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नारी थोड़ा सम्भल जा 

मैं अक़्सर सोचती थी; आख़िर कौन बुज़दिल लोग होंगे वो, जो मरने का सोचते होंगे। आख़िर कैसे लोग ज़िन्दगी से लड़ना छोड़ देते होंगे? कौन सी चरम स्थिति होगी वो, जब लोग ज़िन्दगी जीने से आसान ख़ुद की हत्या करना समझते होंगे। आख़िर क्यों वे लोग ज़िन्दगी से इतना हताश हो जाते होंगे? ये सवाल जितने उलझे हुए हैं, उससे कई ज़्यादा उलझी हुई होती हैं, इनकी परिस्थितियाँ। 

यक़ीनन आज हमारा समाज अशिक्षा से शिक्षा की तरफ़ उन्मुख हो रहा हैं, बचपन से लड़की को लड़के के समान प्यार दुलार और अधिकार देने की समझ, धीरे-धीरे समाज में विकसित हो रही हैं, बड़े होने पर भी अगर किसी व्यक्ति द्वारा अहित किया जाता है, तब भी प्रत्येक व्यक्ति क़ानून की सहायता से न्याय पा सकता है। मगर सवाल आज भी वही खड़ा है, कि आख़िर वह कौन सी चरम स्थितियाँ हैं जब इंसान इतना हार जाता है कि वह जीना ही नहीं चाहता। 

अपने आसपास कई लड़कियों को देखती हूँ; जो शिक्षित हैं, क़ाबिल हैं, दुनियादारी की समझ भी रखती हैं, मगर फिर भी आज ज़िन्दगी से हार गई हैं। तो आख़िर उनकी इस हार का कारण क्या है? 

जब ऐसे सवाल के जवाब ढूँढ़ने, मैं किसी हताश लड़की की जर्जर पड़ी ज़िन्दगी को स्पर्श करती हूँ, तो हाथ लहूलुहान हो जाता है। और उस रक्त की एक-एक कणिका चीख-चीख कर समाज के उन नियमों को कोसती है, जिसने स्त्री-पुरुष विभेद को आज भी क़ायम रखा है। 

आज घरेलू हिंसा, शारीरिक-मानसिक शोषण के लिए क़ानून विद्यमान हैं, मगर आज तक यह बात अपराध की श्रेणी में नहीं आई, जो एक स्त्री को ‘स्त्री होने पर दुःख सहन करने के लिए मजबूर करती हैं’। 

आज स्त्रियाँ प्रशिक्षित हैं, वह बाहरी आघातों से लड़ जाती हैं, मगर वे आघात जो उन्हें स्त्री होने पर अपनों के द्वारा दिए जाते हैं, उनसे वह हार जाती हैं। और अन्ततः उसके पास एक ही मार्ग शेष बचता है, स्वयं को समाप्त करने का। 

मैं उन समस्त स्त्रियों से कहना चाहती हूँ, कि यही तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी जंग है, जहाँ तुम्हेंं अपने स्त्रीत्व के लिए खड़ा होना होगा। हे नारी, तुम्हेंं अपने अस्तित्व के लिए लड़ना होगा! 

“नारी तू जंग हार मत, 
ख़ुद को ऐसे मार मत। 
बन जा काली, दुर्गा तू, 
सृष्टि की पालन हारी तू। 
अपने स्त्रीत्व के लिए
अब तू लड़ जा, 
नारी थोड़ा सम्भल जा! 
नारी थोड़ा सम्भल जा!!”

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