अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सयानी

वंचित रह जाती है जो लड़कियाँ, 
ममत्व के छाँव से;
वो अक्सर उम्र से, पहले बड़ी हो जाती हैं
बहता है उनके आँचल में, 
ममता का निर्मल सरोवर; वो लड़कियाँ, 
हर किसी पर प्रेम-दुलार लुटाती हैं।


देखती हैं जब किसी माँ को,
अपनी बेटी को सँभालते;
तब वो अपने नयनों से, 
अश्रु धार बहाती हैं।
अपनी बेटी को दुनियाँ की हर ख़ुशी दूँगी,
उस क्षण ये वादा ख़ुद से कर जाती हैं।


नहीं मिलता जिन्हें माँ का कोमल स्पर्श,
वो हर किसी के घाव पर, मरहम लगाती हैं।
आँखों में देख कर, हर ग़म पहचान लेना;
ये हुनर भी वो बचपन में ही सीख जाती हैं।


माहवारी की पीड़ा का दर्द भी,
कहाँ भला वो किसी से कह पाती हैं।
हर सवाल के जवाब वो ख़ुद ढूँढ़ती,
तब ये लड़कियाँ ख़ुद की माँ बन जाती हैं।


जब भी कोई पीड़ा हृदय को सताती ,
तब माँ की साड़ी में लिपट जाती हैं।
नहीं होते वो हाथ आँसू पोंछने वाले,
तब ये ख़ुद को सँभालना भी सीख जाती हैं।


फ़रमाइशें करने का सुख इन्हें कहाँ मिलता,
ये हाथ जला कर, ख़ुद खाना बनाना सीख जाती हैं।
जिस उम्र में हम खिलौने से खेला करते हैं,
उस उम्र में ये असली घर चलाना सीख जाती हैं।


अँधेरे में अपनी ज़िंदगी जी कर,
ये प्रेम के दीप जलाना सीख जाती हैं।
ये बिन माँ की बेटियाँ भी देखो,
कितनी जल्दी 'सयानी' बन जाती हैं।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

स्मृति लेख

चिन्तन

कहानी

ललित निबन्ध

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं