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मोरे गुण चित न धरो

“देख रहे हो न ओ प्रभु! मुझे इस हालत तक पहुँचाने के लिए आप ही ज़िम्मेवार हैं।” अमन अपने कॉलेज के विशाल मैदान में दूर एक कोने में अकेला बैठा आकाश की ओर देखता हुआ बुदबुदा रहा था। वह प्रायः अपने फ़्री-पीरियड में या तो लायब्रेरी या यहीं इसी पेड़ के नीचे अकेला बैठकर समय बिताया करता था। 

सामान्य शक्ल-सूरत लेकिन अच्छा डील-डौल वाला अमन अपने कॉलेज के दूसरे वर्ष में भी कोई दोस्त न बना सका। या यूँ कह लीजिए कि उसके साथ बातचीत तो सभी लड़के भली-भाँति करते थे लेकिन दोस्ती के नाम पर वे उससे कोसों दूर भागते थे। 

इसका कारण अमर में कोई कमी नहीं बल्कि उसका हर क्षेत्र में ’नम्बर वन’ होना था। बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में इतना होशियार था कि मोहल्ले वाले तो क्या उसके अपने पिता तक अपने दूसरे दोनों बेटों को अमन का उदाहरण दे-देकर डाँटते-फटकारते रहते। उस छोटे से बालक की छोटी सी बुद्धि समझ नहीं पाती थी कि उसके दोनों बड़े भाई उसे क्यों 'पढ़ाकू' कह कर बुरी तरह से चिढ़ाया करते हैं। उनकी देखा-देखी मोहल्ले के बच्चे भी अमन की वजह से अपने माँ-बाप से मिली फटकार का बदला उसे बुरे-भले नामों से पुकार कर ले लिया करते थे। 

सैकंड्री स्कूल तक आते-आते अपने अध्यापकों द्वारा उत्साहित किये जाने पर अमन अपने स्कूल व स्कूल के बाहर आयोजित की गईं भाषण-प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा। परन्तु इस बात ने जलती आग में घी का काम कर दिया। क्योंकि अब माँ-बाप सहित अध्यापकजन भी उसके सहपाठियों व उसके भाइयों को, जो उसी स्कूल में पढ़ रहे थे, लताड़ने लग गये थे। और बेचारा अमन . . . उसे ’पढ़ाकू’ के साथ-साथ अब ’चमचा’ कहकर चिढ़ाया जाने लगा। अमन पहले तो अपने ही घर-मोहल्ले में और अब स्कूल में अकेलापन महसूस करने लग गया था। 

एक दिन उसने इसका स्वयं ही हल खोज निकाला और स्कूल की क्रिकेट-टीम में भर्ती होने का सोचा। उसे लगा कि ढेरों लड़कों के साथ जब स्कूल से कहीं बाहर खेलों में भाग लेगा तो कोई न कोई उसकी ओर अवश्य दोस्ती का हाथ बढ़ायेगा। यद्यपि उसके भाइयों ने उस टीम में अपने दोस्तों के कान भरकर अमन के ख़िलाफ़ योजना भी बनाई ताकि वह टीम में भर्ती न हो सके, लेकिन अमन का क़द-काठ देखकर कोच ने उसे झट से टीम में ले लिया। 

कुछ सप्ताह बीतते-बीतते सब सही होता दिखाई देने लगा। टीम के दूसरे लड़के अमन के साथ अच्छी तरह पेश आते थे . . . बिल्कुल उसी तरह जैसा एक अच्छी टीम में परस्पर मेल होना चाहिए। लेकिन . . . लेकिन अमन का भाग्य घूम-फिर कर उसे उसी अकेलेपन के मोड़ पर ले आया जब तिमाही परीक्षा का परिणाम आया। अमन तो फिर से प्रथम आया लेकिन उसकी टीम के कुछ लड़के या तो फ़ेल हो गये या उनके बहुत ही कम अंक आये। उन पर तो इसका कोई प्रभाव न हुआ क्योंकि स्पोर्टस्मैन होने के कारण उन्हें चालीस प्रतीशत अंक लाने की छूट थी। परन्तु उन्हें उनके सभी अध्यापकों से डाँट-फटकार खानी पड़ी कि “यदि अमन खेल-कूद में भाग लेकर भी प्रथम आ सकता है तो क्या तुम सभी नालायक़ पचास-साठ प्रतिशत अंक भी नहीं ला सकते?”

बस फिर से अमन की वही अकेलेपन की दिनचर्या शुरू हो गई। कॉलेज तक आते-आते वह अपना अकेलापन छुपाने में इतना माहिर हो गया कि उसने अपने माता-पिता को भी इसकी भनक तक न पड़ने दी। दूसरी तरफ़ वे लोग उसकी मायूसी से अनभिज्ञ यह सोच-सोचकर प्रसन्न होते रहे कि चाहे उनके दोनों बड़े बेटे पढ़ाई इत्यादि में सामान्य रहे परन्तु उनका होशियार बेटा अमन हर क्षेत्र में ’टॉप’ साबित हुआ। सभी रिश्तेदारों व जान-पहचान वालों को कहते न थकते कि “यह भगवान की ही कृपा है कि उसने इतना गुणी बेटा हमें दिया। देख लेना हमारा अमन एक दिन हमारा नाम रोशन करेगा।”

आज अमन की उदासी चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी। उसका यह फ़्री-पीरियड नहीं था . . . बस अपने इस प्रिय स्थान पर बैठकर भगवान को कोसना चाह रहा था, “देख रहे हो न ओ प्रभु! मुझे इस हालत तक पहुँचाने के लिए आप ही ज़िम्मेवार हैं। न आप मुझमें इतने गुण भरते, न ही मुझे बचपन से इस अकेलेपन का सामना करना पड़ता। जब आप ही मेरी राहों में काँटे बिछाते रहे तो औरों को क्या दोष दूँ? लगता है हमेशा की तरह मुझे ही अब कोई हल निकालना होगा।”

कुछ घंटों बाद कॉलेज के चौकीदार ने गेट बंद करते समय अमन को उसी वृक्ष के नीचे बैठे देखा। वह अमन को आए दिन इस तरह अकेले बैठे देखने का आदी हो चुका था . . . लेकिन कभी इतने लम्बे समय तक नहीं। सो उसके समीप जाकर पूछा, “क्या बात है बेटा, आज कोई क्लास अटैंड नहीं करोगे?” परन्तु यह क्या . . . अमन का सफ़ेद हुआ चेहरा देख उसकी बूढ़ी अनुभवी आँखों ने एक पल में ही जान लिया कि वह तो कब का दुनिया छोड़ कर जा चुका है। उसके मृत शरीर के समीप नींद की गोलियों की एक ख़ाली शीशी व एक खुला हुआ काग़ज़ मिला जिस पर लिखा हुआ था, “प्रभु, मोरे 'गुण' चित न धरो।”

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