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मेहनती लड़का

पड़ोसिन का हाल-चाल पूछ जब मिसेज़ खन्ना अपने घर दाख़िल हुईं तो पति और बेटी को टीवी पर आ रहे फ़ुटबॉल मैच देखने में मस्त और बैठक की ख़स्ता हालत देख ऊँची आवाज़ में बोल उठीं, "मैं फिर से कहे देती हूँ पिंकी के डैडी! या तो आप बेटी को बिगाड़ना छोड़ दें, या जब इसकी शादी होगी तो इसके ससुराल वालों को यह कहकर मुझे भी दहेज़ के साथ भेज देना कि—भई, हमने तो बेटी को घर का कोई काम-काज सिखलाया नहीं, सो इसकी मम्मी को भी ले जाएँ, ठीक है न?"

पत्नी की बनावटी ग़ुस्से से भरी आवाज़ सुन खन्ना साहब ने हमेशा की तरह वही रटा-रटाया उत्तर दिया, "डार्लिंग, इतनी मन्नतों के बाद तो भगवान ने हमें इस एक ही औलाद से नवाज़ा है . . . इसे किन्हीं अनजाने लोगों के हाथ कैसे सौंप देंगे? न भई न! हम तो अपनी बेटी के लिए कोई घर-जमाई ही ढूँढेंगे।" पिंकी यह सुन हँसती हुई अपनी मम्मी के गले में बाँहें डालकर बच्चों की तरह झूल गई।

दस वर्ष पहले खन्ना साहब ने अपना काम छूट जाने पर घर से ही मोटर-मकैनिक का कारोबार करना शुरू कर दिया था। देखते-देखते तीन-चार साल में इतने सफल हो गए कि एक बड़ी सी गराज खोल ली और तीन मैकैनिक भी रख लिये। उनकी पत्नी को न कभी बाहर काम पर जाने की और न ही कभी पति के कारोबार में हाथ बँटाने की आवश्यकता पड़ी। बस इसी तरह हँसते-खेलते यह तीन सदस्यों का छोटा सा परिवार सुखमयी जीवन बीता रहा था।

एक शाम खन्ना साहब काम से घर वापस आये तो चाय पीते-पीते बताने लगे कि आज एक नौजवान उनके यहाँ काम माँगने आया था। वो स्टुडैंट-वीज़ा पर यहाँ इंग्लैंड आया है। बहुत समझदार है, कारों के बारे बहुत कुछ जानता है . . . सो उसे पार्ट-टाइम काम पर रख लिया है। बस फिर तो, हर शाम वह घर आकर उसी लड़के सुनील का ज़िक्र छेड़ देते कि इंडिया में वह कहाँ से है, उसके परिवार में कौन-कौन है, या इंडिया की कोई ताज़ा ख़बर वग़ैरह सुनील उन्हें सुनाता तो वो अपनी पत्नी-बेटी को ज़रूर बताते। कुछ ही महिनों में खन्ना साहब को सुनील पर इतना भरोसा हो गया कि हर शनिवार सुबह उसे गराज को खोलने का बोल ख़ुद दो-तीन घंटे बाद वहाँ पहुँचते। सुनील मेहनती तो था ही सो कॉलेज की कोई भी छुट्टी होती तो अक़्सर हाथ बँटाने चला आता।

समय यूँ बीतता गया। लगभग दो साल होने को आये तो सुनील ने एक दिन अपने वीज़ा ख़त्म होने की तारीख़ के बारे में बात छेड़ी। खन्ना साहब ने उसे पास बिठा उससे उसके भविष्य की योजना के बारे पूछा। सुनील उदास हो बोला, "मेरे माँ-बाप ने मेरे कहने पर काफ़ी कर्ज़ा उठाकर मुझे यहाँ पढ़ने के लिए भेजा था। सोचा था कि जैसे सभी करते हैं मैं भी पढ़ाई पूरी कर यहीं अच्छी सी नौकरी कर चंद ही सालों में सारा कर्ज़ा उतार दूँगा। और जब कुछ पैसे जमा कर लूँगा तो बहन की शादी से निपट, फिर अपना कुछ सोचूँगा। मगर यहाँ रिसैशन की वज़ह से अच्छा काम अब मिलना मुश्किल है . . . " खन्ना साहब ने झट से उसकी बात काटते हुए कहा, "अगर तुम पढ़ाई पूरी कर मेरे यहाँ फ़ुल-टाइम करने को तैयार हो तो वर्क-परमिट का वीज़ा मैं दिलवा दूँगा।" सुनील की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। उसने झुककर खन्ना साहब के पाँव छू लिए।

इधर खन्ना साहब मन ही मन योजना बना रहे थे कि "अपनी पिंकी के लिए ऐसा मेहनती व भरोसेमंद लड़का और कहाँ मिलेगा . . .  चाहे दोनों माँ-बेटी यहीं इंग्लैंड का पैदा हुआ व पढ़ा-लिखा लड़का चाहती हैं, ताकि शादी के बाद बातचीत और रहन-सहन में कोई दिक़्क़त न हो, और जिसके सिर पर ज़िम्मेवारियों का भारी-भरकम बोझ भी न हो! जब तक दो-तीन साल में पिंकी अपनी पढ़ाई पूरी करेगी तब तक सुनील अंग्रेज़ी बोलते वक़्त हक़लाने की बजाए यहाँ के लड़कों की तरह बोलना-चालना व उठना-बैठना पूरी तरह सीख जाएगा। देख लेना, तब पिंकी और उसकी मम्मी को इसके लिए कोई एतराज़ न होगा। और तभी सुनील से भी रिश्ते की बात करूँगा, क्योंकि उसकी तरफ़ से 'न' की कोई गुंजाइश ही नहीं।"

बस फिर क्या था . . . इधर सुनील का रिज़ल्ट आया और उधर उसे पाँच साल का वर्क-परमिट-वीज़ा मिल गया। खन्ना साहब ने उसे सुपरवाइज़र का काम सौंप दिया। फुल-टाइम काम करते-करते सुनील की सब ग्राहकों से भी अच्छी जान-पहचान हो गई। उनके घर से उनकी गाड़ियाँ गराज ले आना और ठीक कर-करा कर उन के घर छोड़ कर आना . . .  सुनील का यह आइडिया खन्ना साहब के कारोबार के लिए बहुत ही फ़ायदेमंद साबित हो रहा था।

कुछ महिनों बाद एक दिन अचानक सुनील को इंडिया जाना पड़ा। उसकी बहन का फोन आया था कि उनके पापा की तबियत ज़्यादा ख़राब होने से उन्हें अस्पताल दाख़िल करना पड़ा है। चार सप्ताह बाद सुनील काम पर वापिस आया तो एक बड़ा सा मिठाई का डिब्बा खन्ना साहब के हाथ में थमा उनके पाँव छूते हुए बोला, "अंकल, मुझे आशिर्वाद दें, मैंने शादी कर ली है। मेरे पापा तीन दिन बाद जब घर वापस आये तो मम्मी कान खाने लगीं कि हमारे जीते-जी शादी कर लो, बाद में जहाँ रहना-वहना होगा तुम्हारी मर्ज़ी। बस चट मंगनी, पट ब्याह हो गया।" खन्ना साहब यह सुन टूट से गये . . . उनके सारे सपनों पर पानी जो फिर गया था।

चन्द महिनों में सुनील की पत्नी भी इंग्लैंड आ गई। अब सुनील पहले की तरह खन्ना साहब के कारोबार में दिलचस्पी नहीं ले रहा था . . . सुबह समय पर नौ बजे ही आता और शाम को छ: बजते ही घर जाने की करता . . . कभी 'वाइफ़ को शॉपिंग करवानी है, या घुमाने ले जाना है' ऐसा कहकर चला जाता। खन्ना साहब कुछ न कह पाते। लेकिन एक दिन उन्हें बहुत धक्का लगा जब सुनील ने काम छोड़ने की बात कही . . . वह कंप्यूटर का कोई अपना छोटा-मोटा कारोबार खोलने जा रहा था। परन्तु जब उसकी पूरी वज़ह सुनी कि 'वो जल्द से जल्द अपना कर्ज़ा चुका और पैसे जमा कर इंडिया हमेशा के लिए लौट जाना चाहता है' तो उनके दिल को यह सोच राहत मिली कि "अच्छा हुआ इसकी पिंकी से शादी नहीं हुई, नहीं तो मैं अपनी इकलौती बेटी को इसके साथ हमेशा के लिए इंडिया कैसे भेज पाता?" ख़ैर, उन्होंने सुनील को आशीर्वाद दिया और ख़ुशी-ख़ुशी दो सप्ताह बाद उसके काम छोड़ने वाले दिन बढ़िया सी फ़ेयरवेल पार्टी भी दी।

सुनील को काम छोड़े लगभग दो महीने हो चुके थे। लेकिन न ही उसका कोई फोन आया न ही वो गराज पर किसी से मिलने आया। शुरू-शुरू में दो-एक बार जब खन्ना साहब ने उसके मोबाइल का नम्बर मिलाया तो कुछ देर बजने के बाद वोयसमेल पर चला गया और फिर कुछ दिनों बाद वो नम्बर भी नहीं . . .  'शायद सुनील ने नया नम्बर ले लिया है।' उन्होंने सोचा, "लड़का मेहनती है सो दिन-रात एक करके पैसा बनाने में लगा हुआ होगा।" और फिर उन्हें भी इतनी फ़ुर्सत कहाँ थी, क्योंकि उनका कारोबार भी औरों के कारोबारों की तरह रिसैशन की गिरफ़्त में आ चुका था। पुराने ग्राहक ग़ायब होते जा रहे थे, सो नए ग्राहकों को ढूँढने में सारा दिन इधर-उधर गुज़र जाता था।

एक शाम खन्ना साहब घर लौटते हुए रास्ते में एक सुपरमार्किट से कुछ सामान ख़रीदने पहुँचे। कार-पार्क में ही एक पुराने ग्राहक से मुलाक़ात हो गई। उसकी नई कार देख उन्होंने हँसते हुए कहा, "मुबारक हो, मुबारक हो! यार, उस पुरानी खटारा का क्या हुआ?" वो हैरान हो बोला, "क्यों, आप ही के सुनील का तो कमाल है। भई, मेरे तो दोनों साले भी उसके काम से इतने ख़ुश हैं कि अपने परिवार वालों की सभी गाड़ियाँ उसी से ठीक करवाते हैं। भला हो आपका जो उसे हमारी कारें घर से ले जाकर, फिर ठीक-ठाक कर वापिस भेजने का काम दे रखा है। बड़ा ही मेहनती लड़का है जी।"

यह सुनते ही खन्ना साहब के दिमाग़ में बिजली सी कौंधी और उन्हें अपने सवालों का जवाब मिल गया कि . . .  पिछले कुछ महिनों से उनके कारोबार के मंद होने का कारण रिसैशन नहीं बल्कि सुनील था, जिसने उनकी पीठ में छुरा घोंपा था। मन ही मन दु:खी होते हुए खन्ना साहब क़सम खा रहे थे कि आज से वह किसी की कभी कोई मदद नहीं करेंगे।

 . . .  और यदि करेंगे भी तो बदले में उस इंसान से कोई उम्मीद न रखेंगे।

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