स्वार्थ
कथा साहित्य | लघुकथा मधु शर्मा1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
यह वही घुटन, उदासी, अकेलेपन का अहसास या वही बेचैनी तो बिलकुल न थी, जो उसने विदेश आते ही कुछ ही दिनों में महसूस करनी शुरू कर दी थी . . . और जो उसके मम्मी-पापा के आने पर धीरे-धीरे कम होती चली गई थी। लेकिन कुछ तो था जिसकी कसक, जिसके अभाव के कारण वह अब खोई-खोई व अनमनी सी रहने लगी थी।
अपने बेडरूम में काफ़ी समय तक करवटें बदलते रहने के बाद भी जब नींद उसके पास फटकी नहीं, तो उसने सोचा, चलो कुछ देर मम्मी-पापा के पास नीचे जाकर बैठती हूँ। अभी वे सोने के लिए अपने कमरे में ऊपर नहीं आये थे। ड्रॉइंग-रूम में उनकी बातें करने की आवाज़ जो आ रही थी।
ऐल्फ़ा की कहीं नींद न टूट जाये, इसलिए आहिस्ता से अपना गाउन पहन कर, अँधेरे में ही उँगलियों से अपने बिखरे बालों को यूँ ही सँवार कर जब वह सीढ़ियों से नीचे उतरने ही वाली थी कि अपना नाम सुनकर और पापा की ऊँची आवाज़ सुनकर वहीं लैंडिंग पर रुक गई। वह अपनी पत्नी से कह रहे थे, “देखो, हमारी अनु के लिए इतना अच्छा रिश्ता फिर न मिल पायेगा! तुम कैसी माँ हो जो औरत होकर एक औरत का दर्द न सही, एक बेटी का तो . . . “
“लेकिन आप भी मेरी तरह दूर की क्यों नहीं सोच रहे?” अपने पति की पूरी बात सुने बिना अनु की मम्मी ने टोकते हुए कहा, “यह तो अच्छा हुआ कि उसके ससुराल व पति द्वारा सताए जाने का मालूम होने पर, मैं यहाँ इंग्लैंड पहुँचते ही उस नर्क से उसे निकाल लाई। फिर आपको भी यहीं बुलवा लिया। अब देखें न, कितने आराम से हम तीनों की ज़िंदगी कट रही है। अपने में ही मस्त रहने वाले हमारे बेटे-बहू ने वहाँ इंडिया में हमारी कभी रत्ती भर भी चिन्ता नहीं की थी।”
“आराम की हमारी ज़िंदगी तो इंडिया में भी कट रही थी, अनु की मम्मी! बेटी की ज़िंदगी तबाह हो गई और तुम इसे आराम की . . . अभी उसकी उम्र है तो शादी कर देंगे तभी तो माँ बन पायेगी। नहीं तो टालते-टालते जब क़ुदरत भी उसका साथ न दे पाएगी, तुम तब बहुत पछताओगी।”
“न जी न, मैं उसके साथ दुबारा वही ससुराल का सिरदर्द या किसी पति का ज़ुल्म उसे सहने नहीं दूँगी। रही माँ बनने की बात . . . तो आपने देखा ही है कि वह अपनी जॉब के साथ-साथ ऐल्फ़ा की मौजूदगी में कितनी ख़ुश रहती है। आजकल के छोटे से छोटे बच्चे तक अपनी ही दुनिया में इतने बीज़ी हैं कि अपने पेरंट्स को कहाँ ऐसा प्यार, इतनी ख़ुशी दे पाते हैं . . . हमारी अनु ऐसी ही भली . . .।”
“तो तुम एक कुत्ते को सन्तान के मुक़ाबले में कहीं बेहतर समझती हो? तुमने तो माँ होते हुए भी ख़ुदगर्ज़ी की हद ही कर डाली। ख़बरदार! फिर कभी तुमने ऐसी बात मुँह से निकाली तो . . .।”
सोफ़े पर से अपने पापा के उठने की आवाज़ सुन अनु दबे पाँव अपने कमरे में लौट आई। एक ओर अपनी मम्मी का स्वार्थ जानकर बहुत आहत हुई तो दूसरी ओर अपने पापा के प्रति आदर व प्यार उमड़-उमड़ कर आ रहा था। उसे आश्वासन हो गया कि उसकी कसक का हल पापा शीघ्र ढूँढ़ निकालेंगे।
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