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अशान्त आत्मा

 

 “बेटी, तुम अपनी बहन के कारण बहुत परेशान हो न?” 

 “लेकिन महात्मा जी, मेरी कोई बहन नहीं!”

“इसीलिए तो मैंने कहा। उसके जीवित रहते हुए भी तुम्हारा उसके अस्तित्व को नकारना . . . इसका कारण? कारण यही कि तुम उसकी इकलौती बहन ही नहीं अपितु एक प्रिय सखी की तरह सदा उसके भले का करती व सोचती रही। और वह . . . वह तुम्हें व तुम्हारे बच्चों को उन्नति करते देख तुमसे ईर्ष्या कर बैठी। इसीलिए कोई न कोई अवसर मिलते ही कटु वचनों से तुम्हारी आत्मा को बरसों-बरस कष्ट पहुँचाती रही।”

“महात्मा जी, आप यह सब कैसे जान पाये? फिर तो आपको यह भी मालूम होगा कि बहन की सोच को मैं जब बदल न सकी तो उसके साथ मैंने सारे सम्बन्ध विच्छेद कर दिये, ताकि मुझे फिर से दुखी करने का उसे मौक़ा न मिले। लेकिन भुलाना चाहकर भी उसके द्वारा दी गई पीड़ा को भूला नहीं पा रही। अब स्वयं को इस मानसिक कष्ट से कैसे छुटकारा दिलाऊँ?” 

“बेटी, रोओ नहीं! एक ही उपाय है। वह इस समय मृत्यु शय्या पर लेटी हुई है और तड़प रही है, क्योंकि तुम्हारे प्रति किए बुरे कर्मों के लिए उसकी आत्मा उसे कचोट रही है। वह तो हठी है, तुमसे कभी क्षमा नहीं माँगेगी . . . तो तुम्हें स्वयं उसके पास जाकर बातों-बातों में उसे माफ़ करना होगा। उसी क्षण तुम्हारा दुख निवारण तो होगा ही, उसकी आत्मा भी तुम्हें आशीर्वाद देगी . . .।”

महात्मा जी की बात अभी पूरी नहीं हो पाई थी कि मेरी आँख खुल गई। 

जिस करवट मैं सोई हुई थी, उस तरफ़ के तकिये का किनारा मेरे आँसुओं से भीगा हुआ था। उसी समय मैंने निर्णय कर लिया कि रेलगाड़ी द्वारा सोलह घंटों का सफ़र करने की बजाए, प्रातः होते ही जो भी पहली फ़्लाइट मिली, वही लेकर महीनों से बीमार चल रही बहन के पास शीघ्र पहुँचना होगा। चाहे वह फिर से दिल दुखाने वाली बातें करने लगे या ताने मारे, मुझे सहन करना होगा . . . उसकी अशान्त आत्मा के साथ-साथ अपने मन को भी शान्ति पहुँचाने का मुझे एक और प्रयास करना ही होगा। 

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