असली दोस्त
काव्य साहित्य | कविता मधु शर्मा1 Aug 2022 (अंक: 210, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
कुछ लोग सिर्फ़ सूरत देख नए दोस्त बनाएँ,
हम सीरत1 से मुतअस्सिर2 हो उन्हें गले लगाएँ।
जात-पात पूछकर ही कुछ तो हाथ मिलाते हैं,
हम हर रूह को पाक समझके पास बैठाते हैं।
न कीजिए ग़रूर दोस्त की दौलत या नाम पर
हमें तो छू जाये बस भोलापन और साफ़ मन।
नफ़ा-नुक़्सान के तराज़ू में क्यों दोस्ती तोलते,
दोस्त की आवाज़ में तो जैसे ईश्वर ही बोलते।
कुछ दोस्ती की आड़ में छुरा पीठ में हैं भोंकते,
लेकिन हम थक जायें तो दोस्त पीठ पे हैं ढोते।
न भागें उनकी सूरत-दौलत-नाम के पीछे-पीछे,
चलें क़दम मिलाकर, रास्ते चाहे हों ऊँचे-नीचे।
वह दोस्त दोस्त नहीं जो सिर्फ़ बनाए धर्म-भाई,
हमारे दोस्त हैं हिन्दू-मुस्लिम-सिख और ईसाई।
बनाकर सैंकड़ों दोस्त क्यों ख़ुद का दिल दुखाएँ,
चार-पाँच ही बहुत हैं जो हरदम हँसे और हँसाएँ।
कुछ स्वार्थी लोग होते हैं दोस्ती के नाम पे धब्बा,
दोस्त वही जिनकी वजह से सिर सदा रहे ऊँचा।
- सीरत=चरित्र, आदत, कौशल, गुण, विशेषता, स्वभाव, प्रकृति, आदत, जीवन-चरित, अख़लाक़
- मुतअस्सिर= प्रभावित, जिस पर असर पड़े, जिस पर किसी बात का असर हुआ हो
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