सयानी
काव्य साहित्य | कविता ममता मालवीय 'अनामिका'1 Jun 2020 (अंक: 157, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
वंचित रह जाती है जो लड़कियाँ,
ममत्व के छाँव से;
वो अक्सर उम्र से, पहले बड़ी हो जाती हैं
बहता है उनके आँचल में,
ममता का निर्मल सरोवर; वो लड़कियाँ,
हर किसी पर प्रेम-दुलार लुटाती हैं।
देखती हैं जब किसी माँ को,
अपनी बेटी को सँभालते;
तब वो अपने नयनों से,
अश्रु धार बहाती हैं।
अपनी बेटी को दुनियाँ की हर ख़ुशी दूँगी,
उस क्षण ये वादा ख़ुद से कर जाती हैं।
नहीं मिलता जिन्हें माँ का कोमल स्पर्श,
वो हर किसी के घाव पर, मरहम लगाती हैं।
आँखों में देख कर, हर ग़म पहचान लेना;
ये हुनर भी वो बचपन में ही सीख जाती हैं।
माहवारी की पीड़ा का दर्द भी,
कहाँ भला वो किसी से कह पाती हैं।
हर सवाल के जवाब वो ख़ुद ढूँढ़ती,
तब ये लड़कियाँ ख़ुद की माँ बन जाती हैं।
जब भी कोई पीड़ा हृदय को सताती ,
तब माँ की साड़ी में लिपट जाती हैं।
नहीं होते वो हाथ आँसू पोंछने वाले,
तब ये ख़ुद को सँभालना भी सीख जाती हैं।
फ़रमाइशें करने का सुख इन्हें कहाँ मिलता,
ये हाथ जला कर, ख़ुद खाना बनाना सीख जाती हैं।
जिस उम्र में हम खिलौने से खेला करते हैं,
उस उम्र में ये असली घर चलाना सीख जाती हैं।
अँधेरे में अपनी ज़िंदगी जी कर,
ये प्रेम के दीप जलाना सीख जाती हैं।
ये बिन माँ की बेटियाँ भी देखो,
कितनी जल्दी 'सयानी' बन जाती हैं।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आँचल
- आत्मविश्वास के झोले
- एक नई सोच
- एक ज़माना था
- कर्तव्य पथ
- गुमराह तो वो है
- चेहरा मेरा जला दिया
- जिस दिशा में नफ़रत थी
- जीवन पाठ
- डर का साया
- मंज़िल एक भ्रम है
- मंज़िल चाहें कुछ भी हो
- मदद का भाव
- माहवारी
- मुश्किल की घड़ी
- मेरे पिया
- मैं ढूँढ़ रही हूँ
- मैं महकती हुई मिट्टी हूँ
- मैंने देखा है
- विजय
- वक़्त की पराकाष्ठा
- संघर्ष अभी जारी है
- संघर्ष और कामयाबी
- समस्या से घबरा नहीं
- सयानी
- क़िस्मत (ममता मालवीय)
- ज़िंदगी
स्मृति लेख
चिन्तन
कहानी
ललित निबन्ध
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं