अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सदाचरण

 

आज के आपाधापी भरे जीवन में कदाचित मानव-कल्याण, परहित के भाव प्राथमिकता से कुछ दूर-से प्रतीत होने लगे हैं। यह प्राथमिक ही रहें, यह बहुत आवश्यक है। 

हमारे प्राचीन वाङ्गमय में ऋषियों, महर्षियों, संतों, महापुरुषों के ऐसे अनेक कथन उपलब्ध हैं जो मानव जीवन को सच्चे अर्थों में आदर्श बनाने के लिए प्रेरक हैं, मार्गदर्शक हैं। 

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:

“जननी सम जानहिं परनारी। 
धनु पराव बिष तें बिष भारी। 
 
जे हरषहिं पर सम्पत्ति देखी। 
दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।”

आशय यह कि मनुष्य के भाव हर प्रकार से सकारात्मक, परहित-चिंतन-परक होने चाहिए, इनसे विपरीत नकारात्मक भाव सर्वथा त्याज्य हैं। 

सत्संगति को गोस्वामी जी सब सुखों से ऊपर बताते हैं:

“तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। 
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।”

सत्संग क्यों आवश्यक है? कबीर जी इसे और भी, बहुत सरल भाव में समझाते हैं:

“कबीर संगति साधु की, निष्फल कबहुँ न होय। 
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय।” 

आशय यह कि संतों, महापुरुषों की संगत कभी निष्फल नहीं होती है। मलयगिरि पर चंदन होते हैं, इनकी सुगंध उड़कर वहाँ खड़े नीम के पेड़ को मिलती है तो वह भी चन्दन जैसा हो जाता है, फिर उसे कभी कोई नीम नहीं कहता। 

वे और भी स्पष्ट करते हैं:

“कबिरा संगत साधु की, ज्यों गन्धी की बास। 
जो कुछ गन्धी दे नहीं, तो भी बास सुबास।”

संत, महापुरुष अपने पास आने वाले को ज्ञान देते ही हैं पर न भी दें तो जैसे गन्धी (इत्र वाले) के पास रहने वाले को अनायास सुगन्ध मिलती रहती है; ठीक उसी प्रकार महापुरुषों से अनायास ही अच्छी बातें, अच्छे भाव मिलते ही रहते हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

25 वर्ष के अंतराल में एक और परिवर्तन
|

दोस्तो, जो बात मैं यहाँ कहने का प्रयास करने…

अच्छाई
|

  आम तौर पर हम किसी व्यक्ति में, वस्तु…

अनकहे शब्द
|

  अच्छे से अच्छे की कल्पना हर कोई करता…

अपना अपना स्वर्ग
|

क्या आपका भी स्वर्ग औरों के स्वर्ग से बिल्कुल…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

चिन्तन

कहानी

लघुकथा

कविता - क्षणिका

बच्चों के मुख से

डायरी

कार्यक्रम रिपोर्ट

शोध निबन्ध

बाल साहित्य कविता

स्मृति लेख

किशोर साहित्य कहानी

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं