हीरा हीरा ही होता है
बाल साहित्य | किशोर साहित्य कहानी मधु शर्मा15 May 2023 (अंक: 229, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
प्रभु कृपा से मेरे पति का बिज़नस बढ़िया चल रहा था, इसलिए घर में पैसों की कभी कोई कमी नहीं रही। जब से हमारे दोनों जुड़वाँ बेटे यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए, और उसके पश्चात नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहरों में रहने चले गये, मैंने भी घर के समीप ही लड़कियों के एक सरकारी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया . . . यह सोचकर कि ऐसा करने से एक तो घर पर ख़ाली बैठे रहने से दिमाग़ को ज़ंग नहीं लगेगा, और दूसरा यह कि मेरी उच्च शिक्षा व मेरे निजी अनुभव समाज के कुछ निम्न वर्ग की किशोरी लड़कियों के शायद कुछ काम आ सकें।
इस स्कूल में मध्यवर्ग परिवार की बहुत ही कम व निर्धन परिवार की अधिक छात्राएँ भर्ती हुआ करती थीं। मुझे नवीं व दसवीं कक्षा को इंग्लिश पढ़ाने के साथ-साथ दोनों ही की क्लास-टीचर की ड्यूटी भी सौंपी जाती रही। इस तरह हर बैच की दो-दो साल तक पूरी ज़िम्मेवारी उठाते समय मेरी पूरी कोशिश यही रहती कि मैं टीचर-स्टूडैंट के बीच कठोर रवैया अपनाने की बजाय अपनी छात्राओं से सहेली जैसा रिश्ता बनाये रखूँ। शायद यही कारण रहा होगा कि कॉलेज, यूनी या अपनी शादी के बाद भी कितनी ही बच्चियों का मुझसे मिलने स्कूल में या फिर मेरे घर पर ही आना-जाना लगा रहता।
हर साल की तरह उस बार भी पहले दिन नवीं कक्षा की सभी स्टूडैंट्स पर नज़र दौड़ाई तो एक चेहरा देखकर बहुत ख़ुशी हुई कि तारा दूसरे सैक्शन 'बी' की बजाय मेरे ही सैक्शन 'ए' में थी। यह तारा हमारे स्कूल की पहली स्टूडैंट थी जिसका हमारे शहर की आठवीं की बोर्ड की परीक्षा में पहला नम्बर आया था।
बहुत ही सुन्दर लेकिन हर समय गुमसुम-सी रहने वाली तारा . . . केवल कुछ पूछने पर ही बोलती। मैंने न तो उसकी कोई सहेली या उसे किसी से कभी ज़्यादा बात करते देखा। हमारे स्कूल का नियम था कि हर सुबह असेंबली के दौरान हर कक्षा से एक-एक छात्रा उस दिन का कोई न कोई मुख्य-समाचार सभी के सामने इंग्लिश में पढ़े या मुँह-ज़बानी बोले। क्लास-मॉनिटर को ज़िम्मेवारी दी जाती कि वह बोर्ड पर ‘रोटा’ (सूची) लिख कर तैयार करे कि इस महीने किस स्टूडैंट की कब बारी आयेगी . . . और किस-किस सप्ताह भारत की या विदेश की, राजनीति की, खेलों की या लोकल इत्यादि की मेन न्यूज़ पढ़ी जायेगी। इस प्रकार हर स्टूडैंट का महीने में केवल एक बार ही नम्बर आता।
मैंने पहले ही दो महीने में नोट किया कि तारा ने अभी तक कभी असेंबली में न्यूज़ नहीं पढ़ी। मॉनिटर से पूछने पर मालूम हुआ कि उन दोनों ही दिन तारा ऐब्सेंट थी, तो उसे ही समाचार पढ़ने पड़े थे। क्लास-टीचर होने के नाते मैंने तारा को अलग बुला कर प्यार से टोका, “देखो तारा! न तो तुम स्कूल में किसी से बोलती-चालती हो, और न ही असेंबली में कभी हिस्सा लेती हो। ऐसा कब तक चलेगा! तुम पहली स्टूडैंट नहीं हो जिसे मैंने ऐसा ‘बिहेव’ करते पाया है। इसलिए जैसा उन दूसरी लड़कियों की झिझक दूर करने के लिए मैंने उन्हें स्कूल की किसी न किसी स्पोर्टस-टीम में भर्ती करवा दिया था, तो तुम्हें भी . . .”
मेरी बात पूरी सुने बिना तारा धीमी आवाज़ में रुआँसी हुई बोली, “नहीं, नहीं मै'म! प्लीज़ ऐसा न करिएगा . . . मेरे पैरन्ट्स इस बात की बिल्कुल भी इजाज़त नहीं देंगे . . . और क्या मालूम वे मुझे स्कूल से ही हटवा दें।”
“ऐसा है तो उन्हें कल सुबह दस बजे मुझसे मिलने का बोलना। पैरन्ट्स को प्यार से समझाना व राज़ी करना मुझे आता है,” मैंने उसकी पीठ को प्यार से थपथपाते हुए कहा।
अगले दिन तारा के पिता जब मुझसे मिलने आये तो अभिवादन करने के बाद मेरे कहने पर सामने की कुर्सी पर चुपचाप बैठ गये। मुझे लगा कि ‘जैसी बेटी वैसा पिता’। मैंने उनसे तारा की पढ़ाई की प्रशंसा करते हुए बात आगे बढ़ाई, ” . . . केवल एक बात की मुझे चिंता है कि आपकी बेटी की झिझक आगे चलकर उसके लिए समस्या पैदा कर सकती है। डॉक्टर, एन्जिनियर या ऑफ़िसर . . . तारा जो भी बनना चाहे, बहुत आसानी से हर परिक्षा में सबसे ज़्यादा अंक लेकर बन सकती है। लेकिन उसकी हिचकिचाहट वहाँ होने वाले इंटरव्यू में उसे नाकामयाब कर सकती है। फिर भी इसका एक उपाय है . . . और वो यह है कि . . . अगर आपकी रज़ामंदी हो तो वो स्कूल की ही किसी खेल की टीम का हिस्सा बन जाये।”
इतना सुनना था कि तारा के पिता भड़क उठे और ऊँचे स्वर में बोले, “मैडम जी, हमनी के ना त लईकी इस्कूल जाले, ना नौकरी करेली। उनकर बियाह के उमिर बीत रहल बा . . . हमनी बिरादरी के लोग एह मामिला पर ह्यू बना के रोअ के पहिल ही से परेशान कर दिहले बा। एही से मैडम जी, आप बस आपन इस्कूल सँभाल करो . . . माई-बाबूजी जवन भी कर रहल बाड़े ओकरा में दखल मत दीं।” (मैडम जी, हमारे यहाँ न तो लड़कियाँ स्कूल जाती हैं, न ही नौकरी करती हैं। इसकी तो विवाह की भी उम्र बीतती जा रही है . . . हमारी बिरादरी वालों ने तो पहले से ही इस बात को लेकर शोर मचा-मचा कर हमारे नाक में दम कर दिया है। इसलिए मैडम जी, आप तो बस अपना स्कूल सम्भालें . . . माँ बाप जो भी कर रहे हैं उसमें दख़ल अंदाज़ी न करें)।”
उस दिन से जब-जब मैं तारा को देखती, दिल में हूक सी उठती . . . एक हीरा कोड़ियों के भाव बिकने को सहज तैयार होता जो दिख रहा था। लेकिन अपने लाचार दिल को मसोस कर रख लेने के इलावा मेरे पास कोई और चारा न था।
दसवीं कक्षा में तारा पूरे ज़िले के बोर्ड की परीक्षा में तीसरे नम्बर पर आई। उसके बाद मेरा उससे फिर कभी मिलना न हुआ। कुछ महीनों बाद सुना कि माँ-बाप व परिवार सहित वह अपने गाँव चली गई क्योंकि तारा के ताऊजी के गुज़र जाने के बाद घर की खेती-बाड़ी का काम सम्भालने वाला गाँव में और कोई न था।
जीवन फिर से अपनी पुरानी गति पर चलने लगा। कितनी ही मेधावी छात्राएँ आईं व गईं परन्तु तारा जैसी पढ़ाई में लायक़ किसी और छात्रा को पढ़ाने का वैसा अवसर मुझे दोबारा न मिला। इसलिए मैं उसे भुलाये भी न भूल सकी।
इस बात को बीते सात वर्ष से ऊपर हो चुके होंगे कि एक रविवार की दोपहर हमारे नौकर ने आकर बताया कि कोई बीबीजी आपका पूछ रही हैं। ऊँचा सुनने के कारण वो उनका नाम नहींं जान पाया। उसने उन्हें स्टडी में बिठा दिया है। मैं जब नीचे आई तो देखा कि मेरी ओर पीठ किए खड़ी एक इकहरे बदन वाली युवती, हल्के गुलाबी रंग की सादा-सी लेकिन बहुत सलीक़े से साड़ी पहनी हुए व अपने बालों का ढीला सा जूड़ा बनाये, दीवार पर लगी तस्वीरें देख रही थी। मेरे हैलो कहने पर जब वो अचानक मुड़ी तो तारा को सामने खड़ा देख मैं भौंचक्की व वही थमी-सी रह गई। समीप आकर मुस्कुराते हुए वो जैसे ही मेरे पाँव छूने को झुकी तो उससे पहले ही मैंने उसे यूँ गले लगाया कि मानो बरसों बाद बिछड़ी हुई मेरी अपनी बेटी अचानक सामने आ खड़ी हो।
“तारा डियर, बिन बताये कहाँ ग़ायब हो गई थीं?” उसका हाथ पकड़े मैंने उसे सोफ़े पर अपने समीप बैठाते हुए पूछा।
“मै'म, आपको मैं अभी तक याद हूँ, विश्वास नहीं हो रहा . . . मुझे तो पूरे रास्ते आपसे मिलने का सोच-सोच कर यही संकोच हो रहा था कि इतने बरसों में हज़ारों स्टूडैंट्स को पढ़ाते हुए . . . “
“अरे, तुम जैसे हीरे को मैं कैसे भूल सकती हूँ!” मैंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
नौकर को चाय व नाश्ता का कहकर मैंने तारा से ढेरों सवाल पूछ डाले।
हर समय झिझकने वाली उस पुरानी तारा ने उस दिन खुलकर अपनी कहानी यूँ सुनाई—
“बाबा ने तो गाँव जाते ही दूसरे शहर में मेरी सगाई कर दी और ताऊ जी की बरसी के बाद शादी भी। मुझे हैरानी नहीं हुई क्योंकि जो-जो उन्होंने उस दिन आपसे कहा था, हम तीनों बहनों को तो बचपन से ही वही सुनने को मिलता रहा था। लेकिन भगवान को शायद मुझ पर तरस आ गया। मेरे हज़बन्ड मनोज जी एक फ़ैक्ट्री में नौकरी करते थे . . . उस फ़ैक्ट्री के छोटे से क्वाटर में केवल हम दोनों ही रहते थे। इसलिए घर में करने लिए कोई ज़्यादा कामकाज भी न होता। सब्ज़ी-तरकारी लेने बाज़ार जाती तो रास्ते में लायब्रेरी पड़ती थी। आपकी सुझाईं ढेरों बुक्स के नाम तो याद ही थे तो हर बार वहाँ से दो-चार क़िताबें साथ ले आती। शादी के लगभग एक महीने बाद यह मुझसे कहने लगे कि तुम्हें पढ़ाई का इतना शौक़ है तो आगे क्यों नहीं पढ़ लेती। चाहो तो कॉलेज ऐड्मिशन ले लो या जो भी कोर्स करना तुम्हें सही लगे।”
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अपनी बात जारी रखते हुए तारा बोली, “कॉलेज जाने की तो मेरी हिम्मत न हुई, इसलिए कॉरेसपौंडस कोर्स द्वारा दो ही साल में बी.कॉम. और फिर हिम्मत खुलने पर कॉलेज से बी.ऐड. कर लिया। वहाँ टॉप पे आने पर कॉलेज की प्रिंसपल ने अपने जान-पहचान के एक मॉडल स्कूल में पक्की नौकरी के लिए फ़ॉर्म भरवा दिए। वहाँ मैं पहले टैस्ट और फिर इंटरव्यू देकर जॉब के लिए चुन ली गई। कल वहाँ मेरा पहला दिन है, तो आज मनोज जी को बताकर आपका आशीर्वाद लेने चली आई। क्योंकि मेरा बरसों का सँजोया सपना पूरा हो गया कि एक दिन आप ही की तरह टीचर बनकर आपके क़दमों पर चलते हुए उन लड़कियों में अवेर्नस (जागरुकता) पैदा कर सकूँ जो अपने परिवार के पुराने उसूलों तले दबकर अपना अस्तित्व खो बैठती हैं। बस अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना करती रहूँगी कि मुझ जैसी सभी लड़कियों को आप जैसी मार्गदर्शक व मनोज जी जैसा तालमेल बैठाने वाला पति मिले। इन से हर समय आप ही के बारे बातें किया करती हूँ . . . कभी-कभी तो यह हँस कर कह देते हैं कि तुम अपनी माँ की बजाय अपनी इंग्लिश टीचर की बात करती रहती हो। तो मेरा हमेशा यही जवाब होता है कि मेरी माँ ने तो केवल जन्म दिया है . . . लेकिन मै'म मुझ जैसी दूसरों से कट कर रहने वाली छात्राओं को पढ़ाई के साथ-साथ यह भी सीख देती रहती थीं कि पढ़ाई के इलावा एक लड़की अपना जीवन और किन-किन तरीक़ों से सफल बना सकती है।”
कहते-कहते तारा की आँखें भर आईं . . . और मैं जो स्वयं को बहुत कड़े दिल वाली समझती थी, न जाने कैसे यकायक मेरे आँसू बह निकले। परन्तु यह ख़ुशी के आँसू थे . . . क्योंकि एक हीरा जो कोड़ियों के भाव बेचा जा चुका था, पारखी मनोज ने उसे उसकी सही क़ीमत से अवगत करवा दिया। मैंने तो केवल मार्गदर्शक का रोल निभाया था। लेकिन उसकी मंज़िल तक क़दम-क़दम पर साथ देने वाले उसके जीवन-साथी मनोज का रोल मेरे रोल से कहीं अधिक प्रभावशाली था। परिश्रम व लगन तो तारा की ही थी क्योंकि एक हीरा, हीरा ही होता है।
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