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सोच, पाश्चात्य बनाम प्राच्य

 

“दादी दादी, आप रो क्यों रही हैं? आप ही तो कहा करती हैं कि कुछ लोगों की इसलिए जल्दी ‘डैथ’ हो जाती है, क्योंकि जिन्हें भगवान बहुत प्यार करते हैं, वह उन्हें जल्दी अपने पास बुला लेते हैं। इसीलिए तो चाचू को भी भगवान ने अपने पास बुला लिया होगा!”

पाँच वर्षीय अंकुर ने अपनी दादी की गोद में बैठते हुए जब यह बात कही तो उसकी दादीजी अपने आँसुओं को रोकने का प्रयास करती हुईं उसके सिर पर अपना स्नेह भरा हाथ फेरने लगीं। 

अंकुर की मम्मी ने जब यह सुना तो उसे अपने पास बिठा कर बोलीं, “नहीं अंकुर, ये सब मनगढ़ंत बातें होती हैं। डैथ तो सभी की होती है, चाहे कोई अच्छा हो या बुरा . . .”

और मृत्यु की वास्तविकता को संक्षिप्त में बताती हुईं वह उसे उसके कमरे में सुलाने ले गईं। 

पाँच वर्षीय पोते का भयभीत हुआ मुख देख उसकी दादी विस्मित हो दुखी मन से सोचने पर विवश हो गईं कि “यह पाश्चात्य सोच कैसी है! यहाँ के लोग छोटे से छोटे बच्चे को मौत जैसे भयानक या किसी अचानक सदमे को, चाहे थोड़े ही शब्दों में, ज्यूँ का त्यूँ बताने में विश्वास रखते हैं। और हम . . . हम भारतीयों के प्राच्य अनुभव को ‘मनगढ़ंत’ का नाम दे देते हैं। लेकिन ये लोग स्वयं भी तो छोटे बच्चों को ‘फ़ादर-क्रिसमस’ और ‘टुथ-फ़ेयरी’ जैसी काल्पनिक बातें बताकर उन्हें सचाई से दूर रखते हैं!”

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