जानलेवा जादू की छड़ी
बाल साहित्य | किशोर साहित्य कहानी मधु शर्मा1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
“बधाई हो यार बधाई हो! प्रोमोशन की और वह भी हमारे सबसे बढ़िया डिपार्टमैंट में!”
आलोक ने मनीष को ऑफ़िस के कार-पार्क में बड़ी-सी कार में प्रवेश करते देख अपनी छोटी-सी कार से बाहर निकल कर ऊँची आवाज़ में पुकारते हुए कहा।
मनीष ने जब कार को पार्क कर लिया तो आलोक ने उसके साथ ऑफ़िस के मुख्य द्वार की ओर बढ़ते हुए हँसते हुए पूछा, “मनीष यार! यह जादू की छड़ी मिलती कहाँ से है? हमें भी मँगवा दो . . . देखो न, इतनी मेहनत करने के बाद भी सालों-साल उसी एक कुर्सी पर अटका पड़ा हूँ। और तुमने तो आते ही छह महीने के अन्दर तरक़्क़ी भी कर ली।”
मनीष चलते-चलते रुक गया व आलोक का हाथ पकड़ गम्भीर लहजे में बोला, “आलोक भाई, आप भी जहाँ पहुँचना चाहें, आसानी से पहुँच सकते हैं . . . करना केवल आपको यह है कि फ़ाइलों में अपना सिर सदैव गढ़ाए रखने की बजाय कभी-कभार नज़र उठाकर भी देख लिया करें कि आपके आस-पास हो क्या रहा है।
“मुझे देखिये . . . यहाँ नौकरी के पहले ही दिन सभी धूम्रपान करने वालों की तरह मुझे भी पाँच-पाँच मिनट की तीन स्मोकिंग-ब्रेक मिलीं। उस दौरान मुझे स्मोकिंग-शैल्टर में खड़े-खड़े ऑफ़िस के बारे व यहाँ काम करने वालों के बारे ढेरों जानकारी मिली। मेरे साथ वाली सीट पर बैठे सिगरेट न पीने वाले शर्माजी तक को वे बातें मालूम न थी। इस प्रकार आये दिन के नवीनतम समाचार वहीं मिलते रहते कि कौन नौकरी छोड़कर जा रहा है, या किसे प्रोमोशन मिलने वाली है। बस फिर क्या था . . . उन लोगों से बातों-बातों में उन्हीं के काम के बारे जानकारी प्राप्त कर मेरे लिए निर्णय लेना आसान हो गया कि कौन-सा डिपार्टमेंट मेरे लिए उचित है कौन-सा नहीं। अब भाई, आप समझ ही गये होंगे कि कौन-सी जादू की ‘छड़ी’ का मैंने प्रयोग किया।”
जो बात मनीष ने गम्भीरता से आरम्भ की थी, खिलखिलाते हुए उसे समाप्त कर लिफ़्ट की ओर चल दिया, क्योंकि नये विभाग वाली पोस्ट के लिए उसकी दो सप्ताह की ट्रेनिंग सातवीं मंज़िल पर स्थित प्रशिक्षण-विभाग में आरम्भ होने जा रही थी। और आलोक किसी गहरी सोच में डूबा सीढ़ियों के रास्ते पहली मंज़िल पर स्थित अपने विभाग की ओर चल दिया।
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आलोक व मनीष के बीच हुई उस वार्तालाप के दो ही वर्ष के अन्तराल में आलोक ने अपने ही विभाग का पहले तो असिस्टेंट-मैनेजर और फिर मैनेजर बनकर सहकर्मियों सहित परिवार-सदस्यों को भी प्रसन्न रखना सीख गया। परन्तु केवल वही जानता था कि वहाँ तक पहुँचने के लिए उसका परिश्रम नहीं उसकी सिगरेटनोशी काम आई।
यदा-कदा सोचकर सहर भी उठता कि क्या वह वही आलोक है जिसने स्कूल में साथियों के उकसाने पर पहली बार जब सिगरेट का कश लगाया तो खाँसते-खाँसते बेहाल हो गया था। व फिर अपने माता-पिता को यह बात स्वयं बताकर सिगरेट को कभी हाथ न लगाने की सौगंध खाई थी। परन्तु अब . . . अब कितनी बार इस आदत को त्यागने का मन बना लेने पर शाम तक या अगले दिन सुबह होते-होते उसकी ललक उसके मन पर हावी हो जाती। प्रोमोशन के लालच में उसने जो आदत दिखावे के तौर पर अपनाई थी, वह अब बुरी लत का रूप धारण कर चुकी थी।
♦ ♦ ♦
धूम्रपान से छुटकारा तो न मिल पाया, लेकिन आज पन्द्रह वर्ष पश्चात आलोक शहर के बड़े अस्पताल के फेफड़ों के कैंसर-वॉर्ड में भर्ती किया जा चुका है। लगातार खाँसते-खाँसते जब मुँह से ख़ून निकलने लगता है तो दिन में पास बैठी पत्नी या रात को नर्स उनका चेहरा गीले कपड़े से पोंछ देती हैं। वह बोल तो नहीं पाता केवल अपने दोनों हाथ जोड़कर फूट-फूटकर रोते हुए पत्नी व अपने तीनों बच्चों से क्षमायाचना करने लगता है।
अन्तिम समय की घड़ियाँ गिन रहा है . . . और उस पल को कोसता है कि यदि मालूम होता कि प्रोमोशन प्राप्त करने का साधन प्राण हरने का साधन बन जायेगा तो बचपन में खाई उस सौगंध कभी न भूलता।
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