अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रिश्ता बेटी के लिए

 

शादी से डरने वाली बेटी ने जब मुझसे बोला, 
“मॉम! आय थिंक, आय'म रैडी टू गैट मैरिड“
तो कानों में जैसे उसने अमृत-रस हो घोला। 
 
शादी.कॉम से लेकर इंग्लैंड के हर मंदिर तक, 
और फिर कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक, 
बेटी से परामर्श कर नाम उसका दर्ज करवाया, 
चैक-लिस्ट लेकिन देखकर सिर मेरा चकराया। 
 
बेटी की पसंद-नापसंद का भी ध्यान रखना था, 
क्योंकि मुझे नहीं, उसे किसी के घर बसना था। 
संडे के संडे हम दोनों इंटरनैट चैक किया करतीं, 
लालची व कुछ फ़नी प्रोफ़ाइल देख ख़ूब हँसतीं। 
(गंभीर कुछ विचित्र रिश्ते देख डर भी जाया करतीं) 
 
रस्मों-रिवाज़ की मैं हर समय लिस्ट बनाने लगी, 
शादी वाले चैनल देख शामें अपनी बिताने लगी, 
कि होती कैसे गोद-भराई, मेहँदी-संगीत, सगाई है, 
बैंड-बाजों के बीच ब्याह फिर कैसे होती विदाई है। 
 
छह माह बाद एक दिन बेटी का लंदन से फोन आया, 
“मॉम! आय'म इन लव” झिझकते हुए उसने बताया। 
यह सुन उत्सुक हुई मैंने बौछार सवालों की लगा दी, 
“कौन, कब, कहाँ, कैसे” सुनके वो बेचारी घबरा गई। 
 
अगले संडे भावी दामाद से जब मैं पहली बार मिली, 
मिलकर यूँ लगा बेटे की कमी भगवान ने पूरी कर दी। 
शादी चैनल तो अब भी मैं हर शाम शौक से देखती हूँ, 
चर्च में लेकिन क्या-क्या होता है उसपर ध्यान देती हूँ। 
 
बग़ल में था छोरा और संसार में ढिंढोरा पिटवा दिया, 
घर बैठे-बैठे भगवान ने रेडीमेड दामाद भिजवा दिया। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अँगूठे की व्यथा
|

  पहाड़ करे पहाड़ी से सतत मधुर प्रेमालाप, …

अचार पे विचार
|

  पन्नों को रँगते-रँगते आया एक विचार, …

अतिथि
|

महीने की थी अन्तिम तिथि,  घर में आए…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सजल

नज़्म

हास्य-व्यंग्य कविता

कविता - क्षणिका

ग़ज़ल

चम्पू-काव्य

लघुकथा

किशोर हास्य व्यंग्य कविता

कहानी

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

किशोर साहित्य कहानी

चिन्तन

किशोर साहित्य कविता

बच्चों के मुख से

आप-बीती

सामाजिक आलेख

स्मृति लेख

कविता-मुक्तक

कविता - हाइकु

सांस्कृतिक कथा

पत्र

सम्पादकीय प्रतिक्रिया

एकांकी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं