सहारा
कथा साहित्य | लघुकथा मधु शर्मा1 Nov 2023 (अंक: 240, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
फ़िल्म पाकीज़ा की साहिबजान की भाँति उसने भी एक छोटा सा पत्र बहुत सम्भाल कर रखा हुआ है। और रखे भी क्यों न! बरसों से यही तो उसका एक सहारा बना हुआ है जो उसे अकेलेपन से निकालकर कर किसी और ही दुनिया में पहुँचा देता है।
दिन भर की थकी-हारी हर रात की तरह आज भी सोने से पहले वह उसे बार-बार पढ़ रही है:
“आप मुझे नहीं जानती लेकिन मैं आपके बारे में जान चुका हूँ कि:
'झेलती ढेरों दुख फिर भी सदा मुस्कुराती दिखती हो,
भला सभी का करती हुई तुम भली सी देवी लगती हो।’
मैं ख़ुद को यही सोच-सोचकर हर पल बेबस महसूस करता हूँ कि अपनी ज़िम्मेदारियों की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ मैं न तो आपको अपना सकता हूँ, और न ही कभी इन ज़ंजीरों को तोड़कर आपके साथ क़दम से क़दम मिलाकर चल पाऊँगा। क्योंकि यह दुनिया मुझे तो मर्द समझ देखा-अनदेखा कर देगी, लेकिन आपकी पहले से ही उथलपुथल हुई ज़िंदगी को यह पूरी तरह से ही बरबाद कर देगी।
अब तो भगवान से बस यही माँगा करता हूँ कि अगले जन्म में मुझे आप ही जीवन-संगिनी के रूप में मिलें।”
एक छोटे से लुभावने फ़्रेम में जड़े उस ख़त पर अपनी उँगलियाँ फेरती हुई वह हमेशा की तरह बुदबुदाने लगी:
“मैं जानना भी नहीं चाहती कि आप कौन हैं! मेरे लिए इतना ही जानना काफ़ी है कि इस निष्ठुर संसार में भी कोई ऐसा है जिसने मेरे कष्ट को जाना है।”
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