अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उपद्रव

 

(यह काल्पनिक लघुकथा यथार्थ में हो रहे इंग्लैंड के मुख्य-मुख्य शहरों में जातिवाद के कारण 29 जून से आरम्भ हुए उपद्रवों से क्षुब्ध हो मुझे लिखनी पड़ी।) 

 

“कहाँ हो यार? कब से तुम्हें फ़ोन लगाने की कोशिश कर रहा हूँ! और तुम हो कि . . .”

“यार फ़ोन करता भी तो कैसे। मॉम ने मेरा फ़ोन ज़ब्त कर लिया था . . . जब से तुमने मीडिया पर वह पोस्ट डाली कि इन रेसिस्ट (जातिवाद) दंगों का फ़ायदा उठा कर मॉल पर धावा बोला जाये। जिस किसी को भी महँगे-महँगे ब्रैंड का माल लूटना है तो आ जायें . . .”

“लेकिन मेरी ही बात मुझे ही क्यों बता रहे हो? मैंने तो तुमसे सिर्फ़ यही पूछना था कि कल मेरे साथ आ रहे हो न दुकानें लूटने, शहर के बड़े मॉल के कोने वाली गली में?” 

“नहीं, बिलकुल भी नहीं। और तुम्हें भी यह सब अभी और इसी वक़्त रोकना होगा। मॉम ने इसी शर्त पर मेरा फ़ोन मुझे लौटाया है ताकि मैं तुम्हें नये हालात से अपडेट कर सकूँ।”

“क्या यार, अब कौन-सी क़यामत आ गई कि लूटमार में तुम्हारे जैसा हमेशा आगे रहने वाला . . .”

“तो सुनो! अभी चन्द मिनट पहले ही हमारे ही लोकल रेडियो के एक शो के दौरान हमारे ही रीलिजन (धर्म) की एक आंटी ज़ोर-शोर से धमकियाँ दे रही थीं। कह रही थीं, ‘अगर इस शहर के हमारे लड़के भी दूसरे शहरों में हुए दंगे-फ़साद की तरह फ़ायदा उठाकर जुलूस निकालेंगे या लूटमार करेंगे, तो वह भी अथॉरटिज़ (प्राधिकारियों) की मंज़ूरी से अपनी ही सैंकड़ों बड़ी-बूढ़ी औरतों को लेकर वहाँ पहुँच जायेंगी। देखते हैं ये हुल्लड़बाज़ लड़के हमारा ब्लॉकेज (नाकाबंदी) कैसे तोड़ पाते हैं! उल्टा हम ही से पिट जाएँगे’।

“ . . . अब यार ज़रा सोचो। शादी-ब्याह के कार्ड की बात तो दूर रही, हमारे मर्द लोग अपने घर की औरतों की क़ब्र तक पर उनका नाम लिखवाना बुरा समझते हैं . . . तो क्या उन्हें यूँ घर से बाहर निकल कर टीवी, न्यूज़पेपर और दूसरे मीडिया वालों के सामने इस तरह ख़ुलेआम आने देना चाहेंगे?” 

अपने मित्र की बात सुनकर पहले वाले नवयुवक के मुख पर हवाइयाँ छूटती दिखाई दीं। और उसी पल उसने मीडिया पर अपनी नई पोस्ट डाली। जिसके तुरंत प्रसारित होते ही पासा ही पलट गया। 

कहाँ तो उस शहर सहित आसपास के शहरों के सैंकड़ों ऊधमी नवयुवक उसी की पोस्ट की अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे थे कि उनका यह ‘लीडर’ कब निश्चित स्थान व समय शीघ्रातिशीघ्र बताये ताकि आनेवाले दिन में वे सभी पुलिस से बचते-बचाते वहाँ पहुँच कर जुलूस के बहाने लूट-मार कर पायें। 

परन्तु अब . . . अब उपद्रव करने का कुविचार त्याग यह सुविचार उनपर हावी हो चुका था कि अपनी माँ-बहनों पर किसी भी प्रकार की कोई आँच न आने पाये। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कहानी

कविता - क्षणिका

सजल

ग़ज़ल

कविता

चिन्तन

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता-मुक्तक

कविता - हाइकु

कहानी

नज़्म

किशोर साहित्य कविता

सांस्कृतिक कथा

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

एकांकी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं