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रामलीला से जुड़ी हास्यप्रद स्मृतियाँ

 

पिछले सप्ताह टीवी पर महाकुम्भ से सम्बंधित समाचार देखते हुए कुछ महान सन्तों व कथाकारों के संदेश भी सुनने को मिले। मैं इतनी धार्मिक तो नहीं, हाँ आध्यात्मिकता के प्रति रुचि अवश्य है। इसलिए महाकुम्भ में आयोजित ढेरों कथाओं में से एक विशेष कथाकार की राम-कथा बहुत भायी। वह धर्म का इतना प्रचार नहीं करते जितना कि सादा से शब्दों का प्रयोग कर सहज जीवन जीने का। उनके मुख से फ़िल्मी धुन पर रामचरितमानस की चौपाइयाँ मधुर लय में सुनकर मुझे बचपन में देखी रामलीला के कलाकारों द्वारा गाये कुछ गीतों की स्मृति हो आई, और साथ ही साथ रामलीला से जुड़ी कुछ हास्यप्रद बातें भी। 

चंडीगढ़ शहर, जहाँ मैं पली-बड़ी हुई, सैक्टर में विभाजित किया गया है और प्रत्येक सैक्टर को तीन या चार क्षेत्र में बाँट कर उन्हें ए, बी, सी, डी का नाम दे दिया गया है। अधिकतर क्षेत्रों के बीचों-बीच एक पार्क अवश्य है। 

दशहरे से दो माह पहले रामलीला-कमेटी वाले अपने-अपने सैक्टर के निवासियों के घर चंदा माँगने आते थे। पूछने पर कि इस दफ़ा रामलीला के लिए कौन-सा मैदान चुना गया है, तो वे उसी महल्ले के पार्क की ओर ही इंगित कर कहते, “सोच रहे हैं यहीं करें लेकिन अभी कमेटी वाले कोई निर्णय नहीं ले पाये हैं।”

और जब दशहरे से दो सप्ताह पहले उन्हीं तीन-चार मैदानों में से किसी एक के किनारे रामलीला-मंच के लिए बड़े-बड़े लोहे के ड्रम व ढेरों लकड़ी का सामान ठेलों द्वारा लाकर उतारा जा रहा होता तो बच्चों में यह समाचार आग की तरह फैल जाता। फिर न पूछिए कि वे दिन काटे न कटते कि रामलीला शीघ्र आरम्भ हो। 

मेरे माता-पिता रामलीला देखने नहीं जाया करते थे। परन्तु भला हो हमारे महल्ले की एक आँटी का, जिन्हें फ़िल्मों सहित रामलीला देखने का भी बहुत शौक़ था। वह प्रसन्नता से अपनी बेटियों सहित हम सात-आठ लड़कियों को फ़िल्म भी और रामलीला भी दिखाने ले जातीं। यहाँ तक कि यदि उन्हें मालूम हो जाता कि आज हमारी वाली रामलीला में कोई विशेष प्रसंग नहीं खेला जाएगा तो वह समीप वाले सैक्टर की रामलीला दिखाने ले जातीं, और हम उमंग से भरे बच्चे उनके तेज़ क़दमों के साथ क़दम मिलाते पन्द्रह-बीस मिनट में ही वहाँ पहुँच जाते। 

प्रतिदिन स्कूल से लौटते हुए हम अपने सैक्टर वाली रामलीला में तो दस-बारह ईंटें मंच के बिल्कुल सामने रखकर चार-पाँच घंटे पहले ही उन नौ दिनों अपनी सीट रिज़र्व कर लिया करते। लेकिन वह अन्य सैक्टर वाली रामलीला कभी-कभी पीछे खड़े होकर देखनी पड़ती थी, क्योंकि पहुँचते-पहुँचते देर हो ही जाती थी। 

एक वर्ष तो रामलीला का मंच हमारे ही घर के समीप वाले मैदान में यूँ बनाया गया कि उसके पिछले भाग में हो रही सारी गतिविधियाँ हम अपने छज्जे से देख सकते थे। यदि किसी रात वह आँटी किसी कारणवश हमें रामलीला दिखाने न ले जा पातीं तो हम अपने छज्जे में ही एक-आध घंटा खड़े हो, वहाँ से आ रही आवाज़ सुनकर ही सन्तुष्ट हो लिया करते। एक दिन जब माँ सीता का रोल निभाने वाले कलाकार ने अपना दृश्य पूरा करते ही मंच के पीछे आकर सिगरेट सुलगाई तो मेरा भाई चिल्लाया “अरे, माता सीता तो सिगरेट पी रही हैं।”
वैसे महीनों-महीनों हम बच्चे रामलीला के कलाकारों को उन्हीं के पात्र वाले नाम से ज़ोर से पुकार कर या तो समीप ही कहीं छुप जाया करते या उड़न-छू हो जाते कि कहीं यही हनुमान जी या रावण महाराज क्रोधित हो हमारी धुनाई न कर दें। 

अब अंत में यदि रामलीला में गाये उन फ़िल्मी धुनों के गीतों का उल्लेख न किया जाये तो यह संस्मरण अधूरा ही रह जायेगा। क्योंकि इतने वर्षों पश्चात वहाँ सुनी गई सभी की सभी शे'अर-ओ-शायरी तो भूल चूकी हूँ, केवल कुछ-एक गीतों की पहली पंक्ति याद आ रही है, और सम्भवतः आप पाठकों को कुछ और भी याद हो। वैसे आधुनिक रामलीला में भी गीत-संगीत तो चलता ही होगा तो कौन-कौन से गीत प्रचलित हैं, आपसे जानने की इच्छुक हूँ:

सीता-स्वयंवर के दृश्य में एक-दुक्का राजा यह शे'अर अवश्य बोलता था: 

“शीशी भरी गुलाब की पत्थर से तोड़ दूँ, 
यह धनुष तोड़ न पाऊँ तो जीना छोड़ दूँ।”

और फ़िल्मी धुन पर वे कुछ गीत:

  • रानी कैकेयी को कोपभवन में पाकर राजा दशरथ फ़िल्म भरोसा का गीत ‘वो दिल कहाँ से लाऊँ तेरी याद जो भुला दे॥’ की धुन पर ‘महलों में क्यों उदासी छाया हुआ अँधेरा॥’ गाया करते थे। 
  • भरत का अपने प्रिय भाई राम को ढूँढ़ते हुए रुदन भरा गीत, ‘बोलो ए ज़मीन बोलो आसमान, कौन सी दिशा में गये मेरे भइया राम॥’ फ़िल्म चक्रधारी के गीत को वैसे का वैसा ही प्रस्तुत किया जाना। 
  • रावण के ठाठ-बाट दिखाने हेतु ‘नज़र लागी राजा तोरे बँगले पर॥’ फ़िल्म काला पानी का प्रसिद्ध गीत हू-ब-हू उसी अन्दाज़ में एक नर्तकी द्वारा पेश किया जाना। 
  • प्रभु राम जब मानवीय-लीला करते हुए बेहोशी की सी अवस्था में ‘सोने की चिड़िया’ का गीत ‘रात भर का है मेहमान अँधेरा॥’ की धुन पर ‘सिया सिया पुकारूँ मैं वन में, मेरी सीता बसी मेरे मन में॥’ गाते थे तो हम बच्चे सोच में पड़ जाते कि इन्हें भगवान होकर भी क्यों नहीं मालूम कि सीता जी कहाँ है? 
  • लक्ष्मण-मूर्छा वाले दृश्य में भगवान राम ‘जागते रहो’ फ़िल्म का गीत ‘जागो मोहन प्यारे॥’ की धुन पर ‘जागो लक्ष्मण भइया . . . ‘ गा-गाकर रोते और साथ में सभी माताओं व हम बच्चों को रुला दिया करते थे। 

अब तो मैंने निश्चय कर लिया है कि यदि जीवन रहा, और मेरा फिर से कभी भारत आकर चंडीगढ़ जाना हुआ तो रामलीला के दिनों में ही आऊँगी। बीसवीं व इक्कीसवीं सदी के उस पचास वर्षों के अंतराल में रामलीला में कितना अन्तर आ चुका है, आप पाठकों के साथ अवश्य साझा करूँगी। 

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