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प्रेम का धागा

अपने बड़े भाई को घर में आते देख शिवानी गैस्ट-रूम से निकल कर उनके सामने जा खड़ी हुई और चिल्लाती हुई बोली, “भइया, मेरी कल की वापसी का टिकट करवा दें . . . मैं अपने ससुराल दिल्ली में ही भली!” भइया ने शांत स्वर में कहा, “अरे, अब क्या हो गया हमारी गुड़िया को? चलो, पहले लंच कर लूँ, शाम को ऑफ़िस से आकर फिर आराम से बात करूँगा। उस वक़्त जैसा कहोगी, वैसा ही होगा। आई प्रॉमिस!” 

शिवानी की बड़ी बहन वाणी और उसकी मम्मी सकते में आ गईं कि उसे यह अचानक क्या हो गया है? बहु को रसोई में नौकर की मदद करते देख मिसेज़ गुप्ता ने बड़े प्यार से शिवानी का हाथ पकड़ अपने पास बिठाया और नाराज़गी का कारण पूछा। शिवानी ने उनका हाथ झटकते हुए बेरुख़ी से कहा, “मम्मी, अब आप इतनी नादान भी न बनिएगा। अरे, दो दिन से सहन कर रही हूँ कि कैसे आप सभी वाणी दीदी और उनके तीनों बच्चों के आगे-पीछे घूम रहे हैं। अगर उनके बच्चे लंदन से पहली बार आये हैं तो मेरा बेटा लव भी तो पहली बार यहाँ आया है! मगर आप लोगों को इनसे फ़ुर्सत मिले, तभी न!” 

मिसेज़ गुप्ता शिवानी की पीठ सहलाती हुईं बोलीं, “पगली, वाणी के बच्चे तुम्हारे आठ महीने के लव को नहलाने-धुलाने, उसे तैयार कर बोतल से दूध पिलाने से लेकर उसे सुलाने तक का काम दौड़-दौड़ कर रहे हैं . . . हमें वे मौक़ा ही कहाँ दे रहे हैं? फिर वाणी वहाँ लंदन में अकेले घर-बाहर का काम, तीन-तीन बच्चों की देखभाल, ऊपर से सारा दिन नौकरी करती है। हम उसे इतना भी आराम न दे पाये तो उसका मायके आने का क्या फ़ायदा हुआ? तुम्हें तो मालूम ही है यह सिर्फ़ पाँच दिन के लिए हमारे पास आई है . . . बाक़ी के दो हफ़्ते अपने ससुराल वालों के साथ बॉम्बे में बितायेगी। तुम तो हमारे पास अभी एक महीना ठहरोगी।” किसी तरह से बहला-फ़ुसला कर मिसेज़ गुप्ता शिवानी को शांत करने में सफल हो गईं। 

इतने में उसके भइया व भाभी खाना खाकर वहीं बैठक में आ गए। वाणी यह सब चुपचाप देख और सुन रही थी लेकिन अंदर ही अंदर काँप कर रह गई कि . . . “क्या यह वही मेरी छोटी प्यारी बहन है जो सप्ताह में कम से कम दो बार मेरा फ़ोन न आने पर उदास हो जाती थी। और जिससे बारह साल के बाद मिलने का मुझे चाव मम्मी-पापा, भइया-भाभी से मिलने से कहीं दस गुना ज़्यादा था।” और तभी उसके अंदर ही अंदर कुछ बड़ी ज़ोर से टूटा जिसकी आवाज़ केवल वही सुन पाई। 

उस घटना को बीते तीन बरस हो गए हैं। वाणी अपनी बहन का हाल-चाल जानने के लिए अभी भी फ़ोन करती है, लेकिन सप्ताह में दो बार की बजाए अब महीने में केवल दो-एक बार ही। चाहकर भी वाणी अपनी बहन के प्रति फिर से वही अपनापन महसूस नहीं कर पा रही। बस यही सोचकर उदास हो जाती है कि रहीम जी ने सच ही कहा था:

“रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय, 
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।” 

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