पिंजरे का पंछी
आलेख | चिन्तन पाण्डेय सरिता1 Dec 2021 (अंक: 194, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
औरत रूप में हमेशा यही उम्मीद की जाती है कि चाहे कुछ भी हो जाए वह हमेशा सहन करने के लिए तैयार रहेगी। चाहे प्यार हो या अत्याचार। बिना उफ़ किए अपने साथ हुए नफ़रत को भी मात्र ’गुडी-गुडी’ ही कहकर प्रस्तुत करेगी।
इसके लिए पारिवारिक और सामाजिक दबाव भरपूर डाला जाता है। घर की इज़्ज़त घर में ही रहे, इस नसीहत के साथ।
मैं सोचती हूँ—एक स्त्री रूप में प्रतिबंधित-अनुबंधित प्रेमचंद, क्या इतनी सहजता से 'गबन' और 'गोदान' जैसी रचनाएँ रच पाते? एक स्त्री रूप में कहीं वो पात्र आकर अपनी बदनामी का हर्जाना वसूली करने का भय दिखाकर, ब्लैकमेल करने लगे तो?
क्या शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय अपनी रचना 'देवदास' रच पाते? इस भय में जीकर कि कहीं कोई ज़मींदार आकर उनसे हर्जाना ना वसूल करने लगे?
प्राचीन काल से लेकर आज तक कितनी स्त्रियाँ, अपनी योग्यता और अपमान भूलकर, साड़ी-कपड़े और ज़ेवर-गहनों के भूल-भुलैयाँ में भटकती, पिंजरे का तोता ना रहकर, आज़ाद पंछी बन कर, आज भी सभ्य-सुशिक्षित समाज में अपने अस्तित्व के प्रति पूर्ण ईमानदारी से कड़वी सच्चाई प्रस्तुत करने में समर्थ हैं? इस बात की परवाह से परे निर्भय-निश्चिंत, सुरक्षा और सम्मानपूर्ण अधिकार के प्रति आश्वस्त हो सकती हैं भला? तलाक़ की धमकी देकर, कहीं उनके मान-स्वाभिमान की परवाह से परे, घर-परिवार से बेदख़ल कर निकाल ना दिया जाए?
यह एक यक्ष प्रश्न है। जो कल भी था, और आज भी है।
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शैली 2021/11/29 09:38 AM
यह पुरुषों का समाज है, यहाँ स्त्री को ऐसी सुविधा मात्र स्वप्न है,यह एक ज्वलन्त प्रश्न है, जिसकी जवाबदेही सारे समाज की है. अति सुन्दर अभिव्यक्ति