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अच्छाई

 

आम तौर पर हम किसी व्यक्ति में, वस्तु में, व्यवस्था में, सिद्धांत में, नियम में बुराइयाँ, कमियाँ अधिक देखते हैं; अच्छाइयों, विशेषताओं को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। वस्तुतः ऐसा हमारी मानसिक कमज़ोरी के कारण होता है। जब व्यक्ति लगातार विफलताओं का सामना करता है तो उसके मन में निराशा उद्भूत होती है, हर तरफ़ शंकायें, आशंकाएँ ही दिखने लगती हैं, परिणामतः मन कमज़ोर हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में कमज़ोर मन की नज़र व्यक्ति, वस्तु, व्यवस्था आदि में सबसे पहले कमियों पर ही पड़ती है, अच्छाई, सच्चाई की तरफ़ ध्यान जा ही नहीं पाता है। 

किसी मनुष्य विशेष को कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता; शीतल समीर गर्मी में प्रिय लगता है, जबकि सर्दी के मौसम में अप्रिय। स्पष्ट है कि कोई भी भाव, विचार, सिद्धान्त, नियम या व्यक्ति वस्तु जब अपने अनुकूल होते हैं तो प्रिय या अच्छे जबकि प्रतिकूल होने पर वही भाव अप्रिय लगते हैं। यही स्थिति अच्छे, बुरे की सोच में दिखती है। बुराई ढूँढ़ने की प्रवृत्ति में भी यही भाव अंतर्निहित होता है। 

कहा जाता है कि संसार में बुरा कम, अच्छा अधिक है। सत्य के बल पर ही मानवता टिकी हुई है। भारतीय वाङ्गमय में इसी सत्य, अच्छाई को पुष्ट करने के प्रयत्न सर्वत्र दिखते हैं। 
एक सुभाषित दृष्टव्य है:

“येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। 
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥”

 मनुष्य में जब यह गुण होंगे तो अच्छाई तो होगी ही। 

दूसरों के प्रति आचरण कैसा किया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में बहुत उत्तम कथन मिलता है:

“श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥”

कबीर तो स्पष्ट कहते हैं:

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, 
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।” 

आत्म चिंतन, आत्म परिष्कार से ही वह दृष्टि प्राप्त होती है, जब सब अच्छा लगने लगता है और व्यक्ति बुरे में बुराई देखना छोड़कर उसे अच्छाई में बदलने के लिए प्रयत्नशील हो उठता है। 

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