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जैसा बोया वैसा काटना पड़ा

पति का अचानक हृदय-रोगी होना, ऊपर से अन्य रोगियों की तरह सालों-साल जीवित रहने की बजाय दो बरस के अंतराल में ही उनका स्वर्गवास हो जाना . . . इन आपदाओं से जूझते-जूझते कमज़ोर दिल की सविता को भी दिल का दौरा पड़ गया। लेकिन भगवान की कृपा से समय पर हस्पताल पहुँचाने के कारण बच गई। दवाइयाँ सब समय पर ले तो रही थी परन्तु बुझी-बुझी सी रहने लगी।

उसका बेटा शाम को ऑफ़िस से घर पहुँचते ही चाय पीकर उसे लेकर घर के सामने वाले पार्क में ले जाता। डॉक्टर के निर्देशानुसार सविता सदा अपने पास नाइट्रोग्लिसरीन दवा रखा करती ताकि कभी यदि लगे कि अचानक दिल की धड़कन तीव्र या धीमी होने लगी है तो झट से एक गोली जीभ के नीचे रख देने से दिल का दौरा पड़ने से बचाव हो जाये। दूसरा पैकेट वह अपने बिस्तर से जुड़े मेज़ के ऊपर रखे रहती।

परन्तु होनी को कौन टाल सकता है। एक दिन उसका बेटा सिर में दर्द होने के कारण ऑफ़िस से जल्दी आ गया। सविता उसे परेशान न करने के विचार से उसे बता कर स्वयं ही पार्क में टहलने चली गई। बेटे को भी माँ कुछ माह से काफ़ी स्वस्थ दिख रही थीं, इसलिए अकेले जाने से रोका नहीं। लेकिन सविता पार्क के फाटक तक पहुँच भी न पाई थी कि उसके दिल की धड़कन अचानक तेज़ होने लगी। वह उन्हीं उल्टे पाँव घर की ओर मुड़ गई। दो मिनट में घर भी पहुँच गई परन्तु हड़बड़ी में रास्ते में ही नाइट्रोग्लिसरीन का पैकेट हाथ से छूट कर गिर गया जिसे उठाने के लिये उससे झुका न गया।

उसके बेटे ने खिड़की से ही माँ को जब डगमगाते क़दमों से घर के गेट में प्रवेश करते देखा तो पत्नी को ज़ोर से आवाज़ देकर बोला, "मालती! माँ की तबियत बिगड़ गई लगती है। जल्दी से उनके बैडरूम से नाइट्रोग्लिसरीन की गोली ले आओ। तब तक मैं उन्हें लॉन में ही कुर्सी पर बिठाता हूँ।"

यह कहते हुए वह अपना मोबाइल उठाकर बाहर की ओर भागा और सविता को सहारा देकर बिठाया। साथ ही साथ ऐम्बुलैंस बुलाने के लिए फ़ोन मिला दिया। परन्तु मालती जब दवा लेकर बाहर नहीं आई तो वह वहीं से चिल्लाया, "क्या कर रही हो यार, इतनी देर क्यों लगा रही हो?"

"मैं तो हर जगह ढूँढ़ रही हूँ लेकिन वह दूसरा वाला पैकिट तो कहीं भी नहीं मिल रहा जी," मालती खिड़की में से झाँकती हुई बोली। सविता तब तक निढाल हुई वहीं कुर्सी पर लुढ़क गई। इतने में ऐम्बुलैंस भी आ गई। लेकिन तब तक सब समाप्त हो चुका था।

इस घटना को बीते चंद ही बरस हुए थे। इस अंतराल मालती के इकलौते बेटे की शादी हो चुकी थी। वह अपनी पत्नी के साथ समीप के ही एक शहर में रह रहा था। एक दिन आदत से मजबूर मालती अपने पति से पैसों के पीछे फिर से झगड़ा कर बैठी। सूटकेस में कपड़ों की दो-चार जोड़ी पटक वह बेटे के घर के लिए रवाना हो गई। पति ने भी रोका नहीं क्योंकि उसे मालूम था कि दो-चार दिनों के बाद ग़ुस्सा ठंडा होने पर मालती हमेशा की तरह स्वयं वापस आ जायेगी।

परन्तु बेटे के यहाँ उसके पहुँचते ही लॉकडाउन लग गया। जहाँ लोगों में अपने-अपने घरों की ओर जाने के लिए भगदड़ मच गई, वहीं ज़िद्दी मालती अपने पति के फ़ोन पे फ़ोन आने पर व बेटे के समझाने पर भी टस से मस न हुई। पहले की तरह सोसायटी के पार्क में सुबह-शाम सैर के लिये जाना, दुकानों के खुलने के निर्धारित समय पर वहाँ जाकर यूँही समय काटना, और ऊपर से हँसी उड़ाना कि यह सब बाहर के देशों का कोई षडयंत्र है।

और वही हुआ जो इस तरह के लापरवाह लोगों के साथ हो रहा था। कोरोना से ग्रस्त चंद ही दिनों में मालती की ऐसी हालत हो गई कि हस्पताल वालों ने उसके बेटे को ऑक्सिजन का शीघ्र से शीघ्र प्रबन्ध करने का कह दिया। दिन-रात एक करके उसने दो दिन शहर का कोना-कोना छान मारा लेकिन ख़ाली हाथ लौटना पड़ा।

इधर मालती की साँस लेने में परेशानी इतनी चरम सीमा तक पहुँच गई कि उसे अपना काल सामने नज़र आने लगा। उसने डॉक्टरों से हाथ जोड़कर विनती की कि मेरा अंतिम समय आ गया है, मुझे मेरे पति व बेटे से मिलवा दें। परन्तु कोरोना के रोगियों को तो किसी से भी मिलने-मिलाने की सख़्त मनाही थी, सो उसे केवल वीडियो-कॉल द्वारा बात करने की अनुमति मिली।

मालती की कठिनाई से साँस आ-जा रही थी, और आधी बेहोशी में न जाने क्या अटक-अटक कर कह रही थी, "तुम्हें . . . तुम्हें मेरे लिये . . . ऑक्सिजन कहीं पर भी . . . नहीं मिल पायेगी! दुकानदारों ने मेरी वाली . . . मेरी वाली ऑक्सिजन छुपा कर रख ली होगी। बिल्कुल उसी तरह . . . जैसे मेरी . . . मेरी आँखों के सामने . . . माँजी की दवा रखी हुई थी . . . मैंने पहले जानबूझ कर उसे अनदेखा..फिर उसे छुपा दिया था।"

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