कौन है दोषी?
कथा साहित्य | लघुकथा मधु शर्मा23 Feb 2015
आज फिर बिस्तर से बाहर निकलते-निकलते दोपहर होने को आईI वैसे उसकी आँख तो आठ-साढ़े आठ बजे तक खुल जाती है, मगर हर रोज़ वही पुरानी यादों की लड़ी एक बार जब शुरू होती है तो रुकने का नाम ही नहीं लेती।
यह सिलसिला पिछले 4 -5 सालों से यूहीं चल रहा है।
शुरू-शुरू में उसने इसे 'मिड-लाईफ़-क्राइसिस’ समझ नज़रअंदाज़ कर दिया। फिर कभी बेरोज़गार होने का, कभी तलाकशुदा होने की वज़ह से अकेलेपन का दोष भगवान पर थोपना शुरू कर देता। मगर वो भूल गया था कि उसकी बीवी जब बच्चों को लेकर अलग हो गयी थी तो उसने कितनी लम्बी चैन की साँस ली थी?
ज़िम्मेवारी से वो शुरू से ही बचता आया था। तभी तो घरवालों ने उससे पीछा छुड़ाने के लिए उसकी 20 साल की उम्र में ही शादी कर दी थी। और जब न बीवी रही, न बच्चे, न कोई नौकरी, तो कभी इधर, कभी उधर,कभी दोस्तों के साथ मस्ती करता लापरवाही से ज़िन्दगी काट रहा था। मगर ऐसे आदमी के दोस्त भी ज़्यादा दिन कहाँ नहीं टिकते हैं। अब बिस्तर पर पड़ा-पड़ा अपनी इस हालत का ज़िम्मेवार (ख़ुद को छोड़ कर) कभी अपने घरवालों को, कभी भगवान को, कभी दोस्तों को और कभी सरकार को ठहराता रहता है।
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