अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आर. बी. भण्डारकर – डायरी 005 : वानप्रस्थ

दिनांक 25 अप्रैल 2021

हमारे यहाँ कोरोना की दूसरी लहर काफ़ी ज़ोर मार रही है। पर शासन प्रशासन इस पर नियंत्रण के लिए अपने तईं मुस्तैद है। कोविड समस्या से राहत के उद्देश्य से ही हमारे प्रदेश में सरकारी कार्यालयों में जुलाई 21 तक, सप्ताह पाँच दिवसीय कर दिया गया है। अस्तु मास का चौथा शनिवार होने और रविवार का साप्ताहिक अवकाश, दो दिन की छुट्टी होने से बिटिया जी शुक्रवार शाम को ही ओम भैया जी को लेकर अपने घर चली गयी हैं। 

अपने घर को ओम भैया जी "मडी पडल हाउस" (Muddy Puddle House) कहते हैं। Merriam webster dictionary में "मडी पडल" का अर्थ लिखा है- "a small pool of dirty water usually left by a rain storm."

ओम भैया जी अपने घर को "मडी पडल हाउस" क्यों कहने लगे, इसकी भी एक रोचक कहानी है।

गत बरसात में बिटिया जी जब चार वर्षीय ओम भैया जी को पहली बार इस घर पर ले गईं थीं, तब बरसात के कारण इस घर के दरवाज़े के पास सड़क की स्थिति "मडी पडल" वाली ही थी। जब भैया जी लौट कर दादी (नानी) के पास आये तो दादी ने पूछा– "कहाँ गया था भैया, हम लोग यहाँ बोर हो रहे थे?" भैया जी बिना लाग-लपेट के बोले –"दादी मैं तो मम्मा के साथ ’मडी पडल हाउस’ गया था।" 

दादी भौंचक! "मडी पडल हाउस?"

बिटिया जी ज़ोर से हँसी; "आँ . . . मॉम!! दर असल अपने ओरेकल वाले घर के पास रोड पर बरसात से पानी, कीचड़ था, इसलिए ही यह उस घर को मडी पडल हाउस कह रहा है!! देखो तो इसको, घर का नाम ही मडी पडल हाउस कर दिया!!" 

हम लोग बच्चे की कल्पना शक्ति से, प्रत्युत्पन्नमति से गदगद! ओम भैया जी की दादी प्रफुल्लित होकर भैया जी को उठाकर गले लगा लेती हैं।

 

+ + + + + + +

 

आज मेरा एकाशना है। कुछ ही देर पहले संतरे का जूस लिया है; नाश्ते और दोपहर के भोजन की आज छुट्टी है; अब भोजन शाम को ही होगा।

ओम भैया जी ने अपने 'मडी पडल हाउस' से 'नाना हाउस' में वीडियो कॉल करने के लिए "गूगल मीट" तकनीक का प्रयोग किया जिससे वे तीन किमी दूर के 'नाना हाउस' से भी जुड़ लिये और लगभग 150 किमी दूर के 'मामा हाउस' में बैठी अपनी दीदियों-मिट्ठू जी और पीहू जी से भी जुड़ लिए। उनकी बुआ (मौसी) ने दादी (नानी) के बाद मुझसे भी बात करा दी, ओम भैया की भी और उनकी दोनों दीदियों की भी। विशेष बात यह कि इस तकनीक में मिट्ठू जी, पीहू जी और ओम भैया जी अपनी-अपनी पेंटिग्स भी एक दूसरे को दिखा देते हैं। . . . भई मुझे तो आनन्द आ गया। . . . वीडियो कॉल की इस तकनीक का शुक्रिया।

 

(मिट्ठू जी 9+वर्ष द्वारा चित्रित मंडल आर्ट)

पर्याप्त समय है, अस्तु आज की डायरी लिखने लगा हूँ। . . . एक समय था जब बच्चे छोटे थे, हम उनके और परिवार के पालक थे, संरक्षक थे; मार्गदर्शक थे, शिक्षक थे, गुरु थे। उनके और अपने मामलों के निर्णायक भी हमीं होते थे। समय आगे बढ़ा, अब हमारा स्थान इन बच्चों ने ले लिया है, उनके स्थान पर नई पीढ़ी आ गयी है। हाँ, अब अपने बारे में निर्णय करने के लिए युवाओं को काफ़ी स्वायत्तता मिल गयी है।

सोचता हूँ कि ऐसी अवस्था में अब हमारा काम क्या रह गया है? 

भारतीय चिंतन में जीवन के चार पड़ाव कहे गए हैं– बाल्यावस्था, युवावस्था, वानप्रस्थ अवस्था और वृद्धावस्था। इन्हीं अवस्थाओं को कार्य रूप देने के लिए चार आश्रम तय किये गए– ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। इसके बाद निर्वाण की, मोक्ष की अवस्था आती है।

तत्त्वज्ञों ने जीवन के चार उद्देश्य कहे हैं— धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मोक्ष क्या है? आत्म तत्व या ब्रह्म तत्व का साक्षात् करना ही मोक्ष है। षट्‌ दर्शन में इन पर विस्तार से विमर्श हुआ है। न्यायदर्शन में दुःख का आत्यंतिक नाश, सांख्य दर्शन में दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश, वेदान्त दर्शन में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध होना मोक्ष है। . . . मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यही जीवन का परम अभीष्ट (परम पुरुषार्थ) है।

अस्तु स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन में हमारा कार्य पहले से ही सुनिश्चित कर दिया गया। वानप्रस्थ की अवस्था, वानप्रस्थ आश्रम बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने की तैयारी का समय है। प्रथम अवस्था ऊर्जा संग्रहण के लिए थी तो दूसरी दायित्व निर्वहन के लिए; इन काल द्वय में हम "हम हमारा, तुम तुम्हारा" में लगे रहे। देव-दुर्लभ जीवन के शाश्वत लक्ष्य की ओर देखने का अवकाश न मिला। अब ध्यान आकृष्ट होना चाहिए कि इस संसारी मनुष्य के लिए तो अपूर्णताओं व मानवीय दुर्बलताओं को दूर कर पूर्णता प्राप्त करना ही उसका अंतिम जीवन-लक्ष्य है। (यहाँ इस सत्य को ध्यान में रखना है कि पूर्ण केवल परमात्मा है। पर मनुष्य जो "अहम् ब्रह्मास्मि" कहता है, उसमें इसी पूर्णता को सन्निहित मानना ठीक लगता है।)

पूर्णता प्राप्त करने के लिए या उस ओर प्रयाण करने के लिए तत्त्वज्ञों ने चार सोपान बताए हैं। "आत्म-निरीक्षण", "आत्म-शोधन", "आत्म-सुधार" एवं "आत्म विकास"। सर्वप्रथम आत्म चिंतन होना चाहिए तभी तो हमें अपनी अपूर्णताओं और दुर्बलताओं का ज्ञान हो सकेगा। चिंतन और मनन के माध्यम से "आत्म निरीक्षण" और "आत्म-समीक्षा" करने पर अपने दोष-दुर्गुण प्रकाश में आते हैं। आत्मदोष पहचानना फिर उन्हें स्वीकार करना काफ़ी कठिन काम है। यह मन मानस की निर्मलता का पहला क़दम है।

अब बारी आती है आत्म निरीक्षण में जो दोष, जो दुर्बलताएँ प्रकट हुई हैं और जिन अपूर्णताओं से साक्षात्कार हुआ है, उनमें शोधन करना, उनमें सुधार करना। जो दोष त्याज्य हैं, उन्हें त्यागना है, जो कमज़ोरियाँ दूर करने योग्य हैं, उन्हें दूर करना है तभी आत्म सुधार सम्भव है। यह करते समय कुछ दोषों को गुणों में परिवर्तित करने, कुछ दुर्बलताओं को शक्ति में बदलने की माँग भी सामने आ सकती है। यदि ऐसा है तो यह किया जाना अपरिहार्य है। ध्यान रखना है यह अत्यंत दुष्कर होता है। "आत्म शोधन" के लिए शरीरगत बुरी आदतों और मनोगत दुर्भावों से संघर्ष करके पुराने क्रम में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ता है। यही तप, तपस्या है। कबीर ने इसी की ओर संकेत किया है– "सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं।"

किसी पात्र में कुछ भरना है तो पहले उस पात्र का ख़ाली होना आवश्यक है। अभी तक हमने जो किया (उपरिवर्णित) वह 'ख़ाली होने" की प्रक्रिया ही है। अब कुछ भरना है। यहाँ इसी को "आत्म-विकास" कहा गया है। संत जन कहते हैं– शुद्ध भाव से, निस्पृह होकर लोकमंगल' में, सेवा-साधना में संलग्न रहना "आत्म-विकास" का सरल पथ है। हम अब तक निपट स्वार्थ के वशीभूत होकर, पूर्ण स्पृहा में आवेष्ठित होकर अपने प्रयोजन साधने में लगे रहे, अब इसे स्वार्थ से परमार्थ की ओर मोड़ना है; निज मंगल को लोक मंगल में तब्दील करना है। जब हम परमार्थ-प्रयोजन में आकंठ निमग्न होने लगेंगे तब हमारा जीवन-रथ आत्म विकास के पथ पर दौड़ने लगेगा। यह कठिन तो है पर यदि हम "स्व" की परिधि को व्यापक बना दें तो गाँठें धीरे-धीरे खुलती जायेंगी और हमारे लिए पूर्णता की दिशा में अग्रसर होने का मार्ग खुल जायेगा। वस्तुतः स्वार्थ संकीर्णता है जबकि परमार्थ का भाव परम् तत्त्व की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है। गुरु नानक देव कहते हैं– "राम दी चिड़िया राम दा खेत। चुग जा चिड़िया भर भर पेट।" . . . यह है उदात्तता, ईश्वरत्व।

हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे लिए रास्ता पहले से ही बना हुआ है, मंज़िल पर पहुँचने के लिए हमें केवल उस पर चलना है, आगे बढ़ना है। फिर बाधा क्या है . . . करें सार्थक वानप्रस्थ अवस्था को।

डायरी सामने है, क़लम पन्ने से तीन, चार इंच ऊपर . . . और मैं सोच में डूबा हूँ। . . . बाधाएँ क्या हैं – विकट सांसारिक माया मोह या आलस्य। . . . बहुतेरे होते हैं न, मुझे कुछ न करना पड़े, ऐसा भाव भी बाधा है। कुछ ऐसे होते हैं कि उनको रास्ता ही नहीं सूझता है।

पत्नी जी की आवाज़ ध्यान भंग करती है– "खाना कितनी देर से खाएँगे?"

ओह! पाँच बजे गए!! . . . हाँ, . . . गर्मियों में देर तक उजाला बना रहता है, सर्दियों में तो अब तक अँधेरा छाने लगता। ख़ैर . . . । फिर पत्नी जी की ओर मुख़ातिब होकर– "बस, कुछ ही देर में।"

इस किंचित व्यवधान के बाद मस्तिष्क पुनः पूर्व स्थिति पर आ जाता है। विचार आता है . . . अब इस अवस्था में माया-मोह क्यों? नहीं होना चाहिए माया मोह, इसे त्यागना ही है। . . . आलस्य! . . . आलस्य क्यों? जबकि कई बार पढ़ा है कि 'दैवेन देयमिति कापुरुषः वदन्ति।' दोनों बातें स्पष्ट हुई। अस्तु, अजमंजस क्यों? मार्ग तो तत्त्वज्ञ बता ही गए हैं . . .।

 . . . मन-मानस में एक प्रेरक निश्चय उतरता है। "जाके मन में अटक है सोई अटक रहा।" . . . अब अटक काहे की। अंतिम लक्ष्य पर बढ़ना ही श्रेयस्कर है। . . . जल्दी-जल्दी लिख डालता हूँ यह निश्चय।

आज की डायरी पूर्ण हुई। अब भोजन करने की बारी है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

01 - कनाडा सफ़र के अजब अनूठे रंग
|

8 अप्रैल 2003 उसके साथ बिताए पलों को मैंने…

02 - ओ.के. (o.k) की मार
|

10 अप्रैल 2003 अगले दिन सुबह बड़ी रुपहली…

03 - ऊँची दुकान फीका पकवान
|

10 अप्रैल 2003 हीथ्रो एयरपोर्ट पर जैसे ही…

04 - कनाडा एयरपोर्ट
|

10 अप्रैल 2003 कनाडा एयरपोर्ट पर बहू-बेटे…

टिप्पणियाँ

सुनीता सिंह 2021/06/02 02:48 PM

मिट्ठू जी का चित्र बहुत सुंदर है।ओम भैया की कल्पना शक्ति अद्भुत व सराहनीय है।लेखक ने उनका स्वाभाविक चित्रण किया है।वानप्रस्थ अवस्था क्या है, इसमे क्या करणीय होता है, इसका बड़ा ही आकर्षक, प्रेरक प्रस्तुतिकरण हुआ है।बधाई।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

चिन्तन

कहानी

लघुकथा

कविता - क्षणिका

बच्चों के मुख से

डायरी

कार्यक्रम रिपोर्ट

शोध निबन्ध

बाल साहित्य कविता

स्मृति लेख

किशोर साहित्य कहानी

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं