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सपने और कर्म

 

आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखने की इच्छा हुई, मैं अक़्सर तभी लिखती हूँ, जब अन्दर से शब्द टाइपिंग बोर्ड पर बिखरने के लिए तड़प उठते हैं। यक़ीन नहीं होता, गुज़रे 6 सालों ने मुझे कितना बदल दिया। एक वो वक़्त था, जब स्कूल से आने के बाद अपनी हर बात मैं डायरी में बड़े चाव से लिखा करती थी और उस डायरी को अपने ही घर में छुपाये फिरती थी। 

तब ऐसे ही एक सपना देख लिया था की बड़ी होकर बहुत अच्छी-अच्छी किताबें लिखूँगी। मगर कभी सोचा नहीं था, ये डायरी लिखने का शौक़ मुझे एक नए सफ़र पर ले जाएगा। मैं तो बस वही करती गई जिसमें मेरा मन राज़ी हुआ। 

आज अपनी सबसे पसंदीदा जगह, अपनी घर की बालकनी मैं बैठ कर तारों से भरा आसमां देख रही थी। तभी ख़्याल आया जब मैं छोटी थी, तब ये भी मेरा एक सपना था। 

आज सोच कर भी हँसी आती है, बाल मन कैसे-कैसे सपने अपने मन के संदूक मैं जमा कर रखता है। 

बचपन गुज़र जाता हैं और मन भी समझदारी की चादर ओढ़ लेता है, हम भी कुछ सपनों को बचपने का नाम देकर उन्हें भुला देते हैं, लेकिन कुछ सपने अपना पता ख़ुद ढूँढ़ कर हक़ीक़त बन एक दिन हमसे टकरा जाते हैं। 

जीवन के इतने साल जीने के बाद, न जाने कितना कुछ खोने और बहुत कुछ पाने के बाद समझ आया; “जब जिस चीज़ का मिलना तय होता है, सही समय आने पर वह चीज़ हमें अपने आप मिल ही जाती है। हमारे हिस्से तो बस इतना है, हम सपने देखें और अपने कर्म करते रहें।" 

अगर कोई चीज़ हमारे लिए सही होगी, तो निश्चित ही सही समय आने पर ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे पास चली आयेगी। 

और अगर कुछ पीछे छूट रहा हैं, इसका सीधा अर्थ हैं, वो हमारे हित में कभी था ही नहीं। 

वास्तव में हमारा किरदार मात्र सपने देखने और कर्म करने का है, क्या मिलेगा और क्या नहीं? ये हमारे हाथ मैं होता ही नहीं है। इसलिए व्यर्थ की चिंता छोड़ मात्र सपने देखिए और अपने हिस्से के कर्म करते जाइए, यही जीवन का सार है।

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