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पत्र: इकलौती बहन को

 

मेरी प्रिय इकलौती बहना

तुम्हें याद होगा कि हमारे परिवार व हमारे छोटे से क़स्बे में तुम्हें ‘सिम्पल ऐंड सोबर’ (सादी व गंभीर सी), और मुझे ‘इंटैलिजन्ट बट नॉटी’ (मेधावी लेकिन शराराती) की उपाधि मिली हुई थी। बाग़वानी और जानवरों में रुचि होने के कारण या तो घर के बग़ीचे में या फिर हमारी पालतू गाय-भैंसों के चारे, उनकी सफ़ाई इत्यादि में नौकरों का हाथ बँटाते हुए तुम अपना ख़ाली समय बितातीं। और मैं पढ़ाई-लिखाई की पुस्तकों या आधुनिक फ़ैशन की पत्रिकाओं से घिरी रहती। 

स्वभाव में एक दूसरे से इतना विपरीत होने के बाद भी तुम और माँ ही मेरी सबसे अंतरंग सहेलियाँ थीं। हम तीनों इतनी क़रीब थीं कि एक-दूसरे से हर बात साझा कर लिया करतीं। आयु में केवल दो वर्ष का अन्तर होने के कारण जब हम दोनों किशोरी अवस्था में पहुँची तो एक दूसरे की पोशाक अदल-बदल कर पहन लिया करतीं, सहेलियों के साथ घूमने और सिनमा देखने शहर जातीं . . . यहाँ तक कि हमारी मित्र-मंडली भी एक ही थी। 

तुम्हें मालूम ही है कि माँ हमारे छोटे भाई का विशेषकर ध्यान रखती थीं। उनका मानना था कि, “प्रीमैच्योर (सतमासा) पैदा होने के कारण, वह सदा अस्वस्थ ही रहेगा। स्कूल आदि में अन्य बच्चों द्वारा खिल्ली उड़ाए जाने के डर से वो घर से अकेला बाहर भी नहीं निकलता। तुम्हारे पिताजी को अपने बिज़नेस से फ़ुरसत ही कहाँ, सो मुझे ही तुम्हारे भाई की हर बात का ख़्याल रखना होगा।” उसके बावजूद भी माँ हम दोनों के लिए प्रतिदिन समय निकाल कर हमसे ख़ूब बतियातीं। 

मुझे नहीं मालूम कि मैं कब और कैसे पिताजी की चहेती सन्तान बन गई। वह तुम दोनों को टोकते रहते कि मेरी भाँति तुम दोनों पढ़ाई, खेल-कूद और अन्य गतिविधियों में नाम क्यों नहीं कमाते। यह सुनकर उस पल मुझे गर्व महसूस होता। 

समय आने पर विवाह होते ही विदेश में बसे पति के परिवार का हिस्सा बनने के सपने लेकर मैं यहाँ विदेश आ पहुँची। लेकिन उन्हें बहू नहीं एक कामवाली की ज़रूरत थी . . . ऐसी कामवाली जो नौकरी करके उनके हाथ में अपना पूरा वेतन भी थमाये व सुबह काम पर जाने से पहले और शाम को घर पहुँचते ही घर का चौका-चूल्हा-बर्तन इत्यादि भी सम्भाले। पति व ससुराल वालों ने मेरे विवाह पर हुई उनकी आवभगत में सैंकड़ों कमियाँ निकालने के बहाने से तुम लोगों से पहले से ही सभी सम्पर्क विच्छेद कर लिए थे। परन्तु निराश होने की बजाय मैं फिर भी ख़ुश रहने का प्रयत्न करती कि अपने हँसमुख व अपनत्व स्वभाव से उन सभी का दिल शीघ्र ही जीत ही लूँगी। 

♦    ♦    ♦

मेरे विदेश आने के दो वर्ष पश्चात तुम्हारी शादी भी तय हो गई। परन्तु मैं अपनी उन्हीं घरेलू समस्याओं के कारण तुम्हारे ब्याह में शामिल न हो सकी। कितने ही सप्ताह मैं बहुत उदास व परेशान रही . . . एकान्त में चुपचाप आँसू बहाने के अतिरिक्त मेरे पास कोई और चारा भी न था। 

हम दोनों नियमित रूप से एक-दूसरे को पत्र लिखा करतीं। कुछ समय बाद जब अंतरराष्ट्रीय फ़ोन-कॉल सस्ते हो गए तो सप्ताह में एक निश्चित दिन मैं काम पर लन्च के समय तुम्हें अवश्य फ़ोन कर लिया करती। मैं विदेश की और तुम अपने ससुराल की बातें बताकर हम दोनों ख़ूब हँसती-हँसाती। 

इसी बीच मेरी शादी आठ-नौ बरस बाद ही टूट गई। लेकिन अकेले दो बच्चों का पालन-पोषण करते हुए मैंने कभी भी तुम्हें या हमारे माता-पिता को अपनी परेशनियाँ या अकेलापन प्रगट न होने दिया। कारण? तुम लोग हज़ारों मील दूर बैठे मेरी परिस्थिति के बारे कुछ भी करने में असमर्थ तो होते ही . . . उलटा और भी परेशान हो जाते। इसीलिए मैं तुम सभी को अपनी व बच्चों की केवल हँसती-मुस्कुराती तस्वीरें, पत्र, चुटकुले इत्यादि ही भेजती रही। 

तलाक़ के पाँच वर्ष बाद ही मैंने तुम्हें यह सब बताने का साहस कर पाई क्योंकि तब तक मुझे दूसरे शहर में एक बड़े ऑफ़िस में अच्छी नौकरी मिल गई थी। कुछ समय बाद मैंने छोटा सा एक घर ख़रीद लिया था व बच्चे भी अच्छे स्कूल में पढ़ने लग गये थे। 

♦    ♦    ♦

लेकिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा झटका तो मुझे तब लगा जब मैं पिछले वर्ष मायके आई। पच्चीस वर्षों में भारत की यह मेरी तीसरी ही यात्रा थी, और चूँकि दोनों बच्चे अपने-अपने घरों में सैटल हो चुके थे तो बच्चों के बिना पहली बार मायके आई थी। तुम भी मिलने आईं लेकिन अगले ही दिन तुमने अपने ससुराल वालों व अपने पास-पड़ोस वालों के साथ तुम्हारी सही न निभने का ‘कारण’ मैं हूँ . . . यह कहते हुए तुमने मुझे दोषी ठहराया। क्योंकि तुम्हारे अनुसार, कुछ सप्ताह पूर्व ही तुम्हारी एक काउंस्लर (परामर्शदाता) ने तुम्हें अवगत कराया कि ‘चूँकि पिताजी हमेशा मेहमानों, रिश्तेदारों आदि के सामने केवल मेरी ही प्रशंसा किया करते थे, इसीलिए तुम बचपन से ही हीन भावना का शिकार हो गई . . . जिसका असर ससुराल वालों सहित तुम्हारे दूसरों सम्बन्धों पर भी पड़ता चला गया’।

यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गई। मेरी वाणी व शब्द मेरा साथ नहीं दे रहे थे, लेकिन फिर भी उस समय यह कहकर तुम्हें शान्त करने का प्रयास किया कि ‘वह मैं नहीं थी जो तुम्हें नीचा दिखाती थी। मुझे तो रत्ती भर भी अहसास न था कि बचपन में उन बातों का तुम पर इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है। और रही पिताजी की बात, तो उन्हें भी कहाँ अंदेशा था कि उनके उस व्यवहार या टोका-टाकी से भविष्य में तुम पर यूँ बुरा असर होगा। अन्यथा अपने तीनों बच्चों का अच्छा लालन-पालन करने वाले व इतने समझदार व्यक्ति होने के नाते उन्होंने कभी भी इस तरह का क़दम न उठाया होता।’

लेकिन तुम इतने पर ही नहीं रुकीं . . . तुमने मुझ पर यह भी आरोप लगाया कि जब हम कॉलेज में थीं तो मेरे द्वारा चुनी/ख़रीदी गईं ऊट-पटाँग नई पोशाकें पहन कर तुम्हारा जुलूस निकल जाया करता था। या फिर जब हम अपनी सहेलियों के साथ होतीं तो मैं तुम्हें बात करने का अवसर नहीं देती थी। या जब मैं विदेश से तुमसे फोन पर बात किया करती थी तो तुम्हारा समय बर्बाद कर रही होती थी . . . आदि आदि। तुम्हारे हर दिन के बेबुनियाद नये-नये आरोपों, और मेरे द्वारा दिये जा रहे स्पष्टीकरण को तुम्हारे सुनने की क़तई कोशिश ‘न’ करने के कारण, मायके में एक भी दिन और रुके रहने का सोच-सोच कर मेरा दम घुटने लगा। इसीलिए मुझे अपनी छुट्टियाँ स्थगित करनी पड़ीं। मैंने माँ और पिताजी से भी इस मामले में तुम्हें समझाने का अनुरोध किया लेकिन वे भी असफल रहे। तीन सप्ताह रुकने के बदले, बहाना बनाकर मैं एक सप्ताह बाद ही अपने घर लौट आई। 

उस यात्रा के बाद से मैं हर समय परेशान, हैरान और उदास रहने लगी। लेकिन मैडिटेशन का सहारा लेकर और ‘सैल्फ़-हैल्प’ पुस्तकें पढ़कर, मैं अब अपने अवसाद से बाहर आने में बहुत हद तक सफल हो गई हूँ। 

परन्तु मुझे तुम्हारी चिन्ता होने लगी है कि तुम जो पिछले वर्ष तक हम सभी के साथ सदा भला व्यवहार करती रहीं, अब किसी अपरिचित ‘परामर्शदाता’ की कही बातों पर विश्वास करना चाहती हो, न कि अपनी इकलौती बहन या अपने समझदार माता-पिता की बातों का। 

आयु में तुमसे बड़ी होने के नाते ‘फ़ॉरगिव ऐंड फ़ॉरगैट’ (दूसरों को क्षमा करने के पश्चात उनकी ग़लती भूल जाइए) उक्ति को मैंने अमल में लाने का पूरा प्रयास भी किया . . . क्योंकि ससुराल, पति या अन्य लोगों के मामले में सदा यही तो करती आई हूँ। मेरे लिए इस पहले शब्द ‘फ़ॉरगिव’ पर अमल करना सहज तो है, परन्तु इसके बाद का ‘फ़ॉरगैट’ शब्द मेरे-तुम्हारे बीच पड़ गई दरार को क्या कभी मिटा पायेगा, यह असम्भव सा लगता है। 

फिर भी प्रभु से यही प्रार्थना करती हूँ कि वह तुम्हारे परिवार और पड़ोसियों के बीच तुम्हारे लिए ‘म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग’ (परस्पर सौहार्द) विकसित करें। व हम सभी को सद्‌बुद्धि प्रदान करें ताकि हम सही और ग़लत की पहचान कर सकें। 

तुम्हारी अपनी
बचपन की सखी रूपी बहन

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