सरहदें
संस्मरण | स्मृति लेख मधु शर्मा9 Feb 2015
"ए लड़के, इन्हें कहाँ लेकर जा रहा है?" उस पुलिस ऑफ़िसर ने अपनी खड़ी जीप में से तेज़ी से बाहर निकलते हुए हुए ऊँची आवाज़ में, मेरी बगल में चलते हुए उस नौजवान से पूछा, जो हमारी कोच का ड्राइवर था। इससे पहले वो बेचारा घबरा कर कुछ कहता, मैंने हँसते हुए जवाब दिया,
"ऑफ़िसर, यह नहीं, बल्कि मैं इसे ले जा रही हूँ, वो सामने मोची के पास, क्योंकि मेरे इस हैंडबैग का स्ट्रैप टूट गया है।"
तब वो ऑफ़िसर नरम आवाज़ में मुझसे बोला, "मगर आपके ग्रुप में से किसी को भी इधर-उधर जाने की इज़ाज़त नहीं, चलिये मैं साथ चलता हूँ।"
मोची ने दो ही मिनटों में बड़ी बाखूबी से उस स्ट्रैप को सी दिया। मैं उसे पैसे देने के लिए अभी पर्स में से नोट निकाल ही रही थी कि उस ऑफ़िसर ने झट से 20 रु. मोची को थमा दिए। मेरे बहुत मना करने पर वो बड़े अदब से बोला, "आप का देना नहीं बनता क्योंकि आप लोग हमारे मेहमान हैं।" यह सुन मेरी आँखों में पानी आ गया।
यह घटना मेरे साथ हाल ही में घटी, जब हमारा 325-30 का ग्रुप गुरु नानकदेव जी के प्रकाश-उत्सव पर नवम्बर में 12 दिन की ‘यात्रा’ के लिए इंग्लैंड से पाकिस्तान गया हुआ था।
मैं यह दावे के साथ कहती हूँ कि: "भारत और पाकिस्तान की सरहदों की बीच चाहे कितनी भी मज़बूत और ऊँची दीवारें खड़ी हों, मगर इन दोनों मुल्कों के लोगों के दिलों में कोई दीवार खड़ी नहीं कर सकता।"
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