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अपनी-अपनी सोच

 

(आये दिन हमारे काम-काज, विद्यालयों, घर-गृहस्थी इत्यादि से लेकर समाज तक में विभिन्न प्रकार की चिंताएँ उभर कर सामने आती रहती हैं। यदि हम इन पर चिंतन न करें और इनका हल न ढूँढ़े तो वे कैंसर रूपी कीड़ा बनकर हमारे भीतर घर कर जाती हैं। परिणामस्वरूप ऐसी समस्यायें, ऐसी सोच मानवता के प्रति मन उचाट कर देती हैं।)

 

“अरे अंजना, ज़रा उधर तो देखो! मिसेज़ शर्मा क्या बन-ठन कर मिस्टर गुप्ता के साथ उनकी कार से उतरी हैं। दो बूढ़े हंसों का जोड़ा लग रहे हैं दोनों। न जाने कब से इनका चक्कर चल रहा होगा . . .”

“तुम भी विभा! बिन सोचे-समझे हर दूसरे व्यक्ति का नाम किसी से भी जोड़ देती हो। भई, दो लोग अच्छे दोस्त भी तो हो सकते हैं न! इसका मतलब तो यह हुआ कि हम दोनों भी को इस फ़ंक्शन में साथ-साथ देखकर दूसरे लोग भी कहीं दूसरा ही ‘मतलब’ तो नहीं निकाल रहे? . . . हालाँकि हम दोनों सिर्फ़ अच्छी सहेलियाँ ही हैं। और चलो मान भी लिया कि दोस्ती के बाद एक दूसरे की सही कम्पनी की वजह से मिस्टर गुप्ता और मिसेज़ शर्मा के बीच अब थोड़ा ताल-मेल बैठ गया हो। तो भई, हमें तो ख़ुश होना चाहिए कि अकेलेपन का शिकार होने की बजाय इन दोनों ने उसका स्वयं हल ढूँढ़ लिया है।”

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