अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अनमोल उपहार

(लघुनाटक)

पिता:

आज तो बेटी रीमा, तुम कोई भी क़ीमती से क़ीमती गिफ़्ट माँगोगी, मैं तुम्हें लाकर दूँगा। 

बेटी:

वो किसलिए डैडी? 

पिता:

अपनी मम्मी से पूछो! तुम तो अपने प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन में आगे बैठी हुई थीं, और हमारे पास आकर आज तुम्हारा हर टीचर तुम्हारी इतनी प्रेज़ कर रहा था कि पूछो न। सभी का कहना था कि आपकी बेटी अगर डॉक्टर बनना चाहे तो उस जैसी लायक़ स्टूडैंट के लिए यह बाएँ हाथ का खेल होगा। इसलिए माँगो, आज तुम जो कुछ भी माँगना चाहती हो . . . मगर दु:ख भी है कि बस एक ही साल रह गया जब हमारी बिटिया मैडिकल कॉलेज में भर्ती हो जाएगी . . . और हमसे दूर रहने चली जाएगी। 

बेटी:

लेकिन डैडी! मैं मम्मी को अकेली छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती। इसलिए मैडिकल कॉलेज तो क्या, दूसरे शहर की कोई यूनिवर्सिटी या हॉस्टल भी नहीं जाऊँगी। 

पिता:

बेटी, यह क्यों कह रही हो? तुम्हारी मम्मी अकेली कहाँ होगी? मैं जो हूँ! 

बेटी:

लेकिन और कितने बरस तक, डैडी . . . और कितने समय तक? हमारी इतनी मिन्नतें करते रहने के बाद भी आप यह जो दिन-रात सिगरेट पीते रहते हैं . . . मेरे दो-एक क्लासफ़ैलो के डैडी की तरह अगर आप भी जल्द भगवान को प्यारे हो गए . . . या फिर फेफड़ों की किसी भयंकर बीमारी का शिकार होकर बिस्तर से लग गए . . . तो? उन दोनों सूरत में मम्मी अकेली ही तो पड़ जाएँगी न? 

(पिता उसी क्षण जेब से सिगरेट की डिबिया निकालता है, और उसे तोड़-मरोड़ कर डस्टबिन में फेंक देता है) 

पिता:

(बेटी के सिर पर हाथ रखता है) मैं तुम्हारी सौंगध खाता हूँ, फिर कभी सिगरेट को हाथ नहीं लगाऊँगा। 

बेटी:

ओह डैडी! थैंक यू, थैंक यू मुझे आपसे अब गिफ़्ट माँगने की कोई ज़रूरत नहीं। मेरे लिए इससे बढ़कर अनमोल उपहार और क्या हो सकता है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

तमसो मा ज्योतिर्गमय
|

पात्र: मदन, गोपाल, कन्हा, मानस, राधा, पुष्पा,…

देवलोक में हलचल 
|

(स्थान एवं सज्जा – देवलोक का भव्य…

लॉकडाउन में घरेलू झगड़ा
|

पर्दे के पीछे से पति-पत्नी के झगड़ने की आवाज़ें…

सच्चा श्राद्ध
|

लघु-नाटिका निर्मला:  अरे! यह क्या हुआ?…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य कविता

किशोर साहित्य कविता

ग़ज़ल

किशोर साहित्य कहानी

कविता - क्षणिका

सजल

चिन्तन

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता-मुक्तक

कविता - हाइकु

कहानी

नज़्म

सांस्कृतिक कथा

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

एकांकी

स्मृति लेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं