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विवाह: गुड्डे-गुड़िया का खेल

 

“नहीं मम्मी, मुझे तो दादीजी वाले ही मँजीरे लेकर जाना है . . .बजाने के लिए यह पीपा नहीं!” मुन्नु कब से अपनी ज़िद्द पर अड़ा हुआ था, और हमें बारात ले जाने में देरी हो रही थी। दादीजी ने भी हमारी मम्मी को समझाया कि बच्चे भी तो भगवान का ही रूप होते हैं। और यह कहते हुए उन्होंने अपनी भजन-मंडली वाले मँजीरे मुन्नु को थमा दिये। 

♦ ♦ ♦

मुन्नु की पुरानी प्रैम (बच्चे के घुमाने वाली गाड़ी) ढेरों रंगबिरंगे फूलों व पत्तियों से सजी हुई तैयार आँगन में खड़ी थी। मेरी सहेली हरप्रीत ने तो मुझे चौंका ही दिया जब वह प्रैम के ऊपर तानने के लिए फूलों व गोटे की लड़ियों से लदी लाल रंग की अपनी छतरी मुझे सुबह-सुबह देने आई थी। वह सजी हुई गाड़ी बिन घोड़ों वाले किसी रथ से अब कम नहीं लग रही थी। 

♦ ♦ ♦

 मंजीरों सहित ढोलक, ढपली, खड़ताल, बाँसुरी से लैस यह बैंड-बाजा वाली बारात न होकर मानो प्रभात-फेरी के लिए कोई भजन-मंडली तैयार हो रही हो . . . यद्यपि समय सुबह का नहीं दोपहर का था। 

♦ ♦ ♦

मैंने दो दिन पहले ही अपनी गुल्लक से सारे पैसे निकाल कर अपनी मम्मी को दे दिए थे ताकि मेहमानों के लिए जलेबी व पकोड़ों का वह इंतज़ाम कर सकें। (बाद में बारात के समय मम्मी ने वह पैसे लौटा भी दिए . . . शगुन कहकर)। पीने के लिए बॉर्नविटा परोसने की ज़िम्मेवारी हरप्रीत की मम्मी ने ली। आख़िरकार बारात उन्हीं के यहाँ आ रही थी, क्योंकि वे दुलहन वाले जो ठहरे। 

♦ ♦ ♦

निर्धारित समय पर बारात दुलहन के घर की ओर प्रस्थान हुई। घर था तो साथ में ही लेकिन महल्ले के बीचों-बीच बने छोटे से पार्क का एक चक्कर लगाने की बारातियों ने पहले से ही योजना बना रखी थी। 

नववर्ष दिवस की छुट्टी होने के कारण पूरे महल्ले के लोग अपने चेहरों पर बड़ी सी मुस्कुराहट लिए यह अनोखी बारात देखने अपने-अपने घरों के गेट पर ग्रुप बना कर खड़े हुए थे . . . हरप्रीत व मेरी मम्मी को छोड़कर, जो शर्मसार हुई अपने घरों की खिड़की के पीछे छुपीं हम बारातियों के नाच से ज़्यादा उछल-कूद करती हुई बारात जाते देख रही थीं। अपनी-अपनी ढपली व अपना-अपना राग वाली कहावत तो अब समझ में आई लेकिन उस समय अक्षरस: यही समाँ बँधा हुआ था। 

♦ ♦ ♦

दुलहन के घर तक पहुँचते-पहुँचते पन्द्रह मिनट की बजाय हमें आधा घंटा लग ही गया . . . आम बारातें भी तो देर से ही आती हैं न! पकोड़ों-जलेबी की ख़ुशबू पाते ही बाराती खाने पर टूट पड़ना चाहते थे। परन्तु मैं और हरप्रीत पहले जयमाला की रस्म पूरी करना चाहती थीं। लेकिन फिर से परेशानी आन खड़ी हुई। दुल्हा-दुलहन की हथेलियों में वे जयमाला सिल दी गईं होने के कारण वे एक-दूसरे को जयमाला पहनाते तो कैसे पहनाते। वे टाँके निकालने के लिए हरप्रीत की छोटी बहन को कैंची लाने भेजा तो दो-तीन मिनट बाद वह ख़ाली हाथ लौट आई कि उसे नहीं मिल रही। शोर सुनकर उनकी मम्मी ने ही आकर हमारी मदद की। तब जाकर तालियों की गड़गड़ाहट में दुल्हा-दुलहन ने एक दूसरे के गले में जयमाला पहनाईं। 

यह रस्म होते ही खाना-पीना कब-कैसे किसने शुरू किया यह तो मालूम न हो सका लेकिन खा-पीकर सभी बाराती उड़न छू हो उसी सामने वाले पार्क के लिए निकल भागे। बचे तो बचे केवल हम दोनों समधिन, और हरप्रीत की छोटी बहन के साथ उनके बग़ीचे में लगे कच्चे अमरूद तोड़ता हुआ मेरा सात बरस का भाई मुन्नु। 

♦ ♦ ♦

परन्तु अभी तो मुख्य संस्कार निभाना रहता था। मैं अपने साथ गत्ते की छोटी सी सजायी हुई एक डिब्बी लेकर आई थी ताक़ि झूठमूठ की अग्नि के चारों ओर दुल्हा-दुलहन फेरे ले सकें। लेकिन तभी हरप्रीत अपनी सिख रिती अनुसार ‘आनंद-कारज’ करवाने पर तूल आई। बात बढ़ती-बढ़ती गुत्थम-गुत्थी तक पहुँच गई। मैंने हरप्रीत से फिर कभी न बोलने का कहते हुए ‘कुट्टी’ (बॉयकट) कर दी। और रोते-सुबकते हुए अपना सारा सामान समेटकर दुल्हा-दुलहन दोनों को अपने साथ अपने घर वापस ले आई . . . आख़िरकार वे दोनों मेरे ही तो थे! मेरी मौसी पिछले ही माह कानपुर से मेरे लिए उपहार में यह विवाह की पोशाक पहने गुड्डे-गुड़िया की प्यारी सी जोड़ी लाई थीं। 

♦ ♦ ♦

इस ‘अनबन’ के दो दिनों बाद हमारी दोनों की मम्मी हम सहेलियों में समझौता करवाने के लिए हमें पार्क में बहाने से ले आईं। हम दोनों ‘मैं सही और वह ग़लत’ पर अड़ी थीं। तब हमें समझाया गया कि गुड्डे-गुड़ियों की सिर्फ़ जयमाला ही होती है, जो इतनी धूमधाम से तुम दोनों की मेहनत के कारण ही हो सकी। इसलिए समझो कि इनका ब्याह भी हो गया। हमारे हाथ मिलवा कर वे दोनों अपनी बातों में लीन हो गईं और हम दोनों अपने गुड्डे-गुड़िया से खेलने हमारे घर की ओर चल चल दीं। 

♦ ♦ ♦

महीनों तक मुहल्ले की सभी आंटी हँस-हँस कर मुझसे पूछती रहीं, “मधु, तुम्हारे गुड्डे-गुड़िया के फेरे कब होंगे? वो ठीक तो हैं न!”

और मैं बड़ी-बूढ़ियों की तरह रटा-रटाया उत्तर दिया करती, “हाँ आंटी, सब ठीक हैं। लेकिन आपको मालूम नहीं कि गुड्डे-गुड़ियों की शादी कोई खेल नहीं, बहुत मेहनत और प्लैनिंग करनी पड़ती है। और हाँ, इनकी सिर्फ़ जयमाला ही होती है, फेरे नहीं।”

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