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कथावाचक का मूड

 

 (गर्मी के इन दो-एक महीनों का ब्रितानिया वासी ही नहीं, अपितु अन्य देशों के विभिन्न वर्गों के लोग भी . . . चाहे वे यात्री हों, मित्र-सम्बंधी हों, व्यापारी या ग़ैरक़ानूनी प्रवासी . . . भरपूर आनन्द व लाभ उठाने को आतुर रहते हैं। उनमें से एक वर्ग के कुछ ही लोगों पर यह हास्य-व्यंग्य आधारित है) 

 

“यहाँ विदेश में कथा करने का आनन्द नहीं आया . . . कहाँ तो अपने देश में हमें सुनने हेतु हज़ारों की संख्या में भीड़ उमड़-उमड़ आती है . . . परन्तु यहाँ . . . यहाँ तो प्रत्येक कथा में मुश्किल से साठ-सत्तर ही श्रोता दिखाई दिये हैं!” कथावाचक महोदय प्रातःकाल पूजा करने की बजाय अकेले में अपने इकलौते नौजवान बेटे से शिकायत कर रहे थे। 

“लेकिन गुरु जी, आपको यही तो बताने आया हूँ कि कल रात ही जब मैंने हिसाब-किताब किया तो यह पाया कि आपको जितनी दक्षिणा यहाँ एक पूरे माह में मिली, उस विदेशी मुद्रा को यदि एक सौ पन्द्रह रुपयों से गुणा करें तो कुल मिलाकर इतनी राशी हमें अपने देश में पूरा वर्ष भी कभी नहीं मिली। और आप यह भी न भूलिए कि हमारे अपने दो-एक साजिंदों को छोड़कर मंडली के बाक़ी लोगों ने विदेश देखने के लालच में हमें पाँच-पाँच लाख रुपये दिये थे। उसके बदले आपके द्वारा उन्हें आपकी मंडली का सदस्य दिखाये जाने पर उन्हें भाग-दौड़ किए बिना यहाँ का वीज़ा मिलने सहित यजमानों द्वारा भेजा गया आने-जाने का टिकट, मुफ़्त खाने-पीने व ठहरने की सुविधाएँ भी मिल गईं।”

“अरे वाह बेटा! तुमने तो कल रात से बिगड़ा मेरा सारा मूड सही कर दिया . . . सुखी रहो। अच्छा तो, अब ऐसा कुछ करो कि यहाँ से लौटने से पहले अभी से आगामी वर्ष के आयोजनों के लिए यजमानों की लम्बी सी लिस्ट बन जाये। रही बात कि मंडली में हमारे साथ किस-किसको लाया जायेगा, उसकी चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं . . . क्योंकि विदेश आने के लिए पहले से ही ढेरों लोग हम पर आस लगाये बैठे होंगे।”

यह कहकर कथावाचक अपना फ़ोन खोलकर होटल के गद्देदार बिस्तर पर आराम से पसर गये। वीडियो-कॉल पर वहाँ अपने देश में नाराज़ बैठी पत्नी को मना रहे थे कि यहाँ अगले साल आने की तैयारी कर लो . . . इस बार साथ न आ पाने की कसर अगली दफ़ा पूरी कर लेना। 

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