?” 

“वह कैसे?” 

ब्रह्म-ज्ञान देते हुए उस बच्ची ने इस भोलेपन पर समझाते हुए, नग्न अवस्था में खेलते हुए किसी नन्हे बच्चे को दिखाकर लड़का-लड़की का लैंगिक तुलनात्मक विभेद समझाया, “वह देखो उसका . . . और मेरे भाई का एक जैसा है मतलब वह दोनों लड़के हैं। तुम्हारी और तुम्हारी बहन की एक जैसी है यानी तुम दोनों लड़की हो।” 

बच्ची बड़ी असमंजस में सच कौन बोल रहा? उसकी माँ या वह बच्ची? अभी उधेड़बुन में लगी हुई थी कि छोटी बहन ने पेशाब कर दिया और उसके सामने ही माता गीले कपड़े उतार कर साफ़ कपड़ा बदलने लगी। तभी बेटी अपनी जिज्ञासाओं को समेटती हुई बोली, “अरे यह भी तो मेरी तरह ही लड़की है। मैं समझ गई। मैं समझ गई। पर, अब राखी किसे बाँधूँगी . . .?” विकट समस्या उत्पन्न थी उस बाल मनोविज्ञान में। 

राखी बाँधने के लिए तत्काल भाई नामक खिलौने की अनिवार्य आवश्यकता थी। मतलब “जल्दी से जल्दी मुझे भाई चाहिए” की रट लगा चुकी थी। उस ज़िद में अपने पिता की मुँह-नाक तक नोंच डाला था परिणामत: पिटाई भी हुई थी इस ज़िद पर। 

पिता को जिसका अफ़सोस वर्षों तक रहा था। 

पारिवारिक सोच की निकृष्टता का इससे अच्छा उदाहरण और क्या होगा कि मात्र दो बेटियों के रहते ही निपूत घोषित कर पैतृक सम्पत्ति के अधिकार से वंचित रखने की सोच गोतिया में पनप चुकी थी। वो तो अलग बात हुई कि समय ने ऐसा किया, वहाँ भी यही स्थिति रह गई। 

सामाजिक जीवन से जुड़ी अड़ोस-पड़ोस, टोले-मुहल्ले, रिश्ते-नाते में सभी की बातें सुन-सुन कर बाल-मनोवृत्ति में बैठ गई थीं, “भाई-भाई-स़िर्फ और स़िर्फ भाई अब होने चाहिएँ हमारे पास”। दो बेटियाँ पहले से ही हैं इसलिए अब तो एक बेटा परमावश्यक है। 

इकलौते बेटे के पिता, ससुर की क़सम में बहू बँधी है कि पोते का मुँह दिखाए बिना परिवार-नियोजन का ऑपरेशन नहीं कराएगी। साढ़े तीन साल बाद परिणामस्वरूप दो बेटियों के उपरांत फिर से तीसरी बेटी, अस्पताल से सद्यजात बच्चे को गोद में लिए माता लौटी है। सुबह के नौ-दस बजे दोनों बेटियाँ दरवाज़े पर खेलते मिल गईं और प्रश्न दागा, “क्या लाई हैं हमारे लिए-भाई या बहन?” माता ने एक पल को सोचा और फिर मुसकुराती हुई सच-सच बता दिया कि गोद में उनकी बहन है। 

ईश्वर प्रेरणा या जाने क्या कुछ? सुनकर बड़ी तो संतुष्ट हो गई संभवतः भूल गई थी कि कभी भाई के लिए अपने पिता का नाक-मुँह नोच चुकी है। कोई बात नहीं अगली बार भाई आ जाएगा। बड़ी ने ज़्यादा बुद्धि-दिमाग़ तो नहीं लगाया, पर छोटी ने कहा, “क्या माँ जब अस्पताल जाती हो बेटी ही उठा लाती हो। ये ना कि एक भाई उठा लाओ।” फिर पिता की तरफ़ मुड़ कर बोली, “पिता जी अगली बार माँ लड़की लाई तो दरवाज़ा बंद कर लेना, और इन्हें बाहर भगा देना।” 

बेटी की बात सुनकर पिता ने कहा, “यदि इन्हें बाहर भगा दिया तो खाना कौन बनाएगा हमारे लिए? हमारे कपड़े कौन साफ़ करेगा? घर का सारा काम कौन करेगा?” 

बेटी ने झट से कहा, “आप।" 

इन प्रश्नों और तात्पर्य के लिए बेटी की बात सुनकर माँ तो तैयार बिलकुल नहीं थी इसलिए कुछ क्षण लगे विचारने में, अश्रुपूरित माँ ने कहा, “तुम्हारी गुल्लक के पैसे से बस यही मिल पाई। और पैसे इकट्ठे करो तो ज़्यादा पैसों से अगली बार भाई ही आएगा।” 

साढ़े पाँच और साढ़े तीन साल की बेटियों की सोच में, माँ उनके गुल्लक के पैसे से ही अस्पताल से बच्चे ख़रीद कर लाएगी। दोनों बहनें प्यारी सी नन्ही बहन की मुखड़े को देखकर संतुष्ट हो गईं। 

बात आई और चली भी गई बाल मनो-मस्तिष्क से, किन्तु बड़ों के दिमाग़ में स्थायी प्रभाव डाल गई थी। जिसके कारण अगली बार पुनः गर्भधारण करने पर बच्चे के जन्म से पहले ही, जिस बच्ची ने बेटी घर लाने पर माँ को बाहर भगाने की बात कही थी, सुनकर उस बच्ची के मामा, उसे लेकर ननिहाल चले गए। स्त्री-पुरुष गुणसूत्रों का विज्ञान या ईश्वरीय इच्छा दो साल बाद पुनः बेटी का आगमन सबके हृदय को बेधने वाला था। बावजूद नियति को सबने स्वीकार कर लिया। आज से बत्तीस साल पहले तक एक दंपती के चार-पाँच बच्चे सामान्य बात थी। अब तक जितनी भी बेटियाँ हुई थीं गोरी-चिट्टी और आकर्षक रूप-रंग वाली बिलकुल अपनी माँ की तरह बावजूद 'बेटियाँ' वह भी एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, चार-चार . . .? इस तरह चार बेटियों के बावजूद नौकरानी की तरह घरेलू-पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में समर्पित और सक्रिय माता को किसी पारिवारिक महोत्सव में उपस्थित होने से रोक दिया गया था कहकर “इतने बच्चों के साथ आने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्या करोगी आकर?”

अर्थात् लोगों की संवेदना में बहुत ही क्रूर मज़ाक प्रकृति और भाग्य द्वारा किया गया है। जिसे जान-बूझकर कर, कुरेद-कुरेद कर ज़बरदस्ती दिखाया एवं जताया जाता। लोगों की मनोदृष्टिगत वह अपमानित करने वाले भाव रहते जिन्हें सोच और समझ कर छह वर्ष से ही अनुभव में चैतन्य है। 

परिवार नियोजन ना अपनाने के कारण पुनः गर्भधारण . . . और फिर लोगों की प्रार्थना का प्रारंभ। कोई ज्योतिषीय गणना करता। कोई जहाँ-तहाँ मन्नतें माँगता और दृढ़ विश्वास से कहता इस बार तो बेटा ही है। दूर-दूर के नाते रिश्तेदारों सबके लिए नाक का प्रश्न बन गया था यह गर्भधारण। सभी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे प्रकृति के इस फ़ैसले का। पर सबसे विपरीत स्वयं गर्भिणी स्त्री आशंकित रहे कि कहीं इस बार भी लड़की ना हो जाए? 

अंततः वह दिन भी आया जब प्रसव वेदना के साथ किसी की क्रंदन ध्वनि गुंजित हुआ पर तूफ़ानी जिज्ञासा बेटी या बेटा . . .  लड़की या लड़का . . .? गाँव के मध्य रात्रि के अँधकार में लालटेन की मध्यम रोशनी में जननी और उसकी जेठानी ने डरते-डरते देखा—पुनः स्त्री जीवन का आगमन! बड़े घर के कोने वाले कमरे से घर के वयोवृद्ध मुखिया ने पूछा और सुनकर पस्त होकर बिछावन पर रजाई में उतनी ही तीव्रता से घुस गए ज्यों उनके लिए इस निरर्थक जीवन का कोई औचित्य या अस्तित्व ही नहीं। घर में अनेक सदस्यों की उपस्थिति के बावजूद कहीं कोई नहीं था फरवरी की रात ज्यों सबके बुद्धि-विवेक, आशा और उम्मीद को बर्फ़ की तरह जमा चुकी थी। 

एक छोटा सा कमरा यही कोई छह गुणे सात का या सात गुणे आठ का होगा। इससे बड़ा तो बिलकुल नहीं। उसी एक कमरे में अपने बच्चों के साथ माता गुज़ारा करने पर बाध्य थी। हाँ, तो जेठानी ने उसी कमरे में सोई प्रसूति माँ की साढ़े नौ वर्षीय बड़ी बेटी को जगाया और साथ चलने को कहा। अनुशासित आज्ञा-पूर्ति में चुपचाप वह उनके साथ लालटेन की रोशनी में गाँव के बाहर महराईन के दरवाज़े पर दस्तक देकर यथाशीघ्र साथ लेकर आईं। कंबल में ठंड से बचाव में तब-तक प्रसूति अपने बच्चे को किसी साफ़ कपड़े में लपेटे अपने सीने से लगाए हुए थी। बार-बार नवजात शिशु के बेटी होने से ज़्यादा उसके रूप-रंग पर विचार कर मुरझा रही थी। “हे ईश्वर ये क्या किया? बेटी दी तो दी। कोई बात नहीं। पर रूप-रंग भी देते प्रभु! यह ऐसा कैसे हो गई? बिलकुल 'बगड़ी' जैसी लगती है।” घर की कुरूप नौकरानी जो सुबह-सुबह ही सबसे पहले सामने आती थी। 

उसी कक्ष में अब एक लकड़ी की चौकी पर चार बेटियाँ और उस चौकी के पायताने से लगी दो गुणे चार फीट की खटोली पर किसी तरह माँ अपनी नवजात बेटी के साथ गुज़ारा कर रही थी। उस नवजात के जन्म का सही समय का ख़्याल किसी के दिमाग़ में आया ही नहीं। माँ ने जब तक ध्यान दिया था जाने कितने पल बीत चुके थे। बावजूद यूँ ही खानापूर्ति करते किसी तरह अंदाज़न राशि-नक्षत्र तय करवा दिया गया था। यह भी बहुत बड़ी बात थी। 

अब तक बुद्धि-विवेक में बुद्धु बालिका लैंगिक विभेद और उसकी मर्माहत करती भावना से परिचित हो चुकी थी। जिससे इस बच्ची की बेचारगी से बचाने के लिए यथासंभव प्रयास करती। 

"ऐ मेरी बहन नहीं यह भाई है। कोई इसे कुछ नहीं बोलेगा। कौन बोला . . .? क्या बोला . . .? सुरक्षा कवच रूप में तैयार रहने लगी थी। जन्म के अगले सप्ताह में सरस्वती पूजा थी तो घर के सभी सदस्य बाहर गए थे। माता को शौच लगी तो घर के दूसरे कोने में स्थित शौचालय में गई थी कुछ मिनट के लिए। वहीं चौकी के नीचे बोरसी रखी हुई थी जिसमें दबा हुई आग थी। किनारे में रजाई गिरते हुए बोरसी की आग में पहुँच चुकी थी। कपास की रूई और आग का सुलगना ठंड से बचाव के लिए बंद कमरे में विचित्र घुटन पैदा करने लगा था। उस घुटन में किनारे पर सोई बड़ी बच्ची ने खाँसती हुई माँ को आवाज़ दी। वहाँ से निवृत्त होकर हाथ-पैर साफ़ कर माँ दरवाज़ा खोल कर आग और धुएँ की उपस्थिति में अपने पाँचों बच्चों को देखकर कर सिहर उठी। धुक-धुक! धुक-धुक! ये क्या हो रहा भगवान! फिर अगले ही क्षण झट से आग लगी रजाई को लेकर बाहर भागी और उसे बुझाया। बोरसी बाहर की। दरवाज़े खोल कर छोड़े ताकि धुँआ बाहर निकल सके। पण्डित जी की भविष्यवाणी के अनुसार यह एक ग्रह घटित हुआ पर अभी और भी इसपर और पिता संग परिवार पर हैं। 

अख़बार में छपी ख़बर में कोई लड़की ऑपरेशन से लड़का रूप में परिवर्तित हुई पढ़ कर और सुन कर, सभी के सामने किसी संध्या पर, यह मेरा भाई है। मेरा भाई है कहती हुई बड़ी बहन शॉल में लिपटी एक सप्ताह-दस दिवस की नवजात शिशु को कंधे पर रख कर खेलाना चाहती थी तब-तक शॉल हाथ में और बच्ची धड़ाम से पछाड़ खाकर सिर के बल ज़मीन पर। अब-तब की स्थिति बच्ची और उसकी बड़ी बहन दोनों के लिए, कुछ समझ पाने में असमर्थ कि ये हुआ क्या और कैसे? ख़ैर ईश्वर कृपा से नवजात बच्ची कुछ देर में पुनः हरकत करने लगी। तब जाकर सबकी जान में जान आई। 

रिश्ते-नातों की सहानुभूति एवं दया का पात्र बनकर माता ने स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया था अपनी दीनता और हीनताबोध को। जिसे स्वीकारने में कहीं, कोई विरोध करने वालों में था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ बड़ी बहन जो रह-रह कर सबसे भिड़ने-लड़ने के लिए तैयार रहती। किसी की हिम्मत कैसे होगी? जो हमें बेचारी बनाए और जताए। 

कई बार उसने प्रश्न भी उठाया और यथासंभव विरोध भी दर्शाया था माता-पिता, नाते-रिश्तेदारों से। जो उसकी विनम्रता के बीच उद्द्ण्डता का परिचायक भी था। जो आज भी क़ायम है हर सीमा से परे। लोग क्या कहेंगे जैसी सोच से परे। सही हों या ग़लत हों, मेरी बहनें मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं। ना कि दुनिया समाज की झूठी औपचारिकताएँ। बहनों के लिए सबकुछ निर्भय, नि:संकोच, सहज-स्वीकार्य है। भाड़ में जाए दुनिया।

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