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अनमोल उपहार

(लघुनाटक)

पिता:

आज तो बेटी रीमा, तुम कोई भी क़ीमती से क़ीमती गिफ़्ट माँगोगी, मैं तुम्हें लाकर दूँगा। 

बेटी:

वो किसलिए डैडी? 

पिता:

अपनी मम्मी से पूछो! तुम तो अपने प्राइज़ डिस्ट्रीब्यूशन में आगे बैठी हुई थीं, और हमारे पास आकर आज तुम्हारा हर टीचर तुम्हारी इतनी प्रेज़ कर रहा था कि पूछो न। सभी का कहना था कि आपकी बेटी अगर डॉक्टर बनना चाहे तो उस जैसी लायक़ स्टूडैंट के लिए यह बाएँ हाथ का खेल होगा। इसलिए माँगो, आज तुम जो कुछ भी माँगना चाहती हो . . . मगर दु:ख भी है कि बस एक ही साल रह गया जब हमारी बिटिया मैडिकल कॉलेज में भर्ती हो जाएगी . . . और हमसे दूर रहने चली जाएगी। 

बेटी:

लेकिन डैडी! मैं मम्मी को अकेली छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती। इसलिए मैडिकल कॉलेज तो क्या, दूसरे शहर की कोई यूनिवर्सिटी या हॉस्टल भी नहीं जाऊँगी। 

पिता:

बेटी, यह क्यों कह रही हो? तुम्हारी मम्मी अकेली कहाँ होगी? मैं जो हूँ! 

बेटी:

लेकिन और कितने बरस तक, डैडी . . . और कितने समय तक? हमारी इतनी मिन्नतें करते रहने के बाद भी आप यह जो दिन-रात सिगरेट पीते रहते हैं . . . मेरे दो-एक क्लासफ़ैलो के डैडी की तरह अगर आप भी जल्द भगवान को प्यारे हो गए . . . या फिर फेफड़ों की किसी भयंकर बीमारी का शिकार होकर बिस्तर से लग गए . . . तो? उन दोनों सूरत में मम्मी अकेली ही तो पड़ जाएँगी न? 

(पिता उसी क्षण जेब से सिगरेट की डिबिया निकालता है, और उसे तोड़-मरोड़ कर डस्टबिन में फेंक देता है) 

पिता:

(बेटी के सिर पर हाथ रखता है) मैं तुम्हारी सौंगध खाता हूँ, फिर कभी सिगरेट को हाथ नहीं लगाऊँगा। 

बेटी:

ओह डैडी! थैंक यू, थैंक यू मुझे आपसे अब गिफ़्ट माँगने की कोई ज़रूरत नहीं। मेरे लिए इससे बढ़कर अनमोल उपहार और क्या हो सकता है। 

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