अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कलंक तलाक़ का

थकान से चकनाचूर हुई आभा ने घर में घुसते ही गोद में सोई हुई अपनी चार वर्षीय बेटी को सोफ़े पर लिटा दिया। बच्ची नींद में कसमसाती रही लेकिन आभा ने जैसे-तैसे उसके कपड़े बदले व उसी के बैडरूम में ले गई। 

आधे घंटे में ख़ुद भी फ़्रैश होकर, रसोई समेट अपने बैडरूम में आई तो रात के लगभग दस बजने वाले थे। लेकिन इतनी थकावट के बावजूद भी उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। आज पूरे दिन की और पिछले तीन-चार दिनों की भाग-दौड़ ने शारीरिक रूप से चाहे उसे थका दिया था, परन्तु मानसिक तौर पर वह अपने आपको बहुत ही हल्का-फुल्का महसूस कर रही थी। पूरा दिन नये-नये लोगों के साथ मिलने-जुलने में कैसे बीत गया, उसे आभास ही न हुआ। 

इतने में उसके फ़ोन की घंटी बजी तो अपने विचारों का ताँता टूट जाने से आभा हड़बड़ा उठी। सोचने लगी कि इस समय तो नवीन ही फ़ोन कर सकता है, लेकिन वह अपने घर अभी कहाँ पहुँचा होगा! और फिर पार्टी के बाद सभी मेहमानों को विदा कर उसने कितने अपनेपन से माँ-बेटी दोनों को आश्वासन दिया था, 

“अब कल सुबह ही फ़ोन पर बात होगी। रात गये मैं तुम्हें फ़ोन करके डिस्टर्ब नहीं करूँगा। हाँ, केवल टैक्स्ट कर इनफ़ॉर्म कर दूँगा कि घर पहुँच गया हूँ . . .।” 

बिस्तर के हैडबोर्ड का सहारा लेकर आभा ने कमर सीधी की और फ़ोन उठाया। उसे घबराहट हो रही थी कि कहीं रास्ते में नवीन की कार तो ख़राब नहीं हो गई? लेकिन फ़ोन की स्क्रीन पर शिल्पा का नाम देख चौंक गई। आज ही की पार्टी में उससे पहली बार मुलाक़ात हुई थी। वहीं शिल्पा ने उसके मोबाइल फ़ोन का नम्बर माँगा था, साथ ही अपना भी दे दिया था। नवीन की एक सहकर्मी मिसेज़ गोयल रात को ड्राइविंग न कर सकने के कारण अपनी छोटी बहन शिल्पा के साथ उसकी कार में इस पार्टी में आई थीं। 

“हैलो शिल्पा?” आभा ने अपनी वाणी में सहजता लाते हुए पूछा, “आप और मिसेज़ गोयल ठीक-ठाक घर पहुँच गई थीं न?” 

“जी . . . आभा जी, ” शिल्पा कुछ हिचकिचाते बोली, “सॉरी, इतनी रात गये फ़ोन कर रही हूँ . . . मुझसे आपका थैन्क्स किये बिन रहा न गया। मैं न तो आप से, न ही नवीन जी से पहले कभी मिली हूँ . . . लेकिन फिर भी दीदी के साथ आपने मुझे भी इन्वाइट किया . . . “

“नो प्रॉबल्म, इस फ़ॉरमैल्टी की क्या ज़रूरत थी? अब जानपहचान हो ही गई है तो मिलते-मिलाते रहेंगे।” 

“आभा जी, आप बहुत अच्छी हैं . . . तभी तो नवीन जी ने आपको पसन्द किया होगा। और आज की आपकी इन्गेजमेंट-पार्टी का भी इतना बढ़िया इन्तज़ाम आप अकेली ही ने किया . . . वो भी नवीन जी के दोस्तों के लिये . . . क्योंकि आपने तो अपने सिर्फ़ तीन-चार ही मेहमान बुलाये थे!” 

“नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं शिल्पा। अब नवीन के लिए इतनी दूर दूसरे शहर से आना-जाना मुश्किल सा था। वैसे भी रैस्ट्राँ या मेन्यू वग़ैरह चैक करना . . . ये सब इन्टरनैट के ही ज़रिये सलाह-मशविरा कर आसानी से हो गया।” 

“वैसे आभा जी, नवीन जी से आपकी मुलाक़ात कैसे हुई थी? और दीदी बता रही थीं कि आप उन्हें सिर्फ़ आठ-नौ महीने से ही जानती हैं? और यह भी कह रही थीं कि वह शादी के बाद आप ही के घर में मूव हो जायेंगे। यह सब कुछ उल्टा सा नहीं लग रहा . . .?” 

आभा को ऐसे व्यक्तिगत प्रश्नों का उत्तर देना अजीब सा लगा . . . और वह भी एक अनजान सी लड़की को, जिसे वह आज ही केवल औपचारिक तौर पर ही मिली हो। इसलिए बात को आगे न बढ़ाते हुए आभा ने नम्रता से यह कहकर फ़ोन बंद कर दिया कि अभी थकी हुई हूँ। जब कभी फिर मिलेंगे तो खुलकर बातें होगी। 

चन्द महीनों पश्चात जब नवीन को आभा के शहर में नौकरी मिल गई तो दोनों ने बहुत सादगी से दो-चार दोस्तों को बुलाकर कोर्ट-मैरिज कर ली। वहाँ से घर पहुँच कर नवीन का सामान, जो केवल दो सूटकेस में ही था, आभा ने नवीन से पूछ कर या बता कर जहाँ-जहाँ जो कुछ भी रखना था, सही ढँग से सम्भाल कर रख दिया। 

परन्तु विवाह के कुछ दिन बीतते ही नवीन का आये दिन दिल दुखाने वाला रूखा सा व्यवहार देख कर आभा परेशान रहने लगी। बात-बात पर नवीन धौंस जमाते हुए प्राय: कह देता, “तुम तो तलाक़शुदा हो, और ऊपर से एक बच्ची की माँ भी . . . मुझे तो कुँवारी लड़कियों के रिश्ते आ रहे थे। लेकिन मैंने इस आस से तुमसे रिश्ता जोड़ लिया कि तुम्हारे पास अपना घर है, कमाती भी अच्छा हो तो पैसा भी काफ़ी जमा कर रखा होगा। इसीलिए तुमसे शादी करके अपना कोई बिज़नस खोलने की पूरी उम्मीद लगाये बैठा था। लेकिन तुम तो कंगाल निकलीं।” 

या कभी दवाब डालने लगता कि यह अपना घर बेचो व अपनी नौकरी छोड़कर एक भारतीय पत्नी होने के नाते मेरे साथ बिज़नस में हाथ बटाओ। उठते-बैठते नवीन कोई न कोई बिज़नस करने की नई-नई योजनाएँ बनाया करता। 

आभा इस मानसिक-प्रताड़ना को सहन करते-करते हीन भावना का शिकार होने लगी। उसके काम पर तो इसका बुरा प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगा, परन्तु साथ ही उसकी सदा मुस्कुराती नन्ही बच्ची भी अपनी मम्मी को हर समय मुरझाया सा देखकर चुप-चुप, डरी-सहमी सी रहने लगी। 
आभा का पहला पति अपनी शराब की बुरी लत के कारण नशे में धुत्त होकर आभा को अक़्सर बेरहमी से मारा-पीटा करता था। इस विदेश में कोई दूर-दूर का भी रिश्तेदार न होने के कारण वह अन्दर ही अन्दर घुटघुट कर उसके अत्याचारों को सह रही थी। लेकिन एक रात उस आदमी ने आभा को पीटते हुए इतनी ज़ोर से धक्का दिया कि वह दरवाज़े से टकराती हुई घर के बाहर आ गिरी। शोरगुल सुनकर पड़ोसी ने पुलिस के साथ-साथ ऐम्बुलैंस को भी फ़ोन कर दिया। 

सिर फट जाने के कारण आभा को हस्पताल भर्ती करा दिया गया। उस समय वह दो महीने की गर्भवती थी। प्रभु की कृपा से उसके गर्भ का बाल भी बाँका न हो पाया। परन्तु पुलिस वालों ने सोशल-सर्विस वालों को सूचित कर उसे वापिस घर जाने नहीं दिया। आभा पढ़ी लिखी तो थी ही इसलिए अपनी सोशल-वर्कर की सहायता से दूसरे शहर में नौकरी ढूँढ़ कर वहाँ किराये के कमरे में रहने लगी। और बच्ची होने के बाद अपना यह छोटा सा घर भी किश्तों में ख़रीद लिया। 

नवीन के दुर्व्यवहार के कारण वही मार-पीट व पुरानी कष्टदायी बातें अब रह रहकर आभा को फिर से याद आने लगीं। उस घरेलू-हिंसा और इस मानसिक-अत्याचार में अन्तर यह था कि शारीरिक घाव तो शीघ्र भर जाते थे . . . लेकिन नवीन द्वारा पहुँचाई गई मानसिक-पीड़ा व ताड़ना के कारण आभा सहित उसकी बच्ची का भी जीवन असहनीय बनता जा रहा था। बहुत सोच-समझ कर अब वह ऐसे निर्णय पर पहुँची, जो लाखों में से एक-आध ही महिला ले पाती है। 

“नवीन मैं . . . मैं . . . मैंने फ़ैसला कर लिया है . . . जो आपको शायद बुरा भी लगे . . . मेरा व बेटी का अब आपके साथ यूँ दिन-रात के लड़ाई-झगड़ों के बीच रहना बहुत मुश्किल हो गया है।” 

“तो क्या चाहती हो . . . क्याऽऽऽ चाहती हो? जैसे पहले हस्बैंड को छोड़-छाड़ कर अपनी नई ज़िंदगी बसर करने लग गई थीं . . . अब मुझे भी छोड़ कर क्या पहले की तरह रह पाओगी? यह सब भूल जाओ। एक बार तलाक़शुदा हुई औरत को दुनिया हमेशा बुरी नज़र से देखती है . . . और तुम . . . तुम 'डबल-डिवोर्सी' का कलंक माथे पर लगा कर किस मुँह से दुनिया का सामना करोगी? और तो और, तुम्हारी बेटी से भी रिश्ता जोड़ने का कभी कोई सोचेगा तक नहीं। अभी भी मेरे कहे पे चलोगी तो सही रहोगी!” 

ग़ुस्से में आग-बबूला हुआ नवीन बोलता चला जा रहा था, 

“मुझे तो घर बसाने के लिए कई मिल जायेंगी। वो मिसेज़ गोयल की बहन शिल्पा है न, वह भी अभी तक कुआँरी है . . . उन्होंने तो मुझे कितनी दफ़ा हिंट भी दिया था कि यहाँ क्या कुआँरी लड़कियों की कमी है जो तुम एक बच्ची की माँ से शादी करने जा रहे हो?” 

शिल्पा का नाम सुनते ही आभा चौंक गई। तो क्या . . . तो क्या इसीलिए उस रात शिल्पा ने फ़ोन किया था? 

“तो आपने उस समय हमारी इन्गेजमेन्ट तोड़ कर शिल्पा से क्यों नहीं शादी कर ली?” आभा ने भरे गले से पूछा। 

“अरे, निरा बेवकूफ़ था मैं . . . मेरी अक़्ल पर पत्थर पड़ गये थे! सोचा कि कहीं पाँच-पाँच बेटियों वाले उसके माँ-बाप की ज़िम्मेवारी, शिल्पा के सबसे छोटी बेटी होने के कारण, उसके साथ-साथ मुझ पर ही न लद जाये . . . तब तो मेरा बिज़नस का सारा प्लैन धरा का धरा रह जाता। अब मिसेज़ गोयल ने अपने पेरन्ट्स को अपने पास बुला लिया है, सो मेरी लाइन क्लियर . . . तुम भी तो अब मेरे किसी काम की नहीं रहीं . . .” 

“बस यही तो सोचकर मैं भी आपसे अलग होना चाहती हूँ। हमारी शादी की शुरूआत विश्वास व प्यार नहीं बल्कि झूठ और लालच के बेसिस पर हुई है। हाँ, काश . . . काश! आपने शादी से पहले ही अपना बिज़नस खोलने के प्लैन के बारे मुझे बताया होता। शायद उस वक़्त सोच-विचार कर आपके कंधे से कंधा मिला कर चलने पर राज़ी हो जाती।” 

अपनी बात जारी रखते हुए आभा बोली, “. . . और रही 'डबल-डिवोर्सी' वाले कलंक को लेकर बाक़ी की ज़िंदगी काटने की बात तो . . . तो झूठ व लालच के साथ रहने के बदले मुझे इस तरह का अकेला जीवन जीना मन्ज़ूर है। मैंने आज तक जानबूझ कर कभी किसी की आत्मा को नहीं दुखाया है . . . इसलिए भगवान भी मेरा या मेरी बेटी का कभी बुरा नहीं होने देंगे . . . मुझे पूरा विश्वास है।” 

आभा टूट सी गई परन्तु अपने निर्णय पर अटल रही। और फिर समय बीतते नवीन के साथ वही हुआ जो ऐसे लालची लोगों के साथ होता आया है। हर तरफ़ उसके विश्वासघाती होने का समाचार जंगल में आग की भाँति फैल चुका था। परिणाम स्वरूप जिन कुँआरी लड़कियों के साथ फिर से घर बसाने की उम्मीद लेकर वह बरसों पहले आभा के घर से निकला था . . . अब सारा जीवन उसे अपना सा मुँह लेकर यूहीं दर-बदर की ठोकरें खाकर बीताना पड़ रहा है। 

दूसरी ओर चूँकि आभा का भगवान के साथ-साथ स्वयं पर विश्वास हर पल दृढ़ बना रहा, तो क़दम-क़दम पर उसके साथ चलते हुए भगवान ने भी उसका व उसकी बेटी का जीवन-मार्ग काँटों रहित बनाये रखा। आज आभा के तीन नाती-नातिनें हैं। उसकी बेटी उसे माँ से अधिक एक सहेली की तरह चाहती है। और तो और, उसका दामाद भी अपने माँ-बाप की भाँति आभा को भी किसी बात की कोई कमी महसूस नहीं होने देता। 

नवीन द्वारा आभा को दिया गया ताड़ित नाम 'डबल-डिवोर्सी' आभा के लिए कलंक नहीं अपितु वरदान साबित हुआ . . . परन्तु अन्य महिलाओं का तलाक़ से संबंधित उसके पास परामर्श लेने आने पर वह उन्हें सदैव यही समझाती रही कि 'हो सकता है आपकी समस्या या आपकी परिस्थिति मुझसे भिन्न हो। इसलिए पहले से ही क्षमा चाहूँगी कि मैं इसके लिए न तो आपको उत्साहित करूँगी या किसी तरह का सहयोग दे पाऊँगी।'

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कहानी

कविता

सजल

हास्य-व्यंग्य कविता

लघुकथा

नज़्म

कहानी

किशोर साहित्य कविता

चिन्तन

सांस्कृतिक कथा

कविता - क्षणिका

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

एकांकी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं