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साहित्य में चौर्यकर्म

 

 (पिछले अंक में आदरणीय डॉ. सत्यवान सौरभ का साहित्य-आलेख ‘प्रसिद्धि की बैसाखी बनता साहित्य में चौर्यकर्म’ पढ़ते ही उससे प्रभावित हो मैंने टिप्पणी दी थी। और अब उसी से जुड़ी यह आप-बीती साहित्य-कुञ्ज के पाठकों के साथ साझा करने का मन चाहा) 

 

कुछ समय पहले रेडियो पर एक ‘फ़ोन-इन’ शो में मैंने जब एक स्वरचित ग़ज़ल पढ़ी तो रेडियो कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता झट से बोल उठीं, “यह तो आपकी लिखी नहीं लगती क्योंकि मैंने यह पहले भी कहीं पढ़ी है।” मैंने उन्हें यह कहकर समझाया कि भविष्य में यदि उन्हें कभी ऐसा-वैसा संदेह हो जाये तो पहले वह सही जाँच-पड़ताल कर लिया करें, फिर किसी पर ऐसा आरोप लगायें। 

तदुपरान्त उसी शाम एक सखी का फ़ोन आने पर मालूम हुआ कि उन जैसे रेडियो-प्रस्तुतकर्ता या मंच-संचालक का ज्ञान अधूरा होने के कारण न जाने मुझ जैसे और कितने लोगों को अपमानित होना पड़ता है। 

बात यूँ हुई कि मेरी उस ग़ज़ल का जो रदीफ़ था, वह किसी और ग़ज़ल का भी रहा होगा। उदाहरणतः ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ रदीफ़ वाली तीस से भी अधिक ग़ज़लें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन उन सभी के अश'आर किसी अन्य ग़ज़ल से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। 

उस रेडियो-प्रस्तुतकर्ता के अधूरे ज्ञान के कारण मुझ पर लगाया गया आरोप न जाने कितने श्रोताओं के कानों में पड़ा होगा। लेकिन इसकी मुझे कभी चिंता हुई ही नहीं, क्योंकि आपने यदि चोरी की ही नहीं तो अज्ञानियों द्वारा लगाये आरोप एक न एक दिन निराधार प्रमाणित हो ही जाते हैं। 

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