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उदार ब्रिटेन

 

यहाँ ब्रिटेन में द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात ढेरों लोग निर्धनता का शिकार हो गये थे। उस कारण उत्पन्न हुईं बीमारियाँ, भुखमरी, गंदगी, अज्ञानता व आलस्य जैसी ‘पाँच गम्भीर समस्याओं’ से निपटने हेतु सरकार ने बहुत सोच-विचार कर 1948 में एक ऐसी वैलफ़ेयर योजना लागू की ताकि असहाय लोग भूख व बेकारी से छुटकारा पाकर एक दिन अपने पाँव पर खड़े हो सकें। घर में आय का अन्य साधन न होने के कारण सरकार द्वारा ऐसे परिवारों की दवा का ख़र्च उठाने के साथ-साथ टैक्स व उनके घरों का किराया आदि भी माफ़ कर दिया गया। 

बीस-तीस वर्ष के अंतराल में ही इस योजना की सफलता के कारण ब्रिटिश सरकार की उदारता की प्रशंसा वैलफ़ेयर-स्टेट के रूप में संसार के कोने-कोने में होने लगी। लेकिन इसका एक नया ही घिनौना परिणाम देखने में आने लगा। वह कहते हैं न कि मीलों दूर से ही मरा जानवर देख बैठे-बिठाये भोजन प्राप्त होने के लालच में गिद्धों के झुंड के झुंड मँडराना शुरू हो ही जाते हैं। यही हाल ब्रिटेन का हुआ। 

हुआ यूँ कि ब्रिटेन की इस उदारता की आड़ लेकर इसके कुछ कपटी नागरिकों सहित यहाँ आकर बसने वाले चन्द प्रवासियों को खुलेआम सरकार की आँखों में धूल झोंक इसका पैसा हड़पने का अवसर प्राप्त हो गया। 

इधर बेचारी सरकार को यदि किसी एक लूपहोल या धोखाधड़ी की सूचना मिलती तो संबधित विभाग द्वारा नया नियम लागू करते ही या नया क़दम उठाते ही, दूसरे ही पल वे चालाक व चुस्त लोग एक नयी योजना बना सरकार से एक क़दम आगे निकलते दिखाई पड़ते। 

उन्हीं सैंकड़ों चालाक व चुस्त ‘महान’ हस्तियों में से एक साहब (जिन्हें यहाँ ‘मिस्टर चौधरी’ काल्पनिक नाम दिया गया है) के साथ घटी यह आम सी घटना आपके समक्ष रखी जा रही है:

मिस्टर चौधरी अपने मित्र के बेटे के विवाह में एक विशाल से हॉल के बीचों-बीच मग्न हो नाच रहे थे। 

“मैं आपको पिछले एक घंटे से देख रहा हूँ। वाह मिस्टर चौधरी, आप तो कमाल का डाँस करते हैं। मुझे भी थोड़ा सा सीखा दीजिए न,” उनके सामने आकर खड़े हो गये एक व्यक्ति के मुख से अपनी प्रशंसा के ये शब्द सुन मिस्टर चौधरी ने अपनी बत्तीसी निकाल मुँह उठाकर देखा। 

यह क्या! उन की तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अरे, यह तो वही सरकारी डॉक्टर है जिसने दो दिन पहले ही उन्हें बरसों से ब्रिटिश-सरकार द्वारा शारीरिक/मानसिक रोग से पीड़ित नागरिकों को मिलने वाले साप्ताहिक-भत्ते (सिकनैस बैनिफ़िट) की वार्षिक जाँच करने के लिए उन्हें सरकारी दफ़्तर में बुलवाया था। ‘उनकी टाँगों में हमेशा दर्द रहने की वजह से मिस्टर चौधरी कोई भी नौकरी करने में असमर्थ हैं’ का कारण बतलाकर वह किसी दूसरे डॉक्टर (जनरल प्रैक्टिशनर) से हर वर्ष बीमारी का झूठा सर्टिफ़िकेट बनवा लिया करते थे। और फिर उस ‘सिक-नोट’ को सरकारी-दफ़्तर में अपने रोग के प्रमाणपत्र के रूप में पेश कर दिया करते थे। परिणामस्वरूप घर बैठे-बिठाये मुफ़्त में मिल रहे सरकारी पैसों से सालों-साल मौज करते आ रहे थे। 

फिर क्या था! उस सरकारी डॉक्टर द्वारा सूचित किये जाने पर सरकारी अफ़सरों ने पूरी जाँच-पड़ताल करने पर पाया कि केवल मिस्टर चौधरी ही नहीं, उनकी पत्नी और उनकी देखा-देखी उनके दोनों बड़े बेटे भी नौकरी करने की सिरदर्दी से छुटकारा पाने के लिए कमर-दर्द, डिप्रैशन जैसी बीमारियों का बहाना बना सरकार को धोखा देते हुए भत्ता वसूल कर रहे थे। आज वही चारों लोग उसी सरकार के मेहमान बन जेल में रोटियाँ तोड़ रहे हैं। 

उनकी व उन जैसे सैंकड़ों लोगों की इस हरकत से ब्रिटिश-सरकार अब चौकस हो चुकी है। उन सभी लोगों की जाँच शुरू कर दी गई है, जिन्हें किसी न किसी मानसिक या शारीरिक रोग के कारण साप्ताहिक-भत्ता मिल रहा है। क़ानून से अवगत सभी भलीभाँति जानते हैं कि उनमें से शायद चन्द ही बेईमान लोगों की पोल खुल पायेगी। परन्तु दुख इस बात का है कि अब उन बेईमानों की करतूत के कारण पीड़ित रोगियों को भी कटघरे में खड़े होकर अपनी नेकनीयत का प्रमाण देना होगा। 

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