अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

क्षमा

 

आये दिन हमारे घर-गृहस्थियों, काम-काज, विद्यालयों इत्यादि से लेकर समाज तक में ऐसी-ऐसी चिंताएँ उभर कर सामने आ जाती हैं, जिन पर यदि चिंतन न किया गया तो शीघ्र ही वे कैंसर रूपी कीड़ा बनकर हमारे भीतर घर कर जायेंगी या नासूर बन इंसानियत को मिटा डालेंगी।

 

क्षमा

कमल को अपनी ननद का फ़ोन आया कि शीघ्र हस्पताल पहुँचो। डाक्टर ने जवाब दे दिया है और मम्मी तुमसे अभी मिलना चाहती हैं।

रास्ते भर कमल सोचती रही कि अब और कौनसा दोष बाक़ी रह गया, जो बीजी बरसों पहले घर से निकाल कर आज मुझे याद कर रही हैं? परन्तु उनसे मिलते ही उसकी आशंका आश्चर्य में परिवर्तित हो गई। उसकी सास उसे देखते ही अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहने लगीं, "मैंने तुम्हारे साथ सही नहीं किया। पहले अपने बेटे को, फिर सभी रिश्तेदारों को तुम्हारे चरित्र के बारे उल्टा-सीधा बोल तुम्हारे ख़िलाफ़ कर दिया। अब यह मुँह लेकर परमात्मा के सामने कैसे जा पाऊँगी . . . हाँ, अगर तुम माफ़ कर दो तो . . ."

कमल कुछ न कह सकी और वहाँ रुके बिना रोती हुई कार में जा बैठी। पिछले दस वर्षों की आपबीती उसकी आँखों के आगे से चंद ही पलों में एक चलचित्र समान आई व चली गई। सोचने लगी कि "बीजी को आज माफ़ी माँगनी इसलिए याद आ गई जब उनके जाने का समय आ गया? लेकिन मेरा तो सब ख़त्म हो चुका है! पति ने मुझे छोड़कर दूसरी शादी कर ली, दिमाग़ी बीमारी और चरित्रहीन का दोष थोपकर दो साल का मेरा बेटा मुझसे छीन लिया गया। मेरे क्षमा कर देने से बीजी तो हल्की हो जाएँगी . . . मगर क्या मेरी उजड़ी ज़िंदगी फिर से बस जायेगी?"

कमल अपनी कार में बैठी-बैठी समाज से प्रश्न करना चाहती थी कि "क्या मैं वापिस जाकर उन्हें कह दूँ कि 'माफ़ किया' क्योंकि क्षमा माँगने वाले से बड़ा क्षमा कर देने वाला होता है . . . या कार वापस घुमा कर घर चली जाऊँ?"

चिंतन: कुछ लोग यूँ ही अन्याय द्वारा पहले तो दूसरों का जीवन बरबाद कर देते हैं। फिर अपना अंतिम समय समीप आने पर उन सभी से क्षमा माँग कर जाते-जाते अपने मन का बोझ हल्का कैसे कर लेते हैं?

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

25 वर्ष के अंतराल में एक और परिवर्तन
|

दोस्तो, जो बात मैं यहाँ कहने का प्रयास करने…

अच्छाई
|

  आम तौर पर हम किसी व्यक्ति में, वस्तु…

अनकहे शब्द
|

  अच्छे से अच्छे की कल्पना हर कोई करता…

अपना अपना स्वर्ग
|

क्या आपका भी स्वर्ग औरों के स्वर्ग से बिल्कुल…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य कविता

किशोर साहित्य कविता

कविता

ग़ज़ल

किशोर साहित्य कहानी

कविता - क्षणिका

सजल

चिन्तन

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता-मुक्तक

कविता - हाइकु

कहानी

नज़्म

सांस्कृतिक कथा

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

एकांकी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं