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मोटा असामी



"बहुत हो चुका! यह रोज़-रोज़ की चिल्ला-चिल्ली से कहीं मैं अपना मानसिक संतुलन न खो बैठूँ . . . आज तो आपको बताना ही होगा कि आपकी पूरी पे (वेतन) आख़िर जाती कहाँ है! आप अपने घरवालों पर भी ख़र्च कहाँ करते होंगे? वे तो ख़ुद इतने अमीर हैं कि समय-समय पर हमारी ही मदद करते रहते हैं।और न ही आप बाहर जाकर शराब, नशा या दूसरी औरतों पे सारा पैसा लुटाते होंगे . . . नहीं तो मुझे दिख न जाता!"

लगातार बह रहे अपने आँसुओं को अपने पल्लू के किनारे से पोंछती हुई सोनिया रुँधे गले से बोलती जा रही थीः

"मुझे दूसरी औरतों की तरह घूमने-फिरने का या कपड़े-लत्तों का शौक नहीं, और न ही गहनों का। पाँच सालों से, जब से ब्याह कर आई हूँ, मायके से मिले गहने वैसे के वैसे आपके लॉकर में रखवा दिये थे। जो कपड़े उस वक़्त शादी में मिले थे  उनमें ही गुज़ारा कर ख़ुश हूँ। इसलिए आप मुझे भी दोष नहीं दे सकते कि मेरी ही किसी फ़िज़ूलख़र्ची के कारण हमारा हाथ हमेशा तंग रहता है!"

बोल-बोल कर सोनिया थक गई लेकिन उसका पति बिन कुछ बोले मुँह लटकाये बैठा रहा। कुछ देर बाद यह कहकर कि कार में पैट्रोल डलवाना है, वह घर से निकल पड़ा।

अपने बैंक के लॉकर से बीवी के बचे हुए गहने लेकर रास्ते में कार खड़ी कर हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा, “प्रभु! आज आख़िरी बार, बस आख़िरी बार आप मेरा साथ दे दें। ताकि सभी लोगों से लिया क़र्ज़ उतार कर और पत्नी को बिन बताए लॉकर से जितने भी उसके गहने निकाल कर अब तक गिरवी रखे हैं, उन्हें वापस रख दूँ . . . सिर्फ़ बीस हज़ार पाउंड आज हाथ में आ जायें तो मेरे घरेलू जीवन की गाड़ी फिर से सही रास्ते पर आ जायेगी। दो बरस पहले भी तो जब मैंने घोड़ों की रेस पर पाँच सौ लगाये थे तो दो हज़ार जीत गया था . . . चाहे अपनी बेवक़ूफ़ी की वजह से वही दो हज़ार वहीं के वहीं हार भी गया था। लेकिन प्रभु! इस दफ़ा बस इस दफ़ा मेरे पाँच हज़ार पाउंड को उसी तरह आप चार गुणा कर दें तो . . . तो मैं वायदा करता हूँ कि फिर कभी इस तरफ का रुख मरते दम तक नहीं करूँगा।”

उसने अपनी कार गिरवी वाली दुकान की ओर घुमाई। वहाँ से गहनों के बदले जो पाँच हज़ार पौंड मिले, लेकर उस दुकान की ही बग़ल वाली ‘बुकिज़’ (सट्टेबाज़ी वाली दुकान) में धल्लड़े से घुस गया।

उसे देखते ही दुकानदार की बाँछें खिल उठीं कि यह तो उन मोटे असामियों में से एक है जिसकी वजह से ही हम जैसों का धंधा ख़ूब चल रहा है।

पाद-टीका:

 बुकिज़ व कसिनों (जुआघर) के मालिकों का कहना है कि उनका व्यापार चलता ही या तो महीने कि पहली तारीख़ को है, जब शौक़िया तौर पर अधिकतर लोग केवल पच्चीस-पचास पाउंड ही जुए पर लगाकर अपना शौक पूरा कर लेते हैं। परन्तु वे मालामाल इन जैसे कुछ जुआरियों के कारण ही होते हैं, जो दिन देखें न रात, कहीं न कहीं से पैसों का इंतज़ाम कर सब कुछ चंद पलों में जुए में हार जाते हैं। उस समय तो वे मुँह लटकाये दुकान से चले तो जाते हैं, लेकिन दो-एक दिन बाद आँखों में चमक लिए फिर से हमारी जेबें भरने आ पहुँचते हैं।

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