उसका सुधरना
कथा साहित्य | लघुकथा मधु शर्मा1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
“आप . . . आप इन्हें ऐसे कैसे ले जा सकते हैं? यह मेरी वाइफ़ और बच्चा है!”
“तुम्हारी वाइफ़ है तो यह हमारी बेटी भी तो है। वो दिन गये जब माँ-बाप बेटियों को विदाई के वक़्त कहा करते थे कि ’जिस घर उसकी डोली जा रही है, वहीं से उसकी अर्थी उठनी चाहिए।’ हम इन्हें ख़ुद ले जा रहे हैं। वो तो अच्छा हुआ कि यहाँ से गुज़रते हुए अचानक हमें तुम लोगों को सरप्राइज़ देने की सूझी। हमें क्या मालूम था कि नशे में चूर तुम इसे बुरी तरह से पीट रहे होगे?”
“पूछें अपनी बेटी से . . . पूछें ज़रा . . . मैंने इस पर पहले कभी हाथ नहीं उठाया . . . वो तो लॉकडाउन की वजह से नौकरी छूट जाने पर, फिर इसका देर-देर तक काम से घर लौटना . . . ऊपर से सारा दिन मुझे ही हमारे दो साल के छोटे से बच्चे की देखभाल के साथ-साथ घर सँभालना। तो फिर शाम को थकावट दूर करने के लिए थोड़ी-बहुत पी लेता हूँ तो इसमें हर्ज़ ही क्या है?”
“थोड़ी–बहुत? आपको बड़ों के सामने इतना बड़ा झूठ बोलते क्या हिचकिचाहट नहीं हो रही? और पहली दफ़ा नहीं . . . आप तो हर रात इतनी पी लेते हैं कि मेरे साथ मारपीट का सिलसिला आपके लिए आम-सी बात हो गई है। मोहल्ले वाले भी बातें करने लगे हैं . . . और मेरे काम वालों ने भी आज वॉर्निंग दे डाली है कि मैं आए दिन यूँ ही छुट्टियाँ लेती रही तो मुझे काम से निकाल दिया जायेगा। बस मम्मी-पापा, मैं यही बात इन्हें समझा रही थी कि इन्होंने फिर से पिटाई शुरू कर दी।”
“लेकिन बेटी . . . मैं तो तुम्हारी माँ हूँ . . . तो यह सब मुझे क्यों नहीं बताया?”
“बस यही सोचकर मम्मी कि आप दोनों बेकार में परेशान ही होंगे . . . और अपने आप को तसल्ली देती रही कि जल्द लॉकडाउन ख़त्म होने पर इन्हें भी फिर से कोई नौकरी मिल ही जायेगी . . . तब इनके पीने-पिलाने की आदत जैसे चंद ही दिनों में पड़ गई, वैसे छूट भी जायेगी।”
“जी, यही सच है . . . मैं तो बस इस बुरी आदत को छोड़ने ही वाला था। यह देखें, सभी बोतलों को अभी आपके सामने फोड़ देता हूँ।”
“लेकिन ऐसा तो आप पहले भी कई बार कर चुके हैं . . . और दो-एक दिन में फिर वही . . . “
“बेटी, मैं सब समझ गया। दामाद जी, अगर आप वाक़ई अपना घर बसा-बसाया देखना चाहते हो तो जैसा मैं कहूँगा, आपको वैसा करना पड़ेगा।”
“पापा जी, आप जैसा कहेंगे मैं करने के लिए तैयार हूँ . . .”
“लेकिन बेटा, शर्त यह है कि अभी इसी वक़्त रिहैब-सैंटर (जहाँ शराब आदि लत से परेशान हुए लोगों का इलाज किया जाता है) को फ़ोन करके अपने लिये अपॉइन्टमन्ट बनवाओ। वहाँ कुछ समय रहकर जब नॉर्मल हो जाओ तो मैं ख़ुद इन दोनों को तुम्हारे साथ तुम्हारे घर छोड़ने आऊँगा। वहाँ की फ़ीस वग़ैरह की चिंता मत करो। वह मैं भरता रहूँगा।”
“लेकिन मैं आपसे पैसे नहीं लूँगा, जब कुछ पैसे जोड़ लूँगा तभी . . . “
“नहीं, तब तक शायद और भी देरी हो जाये। चलो, इसे उधार ही समझ लो। जब नौकरी लग जाये तो चुका देना।”
इस घटना को बीते छह माह हो चुके हैं। रिहैब-सैंटर में हुए इलाज व सास-ससुर की अपने माँ-बाप से भी बढ़कर की गई देख-रेख के कारण आज रोहित सुधर कर अपनी पत्नी व बेटे के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रहा है। सैंटर वालों ने उसकी पढ़ाई, आईटी इत्यादि की योग्यता देखते हुए उसे अपने यहाँ ही एक अच्छी नौकरी पर नियुक्त कर लिया है।
सहिष्णुता व जीवन के अनुभव के अभाव में युवावस्था में अपनी राह से भटक जाने की सम्भावना रहती है। परन्तु युवा पीढ़ी यदि चाहे तो अपने अनुभवी बड़े-बूढ़ों को अपना मित्र मानकर उनसे बहुत कुछ सीख सकती है व बदले में आए दिन की बदलती तकनीकियों से अवगत करवा कर उनके भले के लिए उन्हें बहुत कुछ नया सिखा सकती है।
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