नाज़ुक रिश्ता
कथा साहित्य | कहानी मधु शर्मा15 May 2021 (अंक: 181, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
आज भी जब संजीव शाम को काम से घर लौटा तो गीता को सोफ़े पर निढाल सी पाया। “क्या तुम्हारी फिर से तबियत ख़राब हो गई है?” और जवाब का इंतज़ार किये बिना ही ऊपर फ़्रेश होने चला गया। उसका यह रवैया देख गीता को दुःख तो हुआ मगर हैरानी न हुई। क्योंकि संजीव के इस रूखेपन की वज़ह से वो अनजान न थी।
मगर . . . मगर इस बिगड़ी परिस्थिति को सँभालने के लिए उसे कुछ और समय चाहिए था। गीता अक़्सर अपनी सोचों में डूबी उन दिनों को याद करने लगती जब संजीव उसे ब्याह कर भारत से यहाँ इंग्लैंड में अपने छोटे से लेकिन सभी सुविधाओं से सुसज्जित घर में लाया था। उसे अपने मायके से हज़ारों मील दूर होने का अहसास कभी-कभार ही होता क्योंकि संजीव का प्यार उसे किसी चीज़ की कमी महसूस ही नहीं होने देता था।
दिन-पर-दिन गीता का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था। डॉक्टर ने उसे पूरा आराम करने के लिए बोल रखा था क्योंकि इस बार गर्भवती होने पर आरम्भ से ही उसकी तबियत बिगड़नी शुरू हो गई थी। ऐसा पहले भी दोनों बेटों के जन्म लेने से पहले कुछ ऐसा ही महसूस किया करती रही थी, सो इस बार ज़्यादा ध्यान न दिया। सुबह उठ कर बिना किसी ख़ास परेशानी के दोनों बच्चों को तैयार कर, नाश्ता करवा संजीव के साथ स्कूल भेज देती। और उनके जाते ही ख़ुद थोड़ा बहुत खाकर, जैसे-तैसे उसी समय शाम का खाना बना कर सोफ़े पर आ लेटती। और फिर बच्चों के स्कूल से लौटने पर ही उठती। उन्हें खिला-पिला कर फिर से जा लेटती।
संजीव कपड़े बदल कर नीचे आया और सीधा रसोई में जाकर दोनों के लिए खाना माइक्रोवेव में गर्म कर, दो प्लेट में परोस कर खाने की मेज़ पर आ बैठा और बिना कुछ बोले खाना शुरू कर दिया। गीता भी धीरे-धीरे चलकर उसके सामने बैठ गई। उसकी और देखते हुए वो उसी रूख़ी आवाज़ में बोला, ”कितना समझाया था कि दो बेटे काफ़ी हैं, मगर तुमने तो 'बेटी-बेटी' की रट लगाई हुई थी। और अब भी क्या गारंटी है कि बेटी ही होगी? तुम्हें तो बस ख़ुद को परेशान करने का और साथ-साथ हमें भी . . . ”।
गीता ने उसे बीच में ही रोकते हुए अपनी कमज़ोर आवाज़ में कहा, ”मैं किसी को तकलीफ़ कहाँ दे रही हूँ? सारा काम सुबह ही कर लेती हूँ ताकि किसी की भी देखभाल में कोई कमी न रह जाए। रही मेरी तकलीफ़ की बात . . . तो पहले की तरह 2-4 महीनों में अपने आप ठीक हो ही जाऊँगी।"
उस रात संजीव ने गीता से कहा, “तुम अपनी बहन रीटा को कुछ महीनों के लिए यहाँ क्यों नही बुला लेतीं? उसकी पढ़ाई भी अब ख़त्म हो गई है। उसे भी कुछ महीनों की ब्रेक मिल जाएगी और यहाँ आकर तुम्हारे काम में हाथ बँटा दिया करेगी।”
गीता को यह सुझाव अच्छा लगा। क्योंकि . . . दो साल हुए बस-दुर्घटना में मम्मी-पापा दोनों का अचानक देहांत हो गया था। तब से रीटा की ज़िम्मेवारी उनका इकलौता भाई व भाभी निभा रहे थे . . . मगर बस एक भारी बोझ समझ कर। और कल ही तो रीटा ने उसे फोन पर रोते हुए बताया था कि उसका रिज़ल्ट आते ही भाभी अपने शराबी भतीजे से उसकी शादी करवाने की सोच रही हैं। रीटा गिड़गिड़ा रही थी कि दीदी किसी तरह भी भैया को समझा कर इस रिश्ते के लिए मना कर दें। गीता अपनी छोटी बहन के दर्द को महसूस कर सकती थी कि वो बिन माँ-बाप की जवान लड़की किन हालातों में से गुज़र रही है।
गीता ने अगले ही दिन अपने भाई से फोन पर अपनी बीमारी का बताकर रीटा को इंग्लैंड बुलाने के लिए मना लिया। और फिर पति संजीव को वीज़ा इत्यादि के काग़ज़ात तैयार करने को बोल दिया। रीटा का पासपोर्ट तो 3 साल पहले ही बन चुका था, जब वो अपनी मम्मी के साथ छुट्टियों में गीता के पास आने को थी। लेकिन उसके पापा की अचानक तबियत ख़राब होने पर उन्हें यात्रा स्थगित करनी पड़ी थी। उस रात गीता और संजीव देर तक रीटा की बातें करते रहे कि उनकी शादी पर कैसे गा-गा कर और डांस कर 14 साल की परी जैसी सुंदर और चंचल रीटा ने सभी का कितना मनोरंजन किया था।
देखते ही देखते वो दिन भी आ गया जब रीटा अपनी बहन गीता के पास इंग्लैंड पहुँच गई। अब वो 21 बरस की हो चुकी थी . . . बहुत सुन्दर होने के साथ-साथ बोल-चाल में भी बहुत ही मीठे स्वभाव वाली। और तो और . . . आते ही उसने गीता का घर व बच्चे ऐसे सम्भाल लिए जैसे कि वो वहाँ बरसों से रह रही हो। बच्चे तो उससे ऐसे घुल-मिल गए कि वो अपनी मम्मी गीता को जैसे भूल से गए। संजीव भी अब समय पर घर आने लग गया था। गीता निश्चिन्त हो गई परन्तु उसकी तबियत अभी भी डाँवाँडोल चल रही थी। इसलिए घर की ग्रोसरी, शॉपिंग वगैरह के लिए रीटा को ही संजीव के साथ भेज देती। संजीव फजूलख़र्च बहुत था और रीटा से लगभग 15 साल बड़ा था। लेकिन रीटा बच्चों की तरह ज़िद कर शॉपिंग में उसका हाथ बँटाते हुए उसे सिर्फ़ ज़रूरत का ही सामान ख़रीदने देती। संजीव भी रीटा की कम्पनी में ख़ुद को 25 बरस का महसूस करता और उसकी बात मान लेता।
यूँ ही किस तरह 3 माह गुज़र गए, पता ही न चला। गीता की डिलीवरी में अभी दो माह बाक़ी थे। एक शाम उसे लेबर-पेन शुरू हुई तो संजीव उसे हॉस्पिटल ले गया। जहाँ गीता और बच्चे दोनों को बचाने के लिए ऑपरेशन करना पड़ा। गीता ने फिर से एक बेटे को जन्म दिया। दोनों ही बहुत कमज़ोर थे, सो हॉस्पिटल में ही रहना पड़ा।
रीटा हर शाम संजीव के साथ दोनों भांजों को लेकर गीता से मिलने आती, और छुट्टी वाले दिन दोपहर को भी मिलना-मिलाना हो जाता। अब वो पहले की तरह न हँसती, न ज़्यादा बोलती। गीता ने एक दिन हँसी-हँसी में पूछा भी था कि मेरी छोटी बहना इतनी ज़िम्मेदारी उठाते हुए कहीं थक तो नहीं गई? मगर रीटा ने फीकी सी मुस्कुराहट दे बात टाल दी।
गीता के हस्पताल भर्ती होने के एक सप्ताह बाद साथ वाले कमरे में एक लड़की भरती हुई जिसका नाम प्रीत था। वो भी जब 7 महीने गर्भवती थी तो एक कार-एक्सीडेंट में चोट लगने की वज़ह से उसका भी सी-सैक्शन करना पड़ा। उसे बेटी पैदा हुई थी, और दोनों माँ-बेटी कमज़ोर होने की वज़ह से गीता वाले वार्ड में भेज दी गईं।
उस दुर्घटना में प्रीत के पति की बायीं बाजू टूट गई थी, सो ड्राइव नहीं कर सकता था। इसलिए प्रीत का देवर उसे और प्रीत की सास को हर शाम प्रीत और बेबी से मिलवाने ले आता। जिस तरह रीटा अपनी दीदी से कुछ देर मिलकर, भाँजों को किसी बहाने से बाहर गलियारे में ले आती थी ताकि संजीव और गीता को एकांत में बातचीत करने का कुछ समय मिल जाए, उसी तरह प्रीत की सास और देवर भी प्रीत व उसके पति को कुछ देर अकेला छोड़, बाहर रखी हुईं कुर्सियों पर आकर बैठ जाते।
एक सप्ताह में ही गीता और प्रीत बहुत घुलमिल गईं थीं। प्रीत हमेशा अपनी सास, पति व इकलौते देवर की बहुत बढ़ाई करती। वे लोग थे भी बहुत अच्छे . . . सास तो गीता से बहुत प्यार से मिलती और हौसला देती कि "चिंता न करो . . . .अगर तुम्हारी फ़ैमिली का यहाँ कोई नहीं, हम हैं न!" और कॉरिडोर में भी वो रीटा और दोनों बच्चों से हँस-हँस कर बातें करती। हमेशा रीटा की प्रशंसा करती, और यही कहती कि देखो कैसे बच्चों के साथ बच्ची बन जाती है . . . लेकिन न जाने अकेले होते ही गुमसुम सी हो जाती है या कोई बात पूछने पर केवल 'जी हाँ या जी नहीं' कह पाती है।
एक दिन जब गीता के डॉक्टर ने संजीव के सामने गीता को 2-3 दिनों के बाद हस्पताल से घर जाने की ख़ुशख़बरी दी, तो संजीव बदहवास सा हुआ रीटा के पास कॉरिडोर में आया। दोनों बेटों को गीता के पास जाने का कह कर, अजीब से लहज़े में बोला, "अब मेरा क्या होगा? ज़िन्दगी फिर से उसी बीमार औरत के साथ बितानी पड़ेगी। तुम रीटा, अब भी अगर मेरी बात नहीं मानोगी और . . . और जैसा मैं चाहता हूँ नहीं करोगी तो . . . तो गीता को मैं तलाक़ दे दूँगा।"
रीटा चाह कर भी अपने आँसू न रोक सकी और सुबकते हुए बोली, "जीजाजी, आपको अच्छी तरह मालूम है कि मैं दीदी को आपकी हरकतें बता न पाऊँगी। आप देखिएगा कि उनके घर आते ही एक-दो हफ़्तों में मैं इंडिया वापिस चली जाऊँगी। मुझे भाभी के उस शराबी भतीजे के साथ शादी मंज़ूर है मगर आप जैसे गन्दे इंसान को, न तो दीदी की, न ही अपनी ज़िन्दगी बरबाद करने दूँगी। आप इस नाज़ुक रिश्ते का फ़ायदा उठा कर इतनी गिरी हुई हरकत पर उतर आएँगे . . . मैंने सपने में भी न सोचा था। अच्छा हुआ भगवान ने आपको बेटी नहीं दी, नहीं तो उसके साथ भी . . . "
संजीव की आँखे ग़ुस्से से लाल हो गईं . . . उसका हाथ रीटा पर उठने ही वाला था कि पीछे से आकर प्रीत की सास उसे फटकारते हुए बोली, "मैंने सारी बातें सुन लीं हैं। तुम क्या समझते हो कि लाचार लड़की को अकेला समझ कर अपनी मनमानी करते जाओगे? यह इंडिया नहीं, इंग्लैंड है जहाँ तुम जैसे दरिंदों को जेल की लम्बी सज़ा मिलते देर नहीं लगेगी।" फिर अपने छोटे बेटे को पास बुला कर कहा, "बेटे, तुमने अपने पुलिस डिपार्टमेंट में ऐसे केस हैंडल किये हैं न, सो इसे ज़रा यहाँ का क़ानून अच्छे से समझा दो।" और संजीव से बोली, "संजीव! मैं तुम्हारी पत्नी और बच्चों का लिहाज़ कर रही हूँ , मगर फिर कभी हमारे कानों में तुम्हारे कारनामों की थोड़ी सी भी भनक पड़ी तो . . . तो समझ गए न?" संजीव ने अपने दोनों कान पकड़ कर माफ़ी माँगी और रीटा को भी छोटी बहन कह कर उसके पाँव छूने को तैयार हो गया, लेकिन रीटा सहमी हुई सी परे हट गई।
प्रीत की सास ने तब रीटा का हाथ पकड़ा और गीता के पास ले गई, और बोली, "बेटी गीता, ऐसी बातें तो घर में बैठ कर की जाती हैं, लेकिन . . . क्योंकि तुम अपने घर वापिस जा रही हो और बेबी के साथ सैटल होने में कुछ दिन तो लग जायेंगे। मगर मैं तब तक इन्तज़ार नहीं कर पाऊँगी। बस अपनी रीटा . . . अपनी रीटा मुझे दे दो . . . मेरी छोटी बहू के रूप में। आराम से सोच-विचार कर लो, संजीव को भी कोई आपत्ति नहीं, हैं न संजीव? मेरा छोटा बेटा तो पिछले तीन हफ़्तों से सुबहो-शाम रीटा के ही गुण गाता फिर रहा है . . . हम बस तुम्हारे ठीक हो जाने का इंतज़ार कर रहे थे।"
प्रीत भी ख़ुशी से झूमती हुई गीता को गले लगाकर कहने लगी, "देखो गीता, न नहीं करना। हमारी दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाए तो इससे बेहतर बात और क्या होगी !" मन ही मन गीता का भी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। रीटा का लाल होता चेहरा देख उसे उसकी सहमति मिल ही गई थी। तो यह कह दिया कि घर जाकर भाई को फोन पर बता कर, फिर आपसे आराम से बातें करने जल्दी ही आपसे मिलने आएँगे।
ठीक दो महीनों के पश्चात रीटा प्रीत की देवरानी बनकर, अपने प्यारे से पति के साथ डोली में बैठ अपने प्यारे से ससुराल पहुँच गई। और रास्ते भर यही सोचती रही कि कहाँ तीन महीने पहले एक नाज़ुक रिश्ता टूटने जा रहा था, और कैसे उसी की वज़ह से इतने ढेर सारे मज़बूत रिश्ते आज मेरी झोली में भगवान ने वरदान के रूप में डाल दिए!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
हास्य-व्यंग्य कविता
किशोर साहित्य कविता
कविता
- 16 का अंक
- 16 शृंगार
- 6 जून यूक्रेन-वासियों द्वारा दी गई दुहाई
- अंगदान
- अकेली है तन्हा नहीं
- अग्निदाह
- अधूरापन
- असली दोस्त
- आशा या निराशा
- उपहार/तोहफ़ा/सौग़ात/भेंट
- ऐन्टाल्या में डूबता सूर्य
- ऐसे-वैसे लोग
- कविता क्यों लिखती हूँ
- काहे दंभ भरे ओ इंसान
- कुछ और कड़वे सच – 02
- कुछ कड़वे सच — 01
- कुछ न रहेगा
- कैसे-कैसे सेल्ज़मैन
- कोना-कोना कोरोना-फ़्री
- ख़ुश है अब वह
- खाते-पीते घरों के प्रवासी
- गति
- गुहार दिल की
- जल
- दीया हूँ
- दोषी
- नदिया का ख़त सागर के नाम
- पतझड़ के पत्ते
- पारी जीती कभी हारी
- बहन-बेटियों की आवाज़
- बेटा होने का हक़
- बेटी बचाओ
- भयभीत भगवान
- भानुमति
- भेद-भाव
- माँ की गोद
- मेरा पहला आँसू
- मेरी अन्तिम इच्छा
- मेरी मातृ-भूमि
- मेरी हमसायी
- यह इंग्लिस्तान
- यादें मीठी-कड़वी
- यादों का भँवर
- लंगर
- लोरी ग़रीब माँ की
- वह अनामिका
- विदेशी रक्षा-बन्धन
- विवश अश्व
- शिकारी
- संवेदनशील कवि
- सती इक्कीसवीं सदी की
- समय की चादर
- सोच
- सौतन
- हेर-फेर भिन्नार्थक शब्दों का
- 14 जून वाले अभागे अप्रवासी
- अपने-अपने दुखड़े
- गये बरस
ग़ज़ल
किशोर साहित्य कहानी
कविता - क्षणिका
सजल
चिन्तन
लघुकथा
- अकेलेपन का बोझ
- अपराधी कौन?
- अशान्त आत्मा
- असाधारण सा आमंत्रण
- अहंकारी
- आत्मनिर्भर वृद्धा माँ
- आदान-प्रदान
- आभारी
- उपद्रव
- उसका सुधरना
- उसे जीने दीजिए
- कॉफ़ी
- कौन है दोषी?
- गंगाजल
- गिफ़्ट
- घिनौना बदलाव
- देर आये दुरुस्त आये
- दोगलापन
- दोषारोपण
- नासमझ लोग
- पहली पहली धारणा
- पानी का बुलबुला
- पिता व बेटी
- प्रेम का धागा
- बंदीगृह
- बड़ा मुँह छोटी बात
- बहकावा
- भाग्यवान
- मोटा असामी
- सहानुभूति व संवेदना में अंतर
- सहारा
- स्टेटस
- स्वार्थ
- सोच, पाश्चात्य बनाम प्राच्य
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता-मुक्तक
कविता - हाइकु
कहानी
नज़्म
सांस्कृतिक कथा
पत्र
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
एकांकी
स्मृति लेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
पाण्डेय सरिता 2021/05/15 10:45 AM
वाकई नाजुक रिश्ते होते हैं।