माहवारी
काव्य साहित्य | कविता ममता मालवीय 'अनामिका'1 Jun 2020 (अंक: 157, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
मेरे प्यारे सखा मासिक,
तुम महीने में पाँच दिन आते हो।
सचमुच तुम मुझे,
कितना रुलाते हो।
हड्डियों के टूटने जैसी,
यातनाएँ दे जाते हो।
ये कैसी विडबंना है,
तुम मुझे अपवित्र बना जाते हो।
रसोई हो या पूजाघर,
हर जगह जाना निषेध करवाते हो।
इस पीड़ा के वक़्त भी तुम,
ज़मीन पर सोना अनिवार्य करवाते हो।
जिस रक्त से बनी पूरी मानव सृष्टि,
उसी रक्त के बहने पर,
मुझे अछूत ठहराते हो।
में जानती हूँ मेरे सखा मासिक,
तुम क्यो हर महीने आते हो।
नारी होने का असली सम्मान,
एक तुम ही तो मुझे दिलवाते हो।
सामान्य स्त्री से मातृत्व सुख की,
तुम अनुभूति करवाते हो।
संसार की हर नारी को तुम,
नव सृजन का आधार बनाते हो।
लेकिन मेरे सखा मासिक,
क्यों तुम समाज को,
ये बात नहीं समझाते हो?
माहवारी आना सौभाग्य है,
कोई बीमारी नहीं।
जिसे सबसे छुपाते हो।
क्यो खुलेआम इसका नाम लेने पर,
स्त्रीयो को लज्जाहीन ठहराते हो ?
क्या ये समाज नहीं जानता,
इसी माहवारी से तुम मनुष्य जन्म पाते हो?
मेरे सखा मासिक, तुम पूछो समाज से,
आख़िर क्यों ख़ून से बने
नवजात शिशु को सीने से लगाते हो?
उसके जन्म की ख़ुशख़बरी,
क्यों नगाड़े बजाकर समाज को दिखाते हो?
स्त्री के ख़ून को अपवित्र कह कर,
क्यो उसी के ख़ून को अपना नाम दे जाते हो?
बताओ जब माहवारी से हुई स्त्री अपवित्र है,
तो क्यों उसकी सन्तान को
कुल का दीपक बनाते हो?
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