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आने वाला कल

गिरवी रखवा के अपना ज़मीर साहूकारों को, 
बेचते मिलेंगे लोग शर्म, कुछ दुकानदारों को। 
 
बोलबाला था सच का किसी ज़माने में कभी, 
ढूँढ़ रही होगी नस्लें हमारी उन ईमानदारों को। 
 
छीन के दिन-दहाड़े हक़ असली मालिकों का, 
दस्तावेज़ दे दिये जायेगें नक़ली हक़दारों को। 
 
पड़ रहे ताले होंगे चर्च, मंदिर और गुरद्वारों को, 
पड़ेगा न कोई फ़र्क मगर धर्म के ठेकेदारों को। 
 
धरती वही, दुनिया वही फिर गड़बड़ी कैसे हुई, 
समझ न आ सकेगी यह बात, समझदारों को। 

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