अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उसे जीने दीजिए

आज वह न जाने कितने वर्षों पश्चात सिटी-मॉल में शॉपिंग के लिए आई थी। अवसर ही ऐसा था . . . उसका इकलौता बेटा अगले सप्ताह पाँच बरस का होने जा रहा था। उसके व स्वयं के दोस्तों के साथ मिलकर बेटे का जन्मदिन मनाने की उसमें पहली बार कुछ हिम्मत आई थी। उसके पाँव धरती पर टिक नहीं पा रहे थे। शीघ्र ही उसने शॉपिंग-लिस्ट में लिखी हुईं सब चीज़ें, उपहार व घर सजाने का सामान इत्यादि ख़रीद लिया। 

जैसे ही वह मॉल से बाहर निकली तो अपनी मम्मी की पुरानी दो सहेलियों से टकरा गई। मम्मी के स्वर्गवास हो जाने के बाद आज उन दोनों को इतने बरसों के बाद मिलने पर वह ख़ुशी से फूली न समाई। उसने अभी उनका हाल-चाल पूछा ही था कि पहली महिला अपनी सहेली को सम्बोधित कर उसी के सामने बोली, “देखो न, इस बेचारी को! हमारे मोहल्ले की सबसे ज़्यादा सुन्दर और समझदार लड़की थी . . . इसीलिए भाईसाहब को इसके लिए झट से अच्छा वर और ससुराल मिल गया। लेकिन दो ही सालों में इसकी शादी टूट गई।”

“अच्छा? मुझे तो यह बात मालूम ही नहीं थी। चलो, अपना पता दो, हम तुम्हारे घर अफ़सोस करने आएँगे,” दूसरी महिला ने अपनी ऊँची आवाज़ में उससे सहानुभूति जताते हुए कहा। 

चेहरे पर बनावटी मुस्कुराहट लाते हुए उसने उन महिलाओं को यह कह कर टाल दिया, “छोड़ें न आंटी . . . यह बात पुरानी हो गई है। आपका टेलीफ़ोन नम्बर मेरी पुरानी डायरी में है सो आपको मैं फ़ोन करके अपना एड्रैस बता दूँगी। सॉरी, अभी तो मैं जल्दी में हूँ।”

यह कह कर वो तेज़ी से कार-पार्क की ओर चल दी। लेकिन रास्ते में ही रुक गई व फूट-फूट कर रोने लगी। जिन हल्के-फुल्के पाँव से वह घर से शॉपिंग के लिए निकली थी, अब वही उसे पत्थर की तरह भारी महसूस हो रहे थे। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जिन घावों को भरने की वह इतनी कोशिशों में लगी हुई है, यह दुनिया उन्हें बार-बार कुरेदने से कब बाज़ आएगी? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कहानी

कविता

सजल

हास्य-व्यंग्य कविता

लघुकथा

नज़्म

कहानी

किशोर साहित्य कविता

चिन्तन

सांस्कृतिक कथा

कविता - क्षणिका

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

एकांकी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं