डर का साया
काव्य साहित्य | कविता ममता मालवीय 'अनामिका'15 Nov 2019
ये कैसा डर का साया,
एक लड़की को सताता है।
माँ की कोख में पलते वक़्त ही,
जिसे ये ज़माना मारना चाहता है।
क्या कोई जवाब है इसका,
क्यों ये पाप किया जाता है।
आँख खुलने से पहले ही,
एक चिड़िया को
अँधेरा दिखाया जाता है।
ये कैसा डर का साया,
एक लड़की को सताता है।
क़िस्मत से अगर वो जन्म ले जाती है,
तो क्यों ज़माने को,
ये बात रास नहीं आती है।
बोझ कह कर उसकी आत्मा को,
छलनी किया जाता है।
क्या कोई जवाब है इसका,
क्यों उसके आत्म सम्मान
को मिट्टी किया जाता है।
ये कैसा डर का साया
एक लड़की को सताता है।
हर ज़हर का घूँट पीकर,
जब वो बड़ी हो जाती है।
तो क्यू वो ज़माने के लिए,
खुली तिजोरी हो जाती है।
कांधे से पल्ला सरक जाने पर,
उसे बुरी नज़र से देखा जाता है।
क्या कोई जवाब है इसका ,
क्यों उसे जीते जी मारा जाता है।
ये कैसा डर का साया
एक लड़की को सताता है।
हर विपदा से लड़ कर ,
जब वो पराये घर जाती है।
तो क्यूँ उसे माँ बाप के संस्कारों की,
दुहाइयाँ दी जाती हैं।
लज्जा हीनता का
लाँछन लगा कर,
मर्यादा का घूँघट
पहनाया जाता है।
कोमल हृदय शालिनी को
पत्थर दिल बनाया जाता है,
क्या कोई जवाब है इसका,
क्यों एक लड़की को जिंदगी भर,
डर के साये में जलाया जाता है।
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