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अपना अपना स्वर्ग

क्या आपका भी स्वर्ग औरों के स्वर्ग से बिल्कुल अलग-थलग है?

मेरे मन में यह प्रश्न तभी उठता है जब-जब मेरे ब्रिटिश दोस्त छुट्टियों के लिए अधिकतर गर्म स्थानों पर ही जाना पसन्द करते हैं, और फिर उनके लौटने पर यही सुनने को मिलता है, "वाह! भरपूर आनंद ही आनंद था वहाँ . . . बिल्कुल स्वर्ग जैसा . . . ढेरों खाना व 'पीना', पूरा-पूरा दिन तेज़ चमकते सूर्य देवता!" और फिर अपनी बाजुओं व टाँगों को गर्व से सभी को दिखाते फिरते हैं कि देखिए, मुफ़्त में ही त्वचा 'टैन' होकर कितनी 'ब्राउन' हो गई है।

परन्तु मेरे भारतीय व अन्य गर्म देशों के दोस्त और रिश्तेदारों की स्वर्ग की परिभाषा बिल्कुल विपरीत है। आप समझ ही गये होंगे। उनके विचारानुसार स्वर्ग में छप्पन प्रकार के भोजन व पेय पदार्थों के साथ-साथ वहाँ बर्फ़ से ढके पर्वत, नदियों में निरन्तर शीतल जल बहता हुआ व धूप में त्वचा कहीं 'ब्राउन' से काली न होने पाये तो घने पेड़ों की सदैव ठंडी-ठंडी छाया इत्यादि-इत्यादि का भरपूर आनंद मिलता है।

आप किसी भी देश या जाति के हों, और स्वर्ग में विश्वास रखते हैं, तो आप यह भी सुनते आए होंगे कि वहाँ सभी ऐश्वर्यों के साथ-साथ सेवा व मनोरंजन हेतु स्वर्गवासियों के इर्द-गिर्द दिन–रात अप्सराएँ (हूर्रें), देवदूत, गंधर्व आदि आदि मँडरा रहे होते हैं। परन्तु थोड़ा हटकर विचार करें कि स्वर्ग जाने वालों के लिए क्या ये सभी ऐश्वर्य किसी काम के हैं?

अरे भई! बड़े-बूढ़ों को स्वर्ग तो तभी मिलता है न, यदि वे जीते-जी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या आदि बुराइयों के समीप जाने-अनजाने में भी फटके तक न हों; किसी पराई स्त्री या मर्द पर मन से तो क्या स्वप्न में भी बुरी दृष्टि न डाली हो; जीवन पर्यन्त खाने-पीने, धन-दौलत इत्यादि का लालच न किया हो। तो मरण उपरान्त यही सब कुछ उन्हें क्यों भायेगा? हम जीवन भर तो यही सुनते आये हैं कि ये ऐशो-आराम का अति होना नर्क का द्वार है . . . और फिर इन्हीं का लालच देकर स्वर्ग जाने के लिए उकसाया जाता है। ऐसा क्यों?

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