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अनकहे शब्द

 

अच्छे से अच्छे की कल्पना हर कोई करता है, बुरे से बुरे को कभी कोई नहीं सोचता। शायद इसलिए, क्योंकि हर कोई अपने लिए ख़ुशी चाहता है। हर कोई दूसरे की ख़ुशी नहीं बनता। 

कभी-कभी हम कितना कुछ कहना चाहते हैं, कितने शब्द होते हैं हमारे ज़ेहन में, जो किसी एकांत की तलाश में रहते हैं। कितने बेनाम पते के विचार होते हैं, जो किसी अपने के हाथ की तलाश में भटकते रहते हैं, ताकि उन्हें एक सही राह मिल जाए। 

हम अक़्सर शब्दों को पकड़ते हैं, आँखों की गहराई और बोलते-बोलते कुछ क्षणों का, एक दम से लिया गया मौन, हम कभी नहीं पढ़ते। 

मेरा मानना हैं, “शायद बुरे से बुरा यही होता है, जब कोई भी आपके शब्दों और ख़ामोशी को सुनने वाला नहीं होता।” मगर उस पल में अच्छे से अच्छा यह होता है, कि “जो बातें कभी कोई नहीं सुनता, उन्हें स्वयं ईश्वर सुनता हैं। 

“वो पीड़ा, जो किसी की मौजूदगी चाहती है। उसे ईश्वर अपनी मौजूदगी से भर देता है।”

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